ये बात उस समय की जब महाभारत का युद्द समाप्त हो चूका था। युद्ध के बाद युधिष्ठिर और सभी पांडव काफी दुखी थे. उनके राज्य का खजाना खाली हो गया था. उनके अपने भाई, गुरू और वशिष्ठजनों की मौत हो चुकी थी. मन की शांति और सभी पश्चातापों को पूरा करने के लिए युधिष्ठिर ने अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन करने की योजना बनाई, जिसका सुझाव भगवन श्री कृष्ण और ऋषि व्यास ने दिया था. धनराशि पर्याप्त नहीं थी, पर फिर भी राज्यों से मदद लेकर युधिष्ठिर ने एक भव्य अश्वमेघ यज्ञ समारोह आयोजित किया और अश्व की रक्षा की जिम्मेदारी अर्जुन को सौंपी.
यज्ञ के बाद अश्व को छोड़ा गया. वह अश्व जिस राज्य में भी जाता, वह राज्य सहर्ष पांडवों के प्रति समर्पित हो जाता. उनका कर स्वीकार कर लेता या मित्रता का हाथ बढ़ाता. जिन राज्यों ने मित्रता नहीं की, उनसे अर्जुन ने युद्ध किया.
यह क्रम चल ही रहा था कि तब यज्ञ का अश्व मणिपुर जा पहुंचा। मणिपुर नरेश बभ्रुवाहन ने जब सुना कि मेरे पिता आए हैं, तब वह गणमान्य नागरिकों के साथ बहुत-सा धन साथ में लेकर बड़ी विनय के साथ उनके दर्शन के लिए नगर सीमा पर पहुंचा।
पिछली कहानियों में हम आपको अर्जुन और चित्रांगदा का विवाह और अर्जुन और चित्रांगदा के पुत्र बभ्रुवाहन में जानकारी दे चुके है।
मणिपुर नरेश को इस प्रकार आया देख अर्जुन ने धर्म का आश्रय लेकर उसका आदर नहीं किया। उस समय अर्जुन कुछ कुपित होकर बोले, बेटा! तेरा यह ढंग ठीक नहीं है। जान पड़ता है, तू क्षत्रिय धर्म से बहिष्कृत हो गया है पुत्र। मैं महाराज युधिष्ठिर के यज्ञ संबंधी अश्व की रक्षा करता हुआ तेरे राज्य के भीतर आया हूं। फिर भी तू मुझसे युद्ध क्यों नहीं करता? क्षत्रियों का धर्म है युद्ध करना।
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ववरुवाहन के द्वारा अर्जुन वध –
अर्जुन ने क्रोधित होकर कहा, तुझ दुर्बुद्धि को धिक्कार है। तू निश्चय ही क्षत्रिय धर्म से भ्रष्ट हो गया है, तभी तो एक स्त्री की भांति तू यहां युद्ध के लिए आए हुए मुझको शांतिपूर्वक साथ लेने के लिए चेष्टा कर रहा है। इस तरह अर्जुन ने अपने पुत्र को बहुत खरी-खोटी सुनाई।
उस समय अर्जुन की पत्नी नागकन्या उलूपी भी उस वार्तालाप को सुन रही थीं। तब मनोहर अंगों वाली नागकन्या उलूपी धर्म निपुण बभ्रुवाहन के पास आकर यह धर्मसम्मत बात बोली- बेटा तुम्हें विदित होना चाहिए कि मैं तुम्हारी विमाता नागकन्या उलूपी हूं। तुम मेरी आज्ञा का पालन करो। इससे तुम्हें महान धर्म की प्राप्ति होगी। तुम्हारे पिता कुरुकुल के श्रेष्ठ वीर और युद्ध के मद से उन्मत्त रहने वाले हैं। अत: इनके साथ अवश्य युद्ध करो। ऐसा करने से ये तुम पर प्रसन्न होंगे। इसमें संशय नहीं है। यह सुनकर बभ्रुवाहन ने अपने पिता अर्जुन से युद्ध करने का निश्चय किया। तब अर्जुन और बभ्रुवाहन के बीच घोर युद्ध हुआ। कहते हैं कि इस युद्ध में युद्ध में बभ्रुवाहन मूर्छित हो गए थे और अर्जुन मारे गए थे।
विष्णु पुराण के अनुसार महाभारत के बाद की एक कहानी है. जिसमें अर्जुन की मृत्यु और फिर पुन: जीवित होने का रहस्य भी छुपा हुआ है।
जब उलूपी ने अर्जुन को दिया जीवनदान –
अर्जुन के मारे जाने का समाचार सुनकर युद्ध भूमि में अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा पहुंचकर विलाप करने लगी। वह उलूपी से कहने लगी कि तुम्हारी ही आज्ञा से मेरे पुत्र बभ्रुवाहन ने अपने पिता से युद्ध किया। चित्रांगदा ने रोते हुए उलूपी से कहा कि तुम धर्म की जानकार हो बहन। मैं तुमसे अर्जुन के प्राणों की भीख मांगती हूं। चित्रांगदा ने उलूपी को कठोर और विनम्र दोनों ही तरह के वचन कहे। अंत में उसने कहा कि तुम्हीं ने बेरे बेटों को लड़ाकर उनकी जान ली है। मेरा बेटा भले ही मारा जाए लेकिन तुम अर्जुन को जीवित करो अन्यथा मैं भी अपने प्राण त्याग दूंगी। तभी मूर्छित बभ्रुवाहन को होश आ गया और उसने देखा कि उसकी मां अर्जुन के पास बैठकर विलाप कर रही है और विमाता उलूपी भी पास ही खड़ी है। बभ्रुवाहन अपने पिता अर्जुन के समक्ष बैठकर विलाप करने लगा और प्रण लिया कि अब मैं भी इस रणभूमि पर आमरण अनशन कर अपनी देह त्याग दूंगा।
पुत्र और मां के विलाप को देख-सुनकर उलूपी का हृदय भी पसीज गया और उसने संजीवन मणिका का स्मरण किया। नागों के जीवन की आधारभूत मणि उसके स्मरण करते ही वहां आ गई। तब उन्होंने बभ्रुवाहन से कहा कि बेटा उठो, शोक मत करो। अर्जुन तुम्हारे द्वारा परास्त नहीं हुए हैं। ये मनुष्यमात्र के लिए अजेय हैं। लो, यह दिव्य मणि अपने स्पर्श से सदा मरे हुए सर्पों को जीवित किया करती है। इसे अपने पिता की छाती पर रख दो। इसका स्पर्श होते ही वे जीवित हो जाएंगे। बभ्रुवाहन ने ऐसा ही किया। अर्जुन देर तक सोने के बाद जागे हुए मनुष्य की भांति जीवित हो उठे।
अर्जुन को ब्रह्मा-पुत्र वसुओं का श्राप –
पर उलूपी के कृत्य से नाराज, सभी लोग उलूपी से कारण जानना चाहते थे.
तब उसने बताया कि महाभारत में अर्जुन ने पितामह भीष्म की छल से हत्या की थी, जबकि पूरे युद्ध में उन्होंने पांडवों पर एक भी वार नहीं किया था. इस बात से भीष्म के सभी वसु भाई नाराज थे. महाभारत के बाद वसु गंगा तट पर जमा हुए और उन्होंने आपको श्रॉप देने का मन बनाया.
(हालाँकि अर्जुन का मन पहले से ही ग्लानि से भरा हुआ था। जिसका सबसे बड़ा कारण भी अपने पितामह को छल से मारने को लेकर था। उधर माँ गंगा स्वर्ग में बहुत ही नाराज़ थी अर्जुन से। भीष्म जो की अब एक वसु थे उन्होंने माँ गंगा को समझाया की जो होना था वो चूका है, ये नियति थी फिर इसका दोष अर्जुन पर मढ़ना ठीक नहीं। काफी समझाने पर गंगा मान जाती है। इधर अर्जुन अश्व के पीछे चलते चलते गंगा के तट पर पहुंचते है और सोचते है की माँ गंगा से अपने किये हुए कृत्य पर क्षमा मांग लू। )
जैसे ही अर्जुन गंगा के तट के पास नज़दीक पहुंचते है, तो वहाँ सात वसु प्रकट हो जाते है, और कहते है की – अर्जुन ! तुम पापी हो, तुमने मेरे भाई भीष्म को अधर्म से मारा है, तुम गंगा का पवित्र जल छूने योग्य नहीं हो। फिर अर्जुन और वसुओं के बीच युद्ध होता है। अर्जुन अपनी धनुर्विद्या से सभी वसुओं को वन्दी बनाकर वही तट पर छोड़ देते है और गंगा जल से आचमन कर, माँ गंगा से क्षमा मंगाते है और उन वसुओं को वही छोड़ आगे निकल जाते है। में उलूपी ये दृश्य दूर से ही देख रही थी। तभी सभी वसु दुखी होकर अर्जुन को श्राप देते है। शाप ये था कि अर्जुन ने छल से गंगापुत्र भीष्म को शिखंडी की आड़ से मारा था इसलिए वो भी अपने पुत्र के हाथों मारे जाएंगे।
यह बात मैंने सुन ली और तत्काल अपने पिता कौरव्य को बताई. मेरे पिता ने वसुओं से प्रार्थना की कि वे ऐसा न करें. तब वसुओं ने कहा कि अर्जुन की मृत्यु उसी के पुत्र के हाथों होगी. उसका एक बार मरना निश्चित है. अत: मैंने एक युक्ति सोची. जिसके अनुसार मैंने ही अपनी माया से बभ्रुवाहन को आपका वध करने के लिए राजी किया और अब तत्काल आपको जीवनदान दिया है.
इसी कारण से उलूपी ने भी वभ्रुवाहन को लड़ने के लिए प्रेरित किया था। अर्जुन को अपनी गलती का एहसास हुआ. उन्होंने उलूपी से क्षमा मांगी. अर्जुन ने कहा कि तुम्हारे पुत्र इरावन ने पांडवों के लिए अपना जीवन त्याग दिया और तुमने मुझे जीवन दान दिया. इस प्रकार पूरा पांडव वंश तुम्हारा कृतज्ञ होगा.
जिस तरह भगवान के प्रिय होने के बावजूद भी अर्जुन को अपनी गलती का फल मिला, तो साधारण मनुष्य भी कर्म के फल से नहीं बच सकता। हमे ये सीखना चाहिए कि कर्म के फल से कोई नहीं बच सकता है। अनजाने में या जानबुझकर हुई गलती का फल भी कभी न कभी मिलता ही है।
फिर उसने अश्वमेध का घोड़ा अर्जुन को लौटा दिया और अपनी माताओं चित्रांगदा और उलूपी के साथ युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ में शामिल हुए।