नारदजी ने महादेव से पूछा – महेश्वर ! पृथ्वी पर चातुर्मास्य व्रत के जो प्रसिद्ध नियम हैं, उन्हें मैं सुनना चाहता हूँ; आप उनका वर्णन कीजिये।

महादेवजी बोले – देवर्षि ! सुनो, मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देता हूँ। आषाढ़ के शुक्लपक्ष में एकादशी को उपवास करके भक्तिपूर्वक चातुर्मास्य व्रत के नियम ग्रहण करे। श्रीहरि के योगनिद्रा में प्रवृत्त हो जाने पर मनुष्य चार मास अर्थात्‌ कार्तिक की पूर्णिमा तक भूमि पर शयन करे ।

इस बीच में न तो घर या मन्दिर आदि की प्रतिष्ठा होती है और न यज्ञादि कार्य ही सम्पन्न होते हैं, विवाह, यज्ञोपवीत, अन्यान्य मांगलिक कर्म, राजाओं की यात्रा तथा नाना प्रकार की दूसरी-दूसरी क्रियाएँ भी नहीं होतीं।

मनुष्य एक हजार अश्वमेध यज्ञ करने से जिस फल कों पाता है, वही चातुर्मास्य व्रत के अनुष्ठान से प्राप्त कर लेता है। जब सूर्य मिथुन राशि पर हों, तब भगवान्‌ मधुसूदन को शयन कराये और तुला राशि के सूर्य होने पर पुनः श्रीहरि को शयन से उठाये। यदि मलमास आ जाय तो निम्नलिखित विधि का अनुष्ठान करे। भगवान्‌ विष्णु की प्रतिमा स्थापित करे, जो शंख, चक्र और गदा धारण करने वाली हो, जिसे पीताम्बर पहनाया गया हो तथा जो सौम्य आकार वाली हो।

नारद ! उसे शुद्ध एवं सुन्दर पलंग पर, जिसके ऊपर सफेद चादर बिछी हो और तकिया रखी हो, स्थापित करे | फिर दही, दूध, मधु, लावा और घीसे नहलाकर उत्तम चन्दन का लेप करे। तत्पश्चात्‌ धूप दिखाकर मनोहर पुष्पों से श्रृंगार करें। इस प्रकार उसकी पूजा करके निम्नाकिंत मन्त्र से प्रार्थना करे–

सुप्ते त्ववि जगन्नाथ जगत्सुप्त भवेदिदम्‌ |
बिबुद्धे त्ववि बुध्येत जगत्सर्व चराचरम॥

अर्थ – जगन्नाथ ! आपके सो जाने पर यह सारा जगत्‌ सो जाता है तथा आपके जाग्रत होने पर सम्पूर्ण चराचर जगत्‌ जाग उठता है।

नारद ! इस प्रकार भगवान्‌ विष्णु की प्रतिमा को स्थापित करके उसी के आगे स्वय॑ वाणी से कहकर चातुर्मास्य ब्रत के नियम ग्रहण करे । स्त्री हो या पुरुष, जो भगवान का भक्त हो, उसे हरिबोधिनी एकादशी तक चार महीनों के लिये नियम अवश्य ग्रहण करने चाहिये।

जितात्मा पुरुष निर्मल प्रभात काल में दंतधावन पूर्वक उपवास करके नित्यकर्म का अनुष्ठान करने के पश्चात्‌ भगवान्‌ विष्णु के समक्ष जिन नियमों को ग्रहण करता है, उनका तथा उनके पालन करने वालों का फल पृथक्‌-पृथक्‌ बतलाता हूँ।

चातुर्मास में प्रिय वस्तुओं के त्याग का फल –

  • विद्वन्‌ ! चातुर्मास्य में गुड़ का त्याग करने से मनुष्य को मधुरता की प्राप्ति होती है।
  • इसी प्रकार तेल को त्याग देने से दीर्घायु संतान और सुगन्धित तेल के त्याग से अनुपम सौभाग्य की प्राप्ति होती है। योगाभ्यासी मनुष्य ब्रह्मपद को प्राप्त होता है।
  • ताम्बूल का त्याग करने से मनुष्य भोग-सामग्री से सम्पन्न होता और उसका कण्ठ सुरीला होता है।
  • घी के त्याग से लावण्य की प्राप्ति होती और शरीर चिकना होता है।
  • विप्रवर ! फल का त्याग करने वाले को बहुत-से पुत्रों की प्राप्ति होती है।
  • जो चौमासे भर पलाश के पत्ते में भोजन करता है, वह रूपवान्‌ और भोगसामग्री से सम्पन्न होता है।
  • दही-दूध छोड़ने वाले मनुष्य को गोलोक मिलता है।
  • जो मौनब्रत धारण करता है, उसकी आज्ञा भंग नहीं होती।
  • जो स्थालीपाक (बटलोई में भोजन बनाकर खाने) का त्याग करता है, वह इंद्र का सिंहासन प्राप्त करता है।

नारद ! इस प्रकार के त्याग से धर्म की सिद्दी होती है।

चातुर्मास नियम – क्या करे?

इसके साथ “नमो नारायण ” का जप करने से सौगुने फल की प्राप्ति होती है।

चौमासे का व्रत करने वाला पुरुष पोखरे में स्नान करने मात्र से गंगा स्नान का फल पाता है।

जो सदा पृथ्वी पर भोजन करता है, वह पृथ्वी का स्वामी होता है।

श्रीविष्णु की चरण-वन्दना करने से गोदान का फल मिलता है। उनके चरण-कमलों का स्पर्श करने से मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है।

प्रतिदिन एक समय भोजन करने वाला पुरुष अग्निष्टोम यज्ञ का फलभागी होता है |

जो श्रीविष्णु की एक सौ आठ बार परिक्रमा करता है, वह दिव्य विमानपर बैठकर यात्रा करता है।

विद्वन ! पञ्चगव्य खाने वाले मनुष्य को चान्द्रायण का फल मिलता है।

जो प्रतिदिन भगवान्‌ विष्णु के आगे शास्त्र विनोद के द्वारा लोगो को ज्ञान देता है, वह व्यासस्वरूप विद्वान्‌ श्रीविष्णुधाम को प्राप्त होता है।

तुलसीदल से भगवान की पूजा करके मानक वैकुण्ठ धाम में जाता है।

गर्म जल का त्याग कर देने से पुष्कर तीर्थ में स्नान करने का फल होता है।

जो पत्तों में भोजन करता है, उसे कुरुक्षेत्र का फल मिलता है। जो प्रतिदिन पत्थरकी शिल्त्रपर भोजन करता है, उसे प्रयाग-तीर्थ का पुण्य प्राप्त होता है।

चौमासे में काँसी के बरतनों का त्याग करके अन्यान्य धातुओं के पात्रों का उपयोग करें।

अन्य किसी प्रकार का पात्र न मिलने पर मिट्टी का ही पात्र उत्तम है।

अथवा स्वयं ही पलाश के पत्ते लाकर उनकी पत्तल बना ले और उनसे भोजन-पात्र का काम ले।

जो पूरे एक वर्ष तक प्रतिदिन अग्निहोत्र करता है और जो वन में रहकर केवल पत्तों में भोजन करता है, उन दोनों को समान फल मिलता है। पलाश के पत्तों में किया हुआ भोजन चान्द्रायण के समान माना गया है। पलाश के पत्तों में एक एक बार का भोजन त्रिरात्र-बत के समान पुण्यदायक और बड़े-बड़े पातकवों का नाश करने वाला वताया गया है।

एकादशी के व्रत का जो पुण्य है, वही पलाश के पत्ते में भोजन करने का भी बताया गया है। उससे मनुष्य सब प्रकार के दानों तथा
समस्त तीर्थो का फल पा लेता है ।

कमल के पत्तों में भोजन करने से कभी नरक नहीं देखना पड़ता। ब्राह्मण उसमें भोजन करने से वैकुंठ में जाता है। ब्रह्माजी का महान्‌ वृक्ष पलाश पापों का नाशक और सम्पूर्ण कामनाओं का दाता है।

चौमासे में भूमि पर शयन करने वाला मनुष्य विमान प्राप्त करता है। दस हजार वर्षों तक उसे रोग नहीं सताते | वह मनुष्य बहुत-से पुत्र और धन से युक्त होता है। उसे कभी कोढ़ की बीमारी नहीं होती । बिना माँगे स्वतः प्राप्त हुए अन्न का भोजन करने से बाबली और कुआँ बनवाने का फल होता है।

जो प्राणियों की हिंसा से मुँह मोड़कर द्रोह का त्याग कर देता है, वह भी पूर्वोक्त पुण्य का भागी होता है।

वेदों में बताया गया है कि “अहिंसा श्रेष्ठ धर्म है।’ दान, दया और दम, ये भी उत्तम धर्म हैं, यह बात मैंने सर्वत्र ही सुनी है; अतः बड़े लोगों को भी चाहिये कि वे पूरा प्रयत्न करके उक्त धर्मों का पालन करें |

यह चातुर्मास्य व्रत मनुष्यों द्वारा सदा पालन करने योग्य है। ब्रह्मन ! और अधिक कहने की क्या आवश्यकता है। इस पृथ्वी पर जो लोग भगवान्‌ विष्णु के भक्त हैं, वे धन्य हैं ! उनका कुल अत्यन्त धन्य है ! तथा उनकी जाति भी परम धन्य मानी गयी है।

जो भगवान्‌ जनार्दन के शयन करने पर मधु भक्षण करता है, उसे महान्‌ पाप लगता है; अब उसके त्यागने का जो पुण्य है, उसका भी श्रवण करो —

चातुर्मास नियम – क्या न करे?

नाना प्रकार के जितने भी यज्ञ हैं, उन सब के अनुष्ठान का फल उसे प्राप्त होता है। –

  • चौमासे में अनार, नीबू और नारियल का भी त्याग करें। ऐसा करने वाला पुरुष बिमान पर विचरने वाला देवता होकर अंत में भगवान्‌ विष्णु के वैकुण्ठधाम को प्राप्त होता है।
  • जो मनुष्य धान, जौ और गेहुँ का त्याग करता है, यह विधिपूर्वक दक्षिणा सहित अश्वमेधादि यज्ञों के अनुष्ठान का फल पाता है। सांथ ही वह धन-धान्य से सम्पन्न और अनेक पुत्रों से युक्त होता है।
  • तुलसीदल, तिल और कुशों से तर्पण करने का फल कोटिगुना बताया गया है। विशेषतः चातुर्मास्य में उसका फल बहुत अधिक होता है।
  • जो भगवान्‌ विष्णु के सामने वेद के एक या आधे पद का अथवा एक या आध ऋचा का भी गान करते हैं, वे निश्चय ही भगवान के भक्त हैं; इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
  • नारद ! जो चौमासे में दही, दूध, पत्र, गुड़ और साग छोड देता है. वह निश्चय ही मोक्ष का भागी होता है।
  • मुने ! जो मनुष्य प्रतिदिन आँवला मिले हुए जल से ही स्रान करते हैं, उन्हें नित्य महान्‌ पुण्य प्राप्त होता है। मनीषी पुरुष आँवले के फल को पापहारी बतलाते हैं। ब्रह्मा जी ने तीनों लोकॉ को तारने के लिये पूर्वकाल में आँवले की सृष्टि कौ थी। जो मनुष्य चौमासे भर अपने हाथ से भोजन बनाकर खाता है, वह दस हजार वर्षो तक इन्द्रलोक में प्रतिष्ठित होता है।
  • जो मौन होकर भोजन करता है, वह कभी दुःख में नहीं पड़ता। मौन होकर भोजन करने वाले राक्षस भी स्वर्गलोक में चले गये हैं।
  • यदि पके हुए अन्न में कीड़े-मकोड़े पड़ जाये तो वह अशुद्ध हो जाता है। यदि मानव उस अपवित्र अन्न को खा ले तो बह दोष का भागी होता है।
  • मौन होकर भोजन करने वाला पुरुष निसंदेह स्वर्गलोक में जाता है। जो बात करते हुए भोजन करता है, उसके वार्तालाप से अन्न अशुद्ध हो जाता है, वह केवल पाप का भोजन करता है; अतः मौन-धारण अवश्य करना चाहिये।
  • नारद ! मौनावलम्बनपूर्वक जो भोजन किया जाता है, उसे उपवास के समान जानना चाहिये। जो नरश्रेष्ठ प्रतिदिन प्राणवायु को पाँच आहुतियाँ देकर मौन भोजन करता है, उसके पाँच पातक निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं।
  • ब्रह्मन्‌ ! पितृकर्म (श्राद्ध) में सिला हुआ वस्त्र नहीं पहनना चाहिये। अपवित्र अंग पर पड़ा हुआ वस्त्र भी अशुद्ध हो जाता है। मल-मूत्र का त्याग अथवा मैथुन करते समय कमर अथवा पीठ पर जो वस्त्र रहता है, उस वस्त्र कों अवश्य ही बदल दे। श्राद्ध में तो ऐसे वस्त्र को त्याग देना ही उचित है।
  • मुने ! विद्वान्‌ पुरुषों कों सदा चक्रधारी भगवान्‌ विष्णु की पूजा करनी चाहिये | विशेषतः पवित्र एवं जितेन्द्रिय पुरुषों का यह आवश्यक कर्तव्य है। भगवान्‌ हृषिकेश के शयन करने पर तृणशाक (पत्तियों का साग), कुसुम्भीका (लौकी) (लौकी) तथा सिले हुए कपड़े यत्रपूर्वक त्याग देने चाहिये।

जो चौमासे (चातुर्मास्य) में भगवान के शयन करने पर इन वस्तुओ को त्याग देता है, वह कल्पपर्यन्त कभी नरक में नहीं पड़ता।

विप्रवर ! जिसने असत्य-भाषण, क्रोध, शहद तथा पर्व के अवसर पर मैथुन का त्याग कर दिया है, वह अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है।

विद्वन! किसी पदार्थ को उपभोग में लाने के पहले उसमें से कुछ ब्राह्मण को दान करना चाहिये; जो ब्राह्मण को दिया जाता है, वह धन अक्षय होता है। बह्मन्‌ ! मनुष्य दान में दिये हुए धन का कोटि-कोटि गुना फल पाता है। जो पुरुष सदा ब्राह्मण की बतायी हुई उत्तम विधि तथा शास्त्रोक्त नियमॉ का पालन करता है, वह परमपद को प्राप्त होता है, अतः पूर्ण प्रयत्न करके यथाशक्ति नियम और दान के द्वारा देवाधिदेव जनार्दन को सतुंष्ट करना चाहिए।

चातुर्मास का महत्व –

नारद जी ने पूछा ! विश्वेशर जिसके आचरण से भगवान्‌ गोविन्द मनुष्यो पर संतृष्ट होते हैं, वह ब्रह्मचर्य कैसा होता है ? प्रभो ! यह बतलाने की कृपा करें।

महादेव् जी ने कहा – विद्नन्‌ ! जो केवल अपनी ही स्त्री से अनुराग रखता है, उसे विद्वानो ने ब्रह्मचारी माना है। केवल ऋतुकाल में स्त्री समागम करने से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है। जो अपने में भक्ति रखने वाली निर्दोष पत्नी का परित्याग करता है, वह पापी मनुष्य लोक में भ्रूणहत्या को प्राप्त होता है।

चौमासे में जो स्त्रान, दान, जप, होम, स्वाध्याय और देवपूजन किया जाता है, वह सब अक्षय होता है। जो एक अथवा दोनों समय पुराण सुनता है, वह सब पापों से मुक्त हो भगवान्‌ विष्णु के धाम को जाता है। जो भगवान के शयन करने पर विशेषतः उनके नाम का कीर्तन और जप करता है, उसे कोटिगुना फल मिलता है। जो ब्राह्मण भगवान्‌ विष्णु का भक्त है और प्रतिदिन उनका पूजन करता है, वही सब में धर्मात्मा तथा वही सबसे
पूज्य है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

मुने ! इस पुण्यमय पवित्र एवं पापनाशक चातुर्मास्य व्रत को सुनने से मनुष्य कों गंगा स्नान का फल मिलता है।

चातुर्मास्य व्रत का उद्यापन –

नारदजी ने कहा – प्रभो! चातुर्मास्य व्रत का उद्यापन वताइये; क्योंकि उद्यापन करने पर निश्चय ही सब कुछ परिपूर्ण होता है।

महादेव जी बोले – महाभाग ! यदि व्रत करने वाला पुरुष व्रत करने के पश्चात्‌ उसका उद्यापन नहीं करता, तो वह कर्मों के यथावत्‌ फल का भागी नहीं होता ।

मुनिश्रेष्ठ ! उस समय विशेषरूप से सुवर्ण के साथ अन्न का दान करना चाहिये; क्योंकि अन्न के दान से यह विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है।

  • जो मनुष्य चौमासे भर पलाश की पत्तल में भोजन करता है, बह उध्यापन के समय घी के साथ भोजन का पदार्थ ब्राह्मण कों दान करें। यदि उसने अग्राचित ब्रत (बिना माँगे स्वतः प्राप्त अन्न का भोजन) किया हो तो सुबर्ण युक्त वृषभ का दान करे।
  • मुनिश्रेष्ठ ! उड़द का त्याग करने वाला पुरुष बछड़े सहित गौ का दान करें।
  • आँवले के फल से स्रान का नियम पालन करने पर मनुष्य एक माशा सुवर्ण दान करे।
  • फलो के त्याग का नियम करने पर फल दान करे धान्य के त्याग का नियम होने पर कोई-सा धान्य (अन्न) अथवा अगहनी के चावल का दान करें।
  • भूमिशयन का नियम पालन करने पर रूई के गद्दे और तकिये सहित शययादान करे।
  • द्विजवर ! जिसने चौमासे में ब्रह्मचर्य का पालन किया है, उसको चाहिये कि भक्तिपूर्वक ब्राह्मण-दम्पति को भोजन दे, साथ हो उपभोग के अन्यान्य सामान, दक्षिणा, साग और नमक दान करे।
  • प्रतिदिन बिना तेल लगाये स्नान का नियम पालन करने वाला मनुष्य घी और सत्तू दान करे।
  • नख और केश रखने का नियम पालन करने पर दर्पण दान करें।
  • यदि जूते छोड़ दिये हों तो चातुर्मास्य उद्यापन के समय जूतों का दान करना चाहिये ।
  • जो प्रतिदिन दीपदान करता रहा हो, यह उस दिन सोने का दीप प्रस्तुत करे और उसमें घी डालकर विष्णुभक्त ब्राह्मण को दे दे। देते समय यही उद्देश्य होना चाहिये कि मेरा व्रत पूर्ण हो जाय ।
  • पान न खाने का नियम -लेने पर सुवर्ण सहित कपूर का दान करे।

द्विजश्रेष्ठ ! इस प्रकार नियम के द्वारा समय-समय पर जो कुछ परित्याग किया हो, वह परलोक में सुख-प्राप्ति की इच्छा से विशेषरूप से दान करे। पहले स्नान आदि करके भगवान्‌ विष्णु के समक्ष उद्यापन कराना चाहिये। शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान्‌ विष्णु आदि-अन्त से रहित हैं, उनके आगे चातुर्मास्य उद्यापन करने से व्रत परिपूर्ण होता हैं।

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