श्रीभविष्यपुराण के अनुसार अक्षय तृतीया कथा (अध्याय 30-33 ) – भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले – महाराज! अब आप वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की अक्षय-तृतीया की कथा सुनें।

इस दिन स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय, तर्पण आदि जो भी कर्म किये जाते हैं, वे सब अक्षय हो जाते हैं। सत्ययुग का आरम्भ भी इसी तिथि को हुआ था, इसलिये इसे कृत युगादि तृतीया भी कहते हैं। यह सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाली एवं सभी सुखों को प्रदान करने वाली है। इस सम्बन्ध में एक आख्यान प्रसिद्ध है, आप उसे सुनें –

शाकल नगर में प्रिय और सत्यवादी, देवता और ब्राह्मणों का पूजक धर्म नामक एक धर्मात्मा वणिक्‌ रहता था। उसने एक दिन कथाप्रसंग में सुना कि यदि वैशाख शुक्ल की तृतीया रोहिणी नक्षत्र एवं बुधवार से युक्त हो तो उस दिन का दिया हुआ दान अक्षय हो जाता है। यह सुनकर उसने अक्षय तृतीया के दिन गंगा में अपने पितरों का तर्पण किया और घर आकर जल और अन्न से पूर्ण घट, सत्तू, दही, चना, गेहूँ, गुड़, ईख, खाँड़ और सुवर्ण श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दान दिया। कुटुंब में आसक्त रहने वाली उसकी स्त्री उसे बार-बार रोकती थी, किंतु वह अक्षय तृतीया को अवश्य ही दान करता था। कुछ समय के बाद उसका देहान्त हो गया।

अगले जन्म में उसका जन्म कुशावती (द्वारका) नगरी में हुआ और वह वहाँ का राजा बना। दान के प्रभाव से उसके ऐश्वर्य और धन की कोई सीमा न थी। उसने पुनः बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञ किये। वह ब्राह्मणों को गौ, भूमि, सुवर्ण आदि देता रहता और दीन-दुःखियों को भी संतुष्ट करता, किंतु उसके धन का कभी हास नहीं होता। यह उसके पूर्वजन्म में अक्षय तृतीया के दिन दान देने का फल था।

महाराज! इस तृतीया का फल अक्षय है। अब इस ब्रत का विधान सुनें –

सभी रस, अन्न, शहद, जल से भरे घड़े, तरह-तरह के फल, जूता आदि तथा ग्रीष्म-ऋतु में उपयुक्त सामग्री, अन्न, गौ, भूमि, सुवर्ण; वस्त्र जो पदार्थ अपने को प्रिय और उत्तम लगें, उन्हें ब्राह्मणों को देना चाहिये। यह अतिशय रहस्य की बात मैंने आपको बतलायी। इस तिथि में किये गये कर्म का क्षय नहीं होता, इसीलिये मुनियों ने इसका नाम अक्षय-तृतीया रखा है।


श्रीमत्स्यपुराण के अनुसार अक्षय-तृतीया की कथा (Akshaya Tritiya Vrat Katha) (अध्याय 65 ) – मत्स्यपुराण के अध्याय 65 में इसके विषय में एक दूसरी कथा आती है, जिसमें कहा गया है कि इस दिन अक्षत से भगवान्‌ विष्णु की पूजा करने से वे विशेष प्रसन्न होते हैं और उसकी संतति भी अक्षय बनी रहती है –

अक्षया संततिस्तस्य तस्यां सुकृतमक्षयम्‌। अक्षतै: पूज्यते विष्णुस्तेन साक्षया स्मृता।

अक्षय-तृतीया व्रत की विधि और उसका माहात्म्य –

भगवान्‌ शंकर ने कहा – नारद! अब मैं सम्पूर्ण कामनाओं को प्रदान करने वाली एक अन्य तृतीया का वर्णन कर रहा हूँ, जिसमें दान देना, हवन करना और जप करना सभी अक्षय हो जाता है। जो लोग वैशाख मास के शुक्लपक्ष की तृतीया के दिन ब्रतोपवास करते हैं, वे अपने समस्त सत्कर्मो का अक्षय फल प्राप्त करते हैं। वह तृतीया यदि कृत्तिका नक्षत्र से युक्त हो तो विशेषरूप से पूज्य मानी गयी है। उस दिन दिया गया दान, किया हुआ हवन और जप सभी अक्षय बतलाये गये हैं। इस ब्रत का अनुष्ठान करने वाले की संतान अक्षय हो जाती है और उस दिन का किया हुआ पुण्य अक्षय हो जाता है। इस दिन अक्षत के द्वारा भगवान्‌ विष्णु की पूजा की जाती है, इसीलिये इसे अक्षय-ततीया कहते हैं।*

मनुष्य को चाहिये कि इस दिन स्वयं अक्षतयुक्त जल से स्नान करके भगवान्‌ विष्णु की मूर्ति पर अक्षत चढ़ावे और अक्षत के साथ ही शुद्ध सत्तू ब्राह्मणों को दान दे; तत्पश्चात्‌ स्वयं भी उसी अन्न का भोजन करे।

महाभाग! ऐसा करने से वह अक्षय फल का भागी हो जाता है। उपर्युक्त विधि के अनुसार एक भी तृतीया का व्रत करने वाला मनुष्य इन सभी तृतीया-ब्रतों के फल को प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य इस तृतीया तिथि को उपवास करके भगवान्‌ जनार्दन की भलीभाँति पूजा करता है, वह राजसूय-यज्ञ का फल पाकर अन्त में श्रेष्ठ गति को प्राप्त होता हैं।

* ध्यान रहे – सामान्यतया अक्षतके द्वारा विष्णुका पूजन निषिद्ध है–‘नाक्षतैरर्चयेद् विष्णुं न केतक्या महेश्वरम्’ (पद्म० ६। ९६। २०) |
केवल इस दिन अक्षत से उनकी पूजा का विधान है। अन्यत्र अक्षत के स्थान पर सफेद तिल का विधान है। इस ब्रत की विस्तृत विधि भविष्यपुराण एवं ‘ब्रत-कल्पद्वुम ‘में है। इसी तिथि को सत्ययुग का प्रारम्भ तथा परशुरामजी का जन्म भी हुआ था।


स्रोत

१. संक्षिप्त श्रीभविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अक्षय तृतीया के प्रसंग में धर्म वणिक का चरित्र – पेज संख्या 423
२. श्री मत्स्य पुराण – अध्याय 66 – सारस्वत व्रत की विधि और उसका माहात्म्य – पेज संख्या – 258
दंडवत आभार – श्रीगीताप्रेस गोरखपुर


 

FAQs –

अक्षय तृतीया का इतिहास क्या है?

अक्षय तृतीया एक विशेष तिथि है, इसके बारे में श्री कृष्ण भगवान् ने स्वयं युधिष्ठिर को बताया था (भविष्य पुराण), और शिव जी ने भी नारद जी को बताया है (श्रीमत्स्यपुराण)

क्या, विष्णु भगवान का पूजन अक्षत से निषिद्ध है?

नाक्षतैरर्चयेद् विष्णुं न तुलस्या गणाधिपम्। न दूर्वयायजेत् दुर्गां बिल्वपत्रैश्च भास्करम्॥
अक्षत से विष्णु की, तुलसी से गणेश की, दूब से दुर्गा की और बेलपत्र से सूर्य की पूजा नहीं करनी चाहिए।