श्री विष्णुपुराण के अंतर्गत केशिध्वज और खांडिक्य की कथा के माध्यम से समझिये बहिरंग साधना और अंतरंग साधना को। जानते है आत्मविद्या और ब्रह्मविद्या का परिचय देती इस कथा के बारे।
ये कथा है श्री विष्णुपुराण की। एक थे जनक धर्मध्वज, जिनके दो पुत्र थे अमितध्वज और कृतिध्वज। अमितध्वज के पुत्र थे, खांडिक्य और कृतिध्वज के पुत्र थे, केशिध्वज।
केशीध्वज आध्यात्म मार्ग का पथिक था तो वही उसका चचेरा भाई खांडिक्य कर्मकांड का उपासक था। उत्तराधिकार के लिए दोनों में अपने अपने सत्य के साथ विवाद था।
अपना अपना सत्य इस प्रकार था कि Keshidhwaja के पिता कृतिध्वज ने अपने हिस्से में से कुछ गांव जीवन निर्वहन के लिए अमितध्वज को दिए थे। Khanikya उन पर अधिकार समझता था ये उसका सत्य था। तो वही केशीध्वज उन गाँवो पर अपना अधिकार समझता था ये उसका सत्य था।
दोनों में एक बार युद्ध हुआ और Keshidwaj ने Khadikya को पराजित कर दिया। सजा के रूप में केशीध्वज ने खांडिक्य को उसके परिवार व् मंत्रियो सहित राज्य से निष्काषित कर दिया। अब खांडिक्य अपने परिवार, पुरोहित, सहचरो और मंत्रियो के साथ वन में रहने लगे।
कुछ समय बाद केशीध्वज, एक यज्ञ अनुष्ठान के लिए एक वन में गए, वहां उनके साथ एक दुर्घटना हो गयी। दुर्घटना ये थी कि यज्ञ में दान के लिए ले जाई गयी गायों में से, एक गाय हिंसक जानवर की शिकार हो गयी, तो उसका दोष केशीध्वज पर आ गया। इस पर केशीध्वज ने इस गौ-हत्या के प्रायश्चित के लिए अपने पुरोहितो से विचार-विमर्श किया लेकिन किसी के भी पास कोई समाधान न था।
केशीध्वज फिर अपने कुलगुरु से मिले लेकिन उनके पास भी कोई समाधान नहीं निकला, उन्होंने राजा केशीध्वज को ऋषि सुनक से मिलने का परामर्श दिया।
केशीध्वज ऋषि सुनक से मिले और अपनी व्यथा सुनायी।
इस पर ऋषि सुनक कुछ विचार कर बोले – राजन ! इसका उपाय तो कोई कर्मकांड का ज्ञानी और इसमें पारंगत व्यक्ति ही दे सकता है, जिसने मृत्यु के बंधन काटने के लिए अनेक यज्ञ किये हो जो नित्य निरंतर बहिरंग साधनाओं में लगा हुआ हो, लेकिन जिसे मैं जानता हूँ वह कर्मकांड महान उपासक तुम्हारा भाई खांडिक्य है जो तुम्हारा शत्रु है।
राजा केशीध्वज बिना कुछ बोले वापस अपने महल लौट आये और मंत्रियो के साथ विचार विमर्श करने लगे।
मंत्रियो ने कहा – राजन ! खांडिक्य, आपका शत्रु है और शत्रु पर भरोसा करना मूर्खता होगी।
केशीध्वज ने कहा – मैं जानता हूँ। कुछ भी हो, मैं फिर भी उसके पास जायूँगा क्युकी अगर धर्म का कार्य करते हुए मुझे मृत्यु या धोखा भी प्राप्त हुआ तो पवित्र कार्य के लिए मेरी मृत्यु होगी, और अगर उसने मुझे पाप से मुक्ति का उपाय बताया तो मेरा प्रायश्चित पूरा होगा। मृत्यु के भय से, मैं अपने शत्रु सामने जाने से नहीं डरूंगा।
और फिर केशीध्वज मृग चर्म धारण करके, एक विद्यार्थी के रूप में, वन में अपने भाई और शत्रु खांडिक्य को खोजने लगे।
खांडिक्य को जब अपने सहचरो से पता चला तो क्रोध से भर आया और गुस्से में वहां जाकर –
खांडिक्य बोला – बाघ की खाल और विद्यार्थी का भेष बनाकर मुझे ठगने आया है केशीध्वज। क्या तू ये भी भूल गया की हम दोनों क्षत्रिय है इन बाघों का शिकार हम दोनों ने कई बार किया है। आज तेरा भी वध मेरे हाथो से होगा। अब याद कर अपने पापो को की किस तरह तूने मेरा राज्य छीनकर मुझे मेरे परिवार और स्वजनों सहित वन में भटकने को मजबूर किया। अब तू इस वन से जीवित नहीं लौट सकेगा।
केशीध्वज – ठहरो ! खांडिक्य। मैं यहाँ, न मैं तुम्हारी हत्या करने आया हूँ और न किसी तरह से कोई नुकसान पहुंचाने। तुम अपना क्रोध और हथियार दोनों रख दो।
खांडिक्य – फिर तू यहाँ मरने क्यों आया है?
केशीध्वज – मैं तुम्हारे पास, एक प्रायश्चित के विधान के लिए आया हूँ।
खांडिक्य – कुछ पल यहाँ मेरी प्रतीक्षा करो। मैं अपने स्वजनों से परामर्श करके बताता हूँ। शायद मैं तुम्हारी मृत्यु से पहले तुम्हारे प्रायश्चित का विधान बता सकूँ।
फिर खांडिक्य अपने सहचरो और मंत्रियो से मिला और उसके आने का कारण बताया।
मंत्रियो ने कहा – महाराज ! यही मौका है अपना खोया राज्य वापस पाने का। ऐसा मौका सौभाग्य से मिलता है। आपका एक प्रहार और उसका सर धड़ से अलग। आपके शत्रु के वध करने का इससे अच्छा अवसर नहीं मिलेगा। इसमें सोचना कैसा?
क्या सोच रहे है राजन ! उठिये और अपना प्रतिशोध पूरा कीजिये।
खांडिक्य – मैं सोच रहा हूँ कि मैं इस पृथ्वी का साम्रज्य तो पा लूंगा लेकिन वो मरकर भी परलोक को प्राप्त होगा । ये धरती मेरी होगी लेकिन स्वर्ग उसका होगा। यदि मैं उसे अभी नहीं मारता तो निश्चित ही धरती मेरी नहीं होगी पर प्रयाश्चित बताने के कारण स्वर्ग में मुझे स्थान प्राप्त होगा।
धरती का साम्राज्य और धरती का सुख स्थायी और अनंत नहीं है, पर परलोक का साम्राज्य स्थायी और अनंत है। इसलिए मैं उसे नहीं मारूंगा वो जो भी जानना चाहता है, उसे बतायूंगा। शायद यही मेरा प्रतिशोध है।
फिर खांडिक्य, केशीध्वज के पास जाता है और अभय दान देकर कहता है तुम निर्भय हो और तुम जो चाहो वो पूछो !
फिर यज्ञ विद्या में पारंगत खांडिक्य ने केशीध्वज को उस प्रायश्चित का विधान बताया। केशीध्वज ने भी नियम पूर्वक हर विधि विधान को पूरा किया।
लेकिन केशीध्वज को अपना प्रायश्चित संपन्न करने के पश्चात भी संतोष नहीं मिला। मन व्याकुल था। सोच रहा था प्रायश्चित का विधान तो पूरा हो गया पर मन प्रसन्न क्यों नहीं है। ऐसा क्या है जिसे में भूल गया हूँ? मैंने तो प्रायश्चित में आये हर पुरोहित को पूरा दान और सम्मान दिया, जिसने जो भी इच्छा व्यक्त की उसे पूरी की। हर प्रार्थना, कामना और अभिलाषा को पूरा किया, फिर भी मेरा मन शांत क्यों नहीं है। क्यों ऐसा आभास हो रहा है कि मेने अपना कर्तव्य पूरा नहीं किया।
इतने में अचानक से केशीध्वज को याद आया कि मेने खांडिक्य से प्रायश्चित का विधान तो पूछ लिया लेकिन उसे गुरु स्वरुप योग्य दक्षिणा नहीं दी।
इसलिए एक बार फिर से केशीध्वज अपने शत्रु के सामने खड़ा था।
गुस्से से खांडिक्य बोला – मृत्यु के मुख में तुम्हारा स्वागत है केशीध्वज ! पिछली बार तुम विद्यार्थी के रूप में आये थे तो बच गए लेकिन इस बचना मुश्किल प्रतीत होता है। कहो जीवन के अंतिम क्षणों में क्या जानना चाहते हो?
केशीध्वज – खांडिक्य ! तुम्हारी शिक्षा के कारण मेरा यज्ञ पूरा हुआ। इसलिए एक शिक्षक को देने योग्य दक्षिणा तुम्हे देने के लिए यहाँ में आया हूँ। इसलिए जो भी तुम्हारे मन मैं इच्छा हो मांग लो। उसे पूरा करने का मैं संकल्प लेता हूँ।
खांडिक्य – अगर तुम्हारा ऐसा संकल्प है तो कुछ पल यहाँ मेरी प्रतीक्षा करो। मैं सहचरो और मंत्रियो जो मेरे सुख दुःख में सहभागी है उनसे विचार विमर्श करके बताता हूँ। देखता हूँ आज तुमको जीवन मिलता है या मृत्यु।
मंत्रीगण – राजन ! यही अवसर है आप दक्षिणा में अपना राज्य मांग लीजिये। बुद्धिमान पुरुष बिना युद्ध के हाथ आये ऐसे अवसर नहीं छोड़ते है।
खांडिक्य – ( मंद मंद मुस्कुराते है )
मंत्रीगण – राजन ! ये क्या? आप हंस रहे है ? इसी दिन की प्रतीक्षा में तो हम लोग आपके साथ-साथ वन में भटक रहे थे।
खांडिक्य – हुँह ! उसके द्वारा भिक्षा में धरती का साम्राज्य भी मिल जाए, तो भी मुझे क्या मिलेगा? अगर मैं जीवन भर अज्ञान को ढोते हुए मर गया ।
और फिर वह केशीध्वज के पास जाता है और कहता है
खांडिक्य – केशीध्वज क्या तुम्हारा मुझे गुरु दक्षिणा देने का संकल्प अभी भी दृढ़ है ?
केशीध्वज – हाँ ,खांडिक्य . जो इच्छा है निसंकोच कहो।
खांडिक्य – तो फिर तुम मुझे आत्मविद्या की शिक्षा या उसका रहस्य बता दो जिसे प्राप्त करके मनुष्य संसार के बंधन और सुख-दुःख से ऊपर उठ जाता है।
केशीध्वज – खांडिक्य! तुम चाहते तो मेरा राज्य भी मांग सकते थे ?
खांडिक्य – साम्राज्य भी अज्ञान से उपजी महत्वकांक्षा है। फिर उसे मैं क्यों मांगू। जो अज्ञानी होगा वही साम्राज्य की कामना कर सकता है तुम आध्यात्म में परम ज्ञानी हो। मै इस अवसर को भला कैसे छोड़ दूँ। मैं तुमसे वो रहस्य जानना चाहूंगा जो तुमने वर्षो की मेहनत से अर्जित किया है।
और फिर केशीध्वज ने अतरंग साधना का रहस्य बताना शुरू किया।
(जिसे आप सबको ध्यान पूर्वक जानना चाहिए। )
अतरंग साधना का रहस्य –
केशीध्वज – खांडिक्य ! ये मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। मन का इन्द्रियों के सुख में रमना बंधन का कारण है। जैसे ही मन इन्द्रियों के विषयो (अर्थात सुखो या इच्छाओं) से दूर हटता है तो वही मोक्ष का कारण बन जाता है। इसलिए साधक को अपने मन को इन्द्रियों के सुख से दूर रखना चाहिए। जो व्यक्ति तुम्हारी तरह बहिरंग साधना से युक्त है, वह अतरंग साधना में शीघ्र प्रवेश करता है, क्युकी जप तप व्रत और यज्ञ (बहिरंग साधना ) से उसका मन पवित्र हो चूका होता है। उसके बाद साधक अतरंग साधना (श्रवण, मनन, निधिद्यासन ) से आत्मज्ञान प्राप्त करता है।
अतरंग साधना के चरण –
श्रवण, मनन, और निदिध्यासन अतरंग साधना के चरण है।
श्रवण (पहला चरण) –
श्रवण का अर्थ सिर्फ सुनना नहीं है। इसका अर्थ है अपने गुरु से सावधानी और श्रद्धापूर्वक वेदांत की शिक्षा को सुनकर उसके आशय का निर्णय करना । यह सावधानी देने से ही संभव हो सकता है। इसलिए साधक को वेदांत के एक एक शब्द का आशय बड़े सावधानी से ग्रहण करना चाहिए।
इसके बाद दूसरा चरण आता है मनन का।
मनन (दूसरा चरण ) –
मनन अर्थात गुरु द्वारा दी गयी शिक्षा का तर्क द्वारा स्वयं के द्वारा विश्लेषण करना अर्थात उसकी जाँच पड़ताल करना।
नित्य निरंतर साधक अपने गुरु से अर्जित शिक्षा को विश्लेषण से अपने निजी अनुभव में बदल देता है।
खांडिक्य! हम मान लेते है कि जीव ब्रह्म एक है लेकिन फिर भी अनात्मा के प्रति वासना कारण शरीर के स्तर पर बची रह जाती है। और इस अनात्मा वासना के मुक्ति के पाने के लिए आत्मा वासना अर्थात “मैं ब्रह्म हूँ” के विचार का नित्य निरंतर ध्यान करना चाहिए जिससे मन “मैं ब्रह्म हूँ” के विचार पर और ज्यादा एकाग्र हो जाता है। फिर देखने वाले दूसरे विचार समाप्त होते चले जाते है।
निधिद्यासन (तीसरा चरण) –
इस अनात्मा वासना से मुक्ति के लिए निधिद्यासन की आवश्यकता होती है। और “मैं ब्रह्म हूँ” इस बात को दृढ़ बनाना ही निधिद्यासन या ध्यान कहलाता है।
जीवन्मुक्त (4th चरण) –
“मैं ब्रह्म हूँ”का नित्य निरंतर ध्यान करने से एक ऐसी अवस्था भी आती है जब “मैं ब्रह्म हूँ” का विचार भी समाप्त हो जाता है। साधक ब्रह्म से एक हो जाता है। जीव ब्रह्म से एक हो जाता है।
ये अवस्था शुद्ध चैतन्य अर्थात सर्वोच्च सत्य की अवस्था है। जो जीते जी मुक्त हो जाता है उसे जीवन्मुक्त कहलाता है।
खांडिक्य – केशीध्वज ! मेरे साथ अतरंग साधना का रहस्य बांटने के लिए, मैं हमेशा तुम्हारा ऋणी रहूँगा।
केशीध्वज – खांडिक्य! तुम धन्य हो क्युकी मैं इस ब्रह्मविद्या को सिर्फ बौद्धिक स्तर पर जानता हूँ पर वास्तव में तुम उसका अपने जीवन में अनुभव कर रहे हो, और जिसके कारण तुमको साम्राज्य भी तुच्छ लगता है। तुम बुद्धिमान हो। तुम वास्तव में धन्य हो। तुम वास्तव में इस विद्या के अधिकारी हो।
जो अतरंग साधना रहस्य जान लेता है और उसका अनुभव अपने जीवन में करने लगता है वह शुभ व् अनंत हो जाता है।
मेरे विचार – पहले मैं कर्मकांड को ठीक नहीं समझाता था लेकिन इस विष्णुपुराण की कथा से पता चला की कर्मकांड (जप, तप, व्रत और यज्ञ ) ही बहिरंग साधना का भाग है, जिससे व्यक्ति की बुद्धि शुद्ध हो जाती है। और शुद्ध बुध्दि ही अतरंग साधना (श्रवण, मनन, निधिद्यासन ) को समझ सकती है और उसमे प्रवेश करके उसमे अभ्यास और उसका अनुभव कर सकती है ।
बस अंतिम विचार – हे परमात्मा! मैं तुमको न भूलू। जय श्री हरि। जय श्री विष्णु पुराण।
Source – Upnishad Ganga
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