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चतुर्थी-व्रत एवं गणेश जी की कथा तथा सामुद्रिक शास्त्र का संक्षिप्त परिचय
सुमन्तु मुनि ने कहा — राजन् ! तृतीया-कल्प का वर्णन करने के अन्तर अब मैं चतुर्थी-कल्प का वर्णन करता हूँ।
चतुर्थी-तिथि में सदा निराहार रहकर व्रत करना चाहिये। ब्राह्मण को तिलका दान देकर स्वयं भी तिल का भोजन करना चाहिये। इस प्रकार व्रत करते हुए दो वर्ष व्यतीत होने पर भगवान् विनायक प्रसन्न होकर व्रती को अभीष्ट फल प्रदान करते हैं। उसका भाग्योदय हो जाता है और वह अपार धन-सम्पत्ति का स्वामी हो जाता है तथा परलोक में भी अपने पुण्य-फलों का उपभोग करता है। पुण्य समाप्त होने के पश्चात् इस लोक में पुनः आकर वह दीर्घायु, कान्तिमान्, बुद्धिमान, धृतिमान, वक्ता, भाग्यवान अभीष्ट कार्यों तथा असाध्य-कार्यों को भी क्षण-भर में ही सिद्ध कर लेने वाला और हाथी, घोड़े, रथ, पत्नी-पुत्र से युक्त हो सात जन्मों तक राजा होता है।
राजा शातानीक ने पूछा – मुने ! गणेशजी ने किसके लिये विघ्न उत्पन्न किया था, जिसके कारण उन्हें विघ्न विनायक कहा गया। आप विघ्नेश तथा उनके द्वारा विघ्न उत्पन्न करने के कारण को मुझे बताने का कष्ट करें।
सुमन्तु मुनि बोले – राजन् ! एक बार अपने लक्षण शास्त्र के अनुसार स्वामि कार्तिकेय ने पुरुषों और स्त्रियों के श्रेष्ठ लक्षणों की रचना की; उस समय गणेश जी ने विघ्न किया।
इस पर कार्तिकेय क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने गणेश का एक दाँत उखाड़ लिया और उन्हें मारने के लिये उद्यत हो उठे। उस समय भगवान् शंकर ने उनको रोककर पूछा कि तुम्हारे क्रोध का क्या कारण है ?
कार्तिकेय ने कहा – पिताजी ! मैं पुरुषों के लक्षण बनाकर स्त्रियों के लक्षण बना रहा था, उसमें इसने विघ्न किया, जिससे स्त्रियों के लक्षण मैं नहीं बना सका। इस कारण मुझे क्रोध हो आया। यह सुनकर महादेव जी ने कार्तिकेय के क्रोध को शांत किया और हँसते हुए उन्होंने पूछा।
शंकर बोले – पुत्र ! तुम पुरुष के लक्षण जानते हो तो बताओ, मुझ में पुरुष के कौन से लक्षण हैं ?
कार्तिकेय ने कहा – महाराज ! आप में ऐसा लक्षण है कि संसार में आप कपाली के नाम से प्रसिद्ध होंगे।
पुत्र का यह वचन सुनकर महादेवजी को क्रोध हो आया और उन्होंने उनके उस लक्षण ग्रन्थ को उठाकर समुद्र में फेंक दिया और स्वयं अंतर्ध्यान हो गये। बाद में शिवजी ने समुद्र को बुलाकर कहा कि तुम स्त्रियों के आभूषण स्वरूप बिलक्षण लक्षणों की रचना करो और कार्तिकेय ने जो पुरुष लक्षण के विषय में कहा है उसको कहो।
समुद्र ने कहा – जो मेरे द्वारा पुरुष लक्षण का शास्त्र कहा जायगा, वह मेरे ही नाम सामुद्रिक शास्त्र से प्रसिद्ध होगा। स्वामिन! आपने जो आज्ञा मुझे दी है, वह निश्चित ही पूरी होगी।
शंकर जी ने पुनः कहा – कार्तिकेय ! इस समय तुमने जो गणेश का दाँत उखाड़ लिया है उसे दे दो। निश्चय ही जो कुछ यह हुआ है, होना ही था। दैवयोग से यह गणेश के बिना सम्भव नहीं था, इसलिये उनके द्वारा यह विघ्न उपस्थित किया गया। यदि तुम्हें लक्षण की अपेक्षा हो तो समुद्र से ग्रहण कर लो, किंतु स्त्री पुरुषों का यह श्रेष्ठ. लक्षण-शास्त्र, समुद्रशास्त्र इस नाम से ही प्रसिद्ध होगा । गणेश को तुम दाँत युक्त कर दो ।
कार्तिकेय ने भगवान् देवदेवेश्वर से कहा – आपके कहने से मैं दाँत तो विनायक के हाथ में दे देता हूँ, कितु इन्हें इस दाँत को सदेव धारण करना पड़ेगा। यदि इस दाँत को फेंककर ये इधर-उधर घूमेंगे तो यह फेंका गया दाँत इन्हें भस्म कर देगा। ऐसा कहकर कार्तिकेय ने उनके हाथ में दाँत दे दिया।
भगवान् देवदेवेशर ने गणेश को कार्तिकेय की इस बात कों मानने के लिए सहमत कर लिया।
सुमन्तु मुनि ने कहा – राजन्! आज भी भगवान् शंकर के पुत्र विघ्नकर्ता महात्मा विनायक की प्रतिमा हाथ में दाँत लिये देखी जा सकती है। देवताओं की यह रहस्यपूर्ण बात मैंने आप से कही । इसको देवता भी नहीं जान पाये थे। पृथ्वी पर इस रहस्य को जानना तो दुर्लभ ही है। प्रसन्न होकर मैंने इस रहस्य को पसे तो कह दिया है, कितु गणेशको यह
अमृतकथा चतुर्थी तिथि के संयोग पर ही कहनी चाहिये। जो विद्वान् हो, उसे चाहिये कि बह इस कथा को वेद पारंगत श्रेष्ठ द्विजों, अपनी क्षत्रियो-चित्त वृत्ति में लगे हुए क्षत्रियों, वैश्यों और गुणवान् शूद्रों को सुनाये। जो इस चतुर्थी व्रत का पालन करता है, उसके लिए इस लोक तथा परलोक में कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता। उसकी दुर्गति नहीं होती: ओर न कहीं वह पराजित होता है।
भरत श्रेष्ठ ! निर्विघ्र-रूप से वह सभी कार्यों को सम्पन्न कर लेता है, इसमें संदेह नहीं है। उसे ऋद्धि-वृद्धि ऐश्वर्य भी प्राप्त हो जाता है।
(अध्याय २२ समाप्त )
चतुर्थी कल्प वर्णन में गणेश जी का विघ्न अधिकार तथा उनकी पूजन विधि
राजा शतानीक ने सुमन्तु मुनि से पूछा – विप्रवर ! गणेश जी को गणों का राजा किसने बनाया और बड़े भाई कार्तिकेय के रहते हुए ये कैसे विघ्न के अधिकारी हो गये ?
सुमन्तु मुनि ने कहा – राजन् ! आपने बहुत अच्छी बात पूछी है। जिस कारण ये विघ्न कारक हुए हैं और जिन विघ्नो को करने से इस पद पर इनकी नियुक्ति हुई, यह मैं कह रहा हूँ, उसे आप एकामग्रचित होकर सुनें। पहले कृतयुग में प्रजाओ की जब सृष्टि हुई तो बिना विघ्न -बाधा के देखते-ही-देखते सब कार्य सिद्ध हो जाते थे। अतः प्रजा को बहुत अहंकार हो गया।
कलेश रहित एवं अहंकार से परिपूर्ण प्रजा को देखकर ब्रह्मा ने बहुत सोच-विचार करके प्रजा-समृद्धि के लिये विनायक को विनियोजित किया। अतः ब्रह्मा के प्रयास से भगवान् शंकर ने गणेश को उत्पन्न किया और उन्हें गणों का अधिपति बनाया।
राजन्! जो प्राणी गणेश की बिना पूजा किये ही कार्य आरम्भ करता है, उनके लक्षण मुझ से सुनिये –
वह व्यक्ति स्वप्र में अत्यन्त गहरे जल में अपने को डूबते, स्नान करते हुए या केश मुड़ाये देखता है। काषाय वस्त्र से आच्छादित तथा हिंसक व्याघ्रादि पशुओं पर अपने को चढ़ता हुआ देखता है। अन्त्यज, गर्दभ तथा ऊँट आदि पर चढ़कर परिजनों से घिरा वह अपने को जाता हुआ देखता है। जो मानव केकड़े पर बैठकर अपने को जल की तरंगों के बीच गया हुआ देखता है और पैदल चल रहे लोगो से घिरकर यमराज के लोक को जाता हुआ अपने को स्वप्र में देखता है, वह निश्चित ही अत्यन्त दुःखी होता है।
जो राजकुमार स्वप्र में अपने चित्त तथा आकृति को विकृत रूप में अवस्थित, करवीर के फूलों की माला से विभूषित देखता है, वह उन भगवान् विघ्नेश के द्वारा विघ्न उत्पन्न कर देने के कारण पूर्व वंशानुगत प्राप्त राज्य को प्राप्त नहीं कर पाता । कुमारी कन्या अपने अनुरूप पति को नहीं प्राप्त कर पाती | गर्भिणी स्त्री संतान को नहीं प्राप्त कर पाती है। क्षत्रिय ब्राह्मण आचार्यत्व का लाभ नहीं प्राप्त कर पाता और शिष्य अध्ययन नहीं कर पाता।
वैश्य को व्यापार में लाभ नहीं प्राप्त होता है और कृषक को कृषि-कार्य में पूरे सफलता नहीं मिलती | इसलिये राजन् ! ऐसे अशुभ स्वप्नों को देखने पर भगवान् गणपति की प्रसन्नता के लिये विनायक शांति करनी चाहिये।
शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन, बृहस्पतिबार और पुण्य नक्षत्र होने पर गणेश जी कों सर्वौषधि और सुगन्धित द्रव्य-पदार्थों से अभिलषित करे तथा उन भगवान् विघ्नेश के सामने स्वयं भद्रासन पर बैठकर ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराये। तदनत्तर भगवान् शंकर, पार्वती और गणेश की पूजा करके सभी पितरों तथा ग्रहोँं की पूजा करे । चार कलश स्थापित कर उनमें सप्तमृत्ति का, गुगुल और गोरोचन आदि द्रव्य तथा सुगन्धित पदार्थ छोड़े। सिंहासनस्थ गणेशजी को स्नान कराना चाहिये।
स्नान कराते समय इन मंत्रो का उचारण करें–
मन्त्र अर्थात् ‘हे भगवति ! आप मुझे रूप, यश , तेज, पुत्र तथा धन दें, आप मेरी सभी कामनाओं को पूर्ण करें। मुझे अचल बुद्धि प्रदान करें और इस पृथ्वी पर प्रसिद्धि दें।’
प्रार्थना पश्चात् ब्राह्मणों को तथा गुरु को भोजन कराकर उन्हें वस्न-युगल तथा दक्षिणा समर्पित करें। इस प्रकार भगवान् गणेश तथा ग्रहो की पूजा करने से सभी कर्मों का फल प्राप्त होता है और अत्यत्त श्रेष्ठ लक्ष्मी को प्राप्ति होती है। सूर्य, कार्तिकेय और विनायक का पूजन एवं तिलक करने से सभी सिद्धियों की प्राप्ति होती है।
(अध्याय २३ समाप्त )
स्रोत – संक्षिप्त भविष्यपुराण अंक, पेज संख्या 52-53, अध्याय 22
संक्षिप्त भविष्यपुराण अंक, पेज संख्या 54 , अध्याय 23
दंडवत आभार – श्री गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा मुद्रित संक्षिप्त भविष्यपुराण अंक