एक सदन नाम का कसाई था। वो भगवान् का बहुत बड़ा भक्त था। जीवन यापन के लिए कार्य करना उसने अपना कर्तव्य समझा। गरीब होने के कारण वह शालिग्राम भगवान को तराजू के पलड़े में रखता तो दूसरे पलड़े से दाम के बराबर मांस तौल कर देता। सुबह शाम आते जाते वह शालिग्राम भगवान को साथ घर लाता और उनकी सेवा एक दास के भाव से करता।
एक दिन उसकी दुकान के सामने से एक ऋषि निकले। ऋषि शालिग्राम को तुरंत देखकर पहचान गए और बहुत दुःखी हुए की भगवान् एक कसाई के तराजू में।
ऋषि ने कसाई से आग्रह किया की इन शालिग्राम भगवान् को मुझे दे दो। मैं इनकी अपने अनुसार सेवा करूँगा। तुम इसका दाम ले लो और अपनी जरुरत के अनुसार तुला वजन खरीद लो।
हालाँकि कसाई भी भगवान् का भक्त था लेकिन भगवान् के बारे में – “कि प्रभु की सेवा अब अच्छे से होगी”, सोचकर ऋषि को दे देता है।
ऋषि, शालिग्राम भगवान को घर लेकर आये और उन्हें गंगाजल से नहलाया, पुष्प सिंहासन पर बैठाया, सुन्दर वस्त्रो से ढका और अन्य अन्य प्रकार से सेवा करने लगे।
उसी रात को स्वप्न आया –
शालिग्राम भगवान् ऋषि से बोले – महात्मन आपकी सेवा से में अप्रसन्न नहीं हूँ लेकिन आप मुझे मेरे भक्त के पास ही छोड़ आये।
वह आज भूखा सो रहा है, मैं यहाँ पुष्पों के सिंहासन से कैसे तृप्त हो सकता हूँ। आप मुझे मेरे भक्त के पास ही पहुंचा दे।
ऋषि बोले – प्रभु ! अवश्य, जैसी आपकी इच्छा।
लेकिन, मैं उस कसाई की भक्ति समझा नहीं?
भगवान् शालिग्राम बोले – वह कसाई मेरा बड़ा प्रिय भक्त है। वह सुबह जागकर मेरा ध्यान रखता है। हमेशा अपने साथ रखता है। हमेशा सत्य भाषण करता है, अपने धर्म का पालन सत्य के साथ करता है। मैं हर उस मनुष्य के साथ रहता हूँ जो सत्य अर्थात धर्म पर चलता है। और अधर्म पर चलने वाले का नाश करता हूँ। वह अपने व्यापार को बड़ी ईमानदारी से करता है। व्यापार के समय वह बार बार मुझे याद करता है। हमेशा मुझ पर ध्यान रखता है।
ऐसे भक्त को मैं कैसे छोड़ सकता हूँ जो मेरी याद में आज भूखा सो रहा है।
ऋषि यह सुनकर भाव-विभल हो गए।
सुबह होते ही शालिग्राम भगवान् को कसाई को सौंपकर, उससे अपनी गलती की क्षमा मांगी और भक्ति का आशीर्वाद दिया।