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भक्ति का दुख दूर करने के लिए नारद जी का उद्योग
( Bhakti ka dukh dur karne ke liye narad ka udyog )
सूत जी नैमिषारण्य नाम के क्षेत्र में इस श्रीमद भागवत महापुराण को अपने शिष्यों (शौनक जी आदि) को सुना रहे है। आगे सूत जी कहते है –
वे भक्ति के पुत्रो ज्ञान और वैराग्य को हिला डुला कर जगाने लगते है। फिर उनके कान में आवाज़ देते है कि – ओ ज्ञान! जल्दी जागो। ओ वैराग्य ! जल्दी जागो। फिर उन्होंने वेदधव्नि, वेदांतघोष, और बार बार गीतापाठ करके उन्हें जगाया। इससे वे जैसे तैसे जोर लगाकर उठे। लेकिन आलश्य के कारण बार बार जम्भाई लेने लगे, उनके बाल बगुले के तरह सफ़ेद हो गए थे। भूख प्यास के मारे दोनों दुर्बल फिर से सो गए तो नारद जी को बड़ी चिंता हुई। सोचने लगे की इनकी नींद और सबसे बड़ी इनकी वृदावस्था कैसे दूर हो? क्या उपाय किया जाए? सोच सोच कर दुखी होने लगे। और श्री नारायण को याद करने लगे।
आकाशवाणी द्वारा देवर्षि नारद को सन्देश –
नारद जी ब्रह्मा के तेजस्वी पुत्र है। उन्हें दुखी जानकार, तभी एक आकाशवाणी हुयी। – मुने! खेद मत करो, तुम्हारा यह उद्योग (कार्य) निसंदेह सफल होगा। देवर्षि इसके लिए तुम के सत्कर्म करो, वह कर्म तुम्हे संतशिरोमणि महानुभाव बतायेगे। उस सत्कर्म का अनुष्ठान करते ही क्षणभर में ही ज्ञान और वैराग्य की नींद और वृद्धवस्था चली जाएगी। तथा सर्वत्र भक्ति का प्रसार हो जायेगा।
नारद जी बोले – इस आकाशवाणी ने मार्ग तो बताया है लेकिन वह भी गुप्त है। यह नहीं बताया की कौन सा सत्कर्म करना है? और वो संत शिरोमणि कौन है और कहाँ मिलेंगे जो इसके बारे में बताएँगे?
इतना सोचकर नारद मुनि अपने कार्य करने के लिए निकल पड़ते है। वो प्रत्येक तीर्थ में जा जाकर मुनियो और ऋषियों से इस बारे में पूछते। सभी उनकी बात को ध्यान से सुनते पर कुछ भी उत्तर देने में असमर्थ थे। कुछ इसे असाध्य बताते तो कुछ मौन हो जाते। त्रिलोकी में हाहाकार मच गया। सभी कानाफूसी करने लगे की देवर्षि नारद के वेदधव्नि, वेदांतघोष, और बार बार गीता पाठ करने से भी भक्ति के पुत्र ज्ञान और वैराग्य नहीं उठ सके। तो भला अब क्या उपाय सकता है? स्वयं देवर्षि नारद को इस विषय में ज्ञान नहीं है तो इस त्रिलोक कौन वह संतो का संत, शिरोमणि और ज्ञानी?
नारद जी जिन जिन संतो से पूछते वो सब इसे असाध्य ही बताते तो नारद जी बड़े व्याकुल हो गए। उन्होंने सोचा अब में तप करूँगा, तभी इसका समाधान निकलेगा।
लेकिन तभी उनके सामने करोड़ो सूर्यो के समान तेजस्वी सनकादि मुनि प्रकट हुए।
कौन है सनकादि ऋषि?
जब नौ सृष्टि की रचना करके ब्रह्मा जी को संतुष्टि न मिली तब उन्होंने मन में नारायण का ध्यान कर मन से दशम सृष्टि सनकादि मुनियों की थी जो साक्षात् भगवान ही थे। सनकादि ऋषि (सनकादि = सनक + आदि) से तात्पर्य ब्रह्मा के चार पुत्रों सनक, सनन्दन, सनातन व सनत्कुमार से है। ये ब्रह्मा की अयोनिज संताने हैं जो १० सृष्टियों में से ही गिने जाते हैं। ये प्राकृतिक तथा वैकृतिक दोनों सर्गों से हैं तथा इनकी आयु सदैव पाँच वर्ष की रहती है। ब्रह्मा जी नें उन बालकों से कहा कि पुत्र जाओ सृष्टि करो। सनकादि मुनियों नें ब्रह्मा जी से कहा “पिताश्री! क्षमा करें। हमारे हेतु यह माया तो अप्रत्यक्ष है, हम भगवान की उपासना से बड़ा किसी वस्तु को नहीं मानते अतः हम चारो भाई जाकर उन्हीं की भक्ति करेंगे।” और सनकादि मुनि वहाँ से चल पड़े। वे वहीं जाया करते हैं जहाँ परमात्मा का भजन होता है। नारद जी को इन्होंने श्रीमद भागवत सुनाया था तथा ये स्वयं भगवान शेष से भागवत श्रवण किये थे। पुराणों में उनकी विशेष महत्ता वर्णित है।
नारद जी ने जैसे ही सनकादि ऋषि को देखा तो समझ गए की त्रिलोक में इनसे बड़ा संत शिरोमणि कोई नहीं है, यही है जो मेरे साधन का उपाय कर सकते है।
नारद जी बोले – महात्मन ये मेरा सौभाग्य है की आपका यहाँ आगमन हुआ है। आप विद्वानों के विद्वान है, कृपया मेरे साधन का उपाय बताये।
सनकादि ऋषि द्वारा ज्ञान और वैराग्य के लिए उपाय –
सनकादि ऋषि बोले – देवर्षि नारद! आप चिंता न करे। आप मन में प्रसन्न हो, क्युकी ज्ञान और वैराग्य के उद्धार का एक सरल उपाय है।
नारद जी! द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ और ज्ञानयज्ञ ये चारो ही मुक्ति का मार्ग है। जो स्वर्गादि कराने वाले है।
लेकिन पंडितो ने ज्ञानयज्ञ को ही सत्कर्म का सूचक माना है। और उस ज्ञानयज्ञ का साधन यह श्रीमद भागवत ही है। जिसका गान शुकादि महानुभावो ने किया है। इसके द्वारा ही ज्ञान और वैराग्य को बल मिलेगा। सिंह की गर्जना सुनकर जैसे भेड़िये भाग जाते है वैसे ही श्रीमद भागवत की धवनि से कलियुग के सारे दोष नष्ट हो जाते है। तब प्रेमरस प्रवाहित करने वाली भक्ति अपने ज्ञान और वैराग्य पुत्रो के साथ प्रत्येक घर और व्यक्ति के ह्रदय में क्रीड़ा करेगी। यह भागवत पुराण वेदो के समान है। श्री व्यासदेव ने इसे भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की स्थापना के लिए प्रकाशित किया है।
नारद जी ने कहा – हे महानुभावो! में समझ गया। आप निरन्तर ही शेष जी के सहस्त्र मुख्य से गाये हुए श्री भगवदकथा का ही पान करते रहते है। में ज्ञान और वैराग्य के लिए वैसा ही करुगा।