भगवान् श्री कृष्ण अपने धाम जाने से पहले उद्धव को उपदेश देते है, उसी उपदेश के दौरान इस अवधूतोपाख्यान का भी वर्णन करते है। जो नीचे इस प्रकार है।
श्रीमद भागवत महापुराण (द्वितीय खंड)- अथ सप्तमोSध्याय: – अवधूतोपाख्यान – पृथ्वी से लेकर कबूतर तक आठ गुरुओं की कथा। –
श्री कृष्ण भगवान् उद्धव जी से कहते है कि –
महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते है। वह इतिहास परम तेजस्वी अवधूत दत्तात्रेय और राजा यदु के संवादके रूप में है। एक बार धर्म के मर्मज्ञ राजा यदु ने देखा कि एक त्रिकालदर्शी तरुण अवधूत ब्राह्मण निर्भय विचर रहे हैं। तब उन्होंने उनसे यह प्रश्न किया।
राजा यदु ने पूछा – ब्रह्मन! आप कर्म तो करते नहीं, फिर आपको यह अत्यन्त निपुण बुद्धि कहाँ से प्राप्त हुई? जिसका आश्रय लेकर आप परम विद्वान् होने पर भी बालक के समान संसार में विचरते रहते हैं । ऐसा देखा जाता है कि मनुष्य आयु, यश अथवा सौन्दर्य-सम्पत्ति आदि की अभिलाषा लेकर ही धर्म, अर्थ, काम अथवा तत्त्व-जिज्ञासा में प्रवृत्त होते हैं; अकारण कहीं किसी की प्रवृत्ति नहीं देखी जाती। मैं देख रहा हूँ कि आप कर्म करने में समर्थ, विद्वान् और निपुण हैं। आपका भाग्य और सौन्दर्य भी प्रशंसनीय है। आपकी वाणी से तो मानो अमृत टपक रहा है। फिर भी आप जड, उन्मत्त अथवा पिशाच के समान रहते हैं; न तो कुछ करते हैं और न चाहते ही हैं । संसार के अधिकांश लोग काम और लोभ के दावानल से जल रहे हैं। परन्तु आपको देखकर ऐसा मालूम होता है कि आप मुक्त हैं, आप तक उसकी आँच भी नहीं पहुँच पाती; ठीक वैसे ही जैसे कोई हाथी वन में दावाग्नि लगने पर उससे छूटकर गंगाजल में खड़ा हो। ।ब्रह्मन्! आप पुत्र, स्त्री, धन आदि संसार के स्पर्शसे भी रहित हैं। आप सदा-सर्वदा अपने केवल स्वरूप में ही स्थित रहते हैं। हम आपसे यह पूछना चाहते हैं कि आपको अपने आत्मा में ही ऐसे अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव कैसे होता है?
आप कृपा करके अवश्य बतलाइये।
भगवान् श्री कृष्ण ने कहा – उद्धव ! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुध्द थी और उनके हृदय में ब्राह्मण-भक्ति थी। उन्होंने परम भाग्यवान् दत्तात्रेयजी का अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्रभाव से सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये। अब दत्तात्रेयजी ने कहा।
ब्रह्मवेत्ता दत्तात्रेयजी ने कहा – राजन्! मैंने अपनी बुद्धि से बहुत-से गुरुओं का आश्रय लिया है, उनसे शिक्षा ग्रहण करके मैं इस जगत में मुक्तभाव से स्वच्छन्द विचरता हूँ। तुम उन गुरुओं के नाम और उनसे ग्रहण की हुई शिक्षा सुनो। मेरे गुरुओं के नाम हैं –
- पृथ्वी
- वायु
- आकाश
- जल
- अग्नि
- चन्द्रमा
- सूर्य
- कबूतर
- अजगर
- समुद्र
- पतंग
- भौंरा या मधुमक्खी
- हाथी
- शहद निकालने वाला
- हरिन
- मछली
- पिंगला
- वेश्या
- कुरर पक्षी
- बालक
- कुँआरी कन्या
- बाण बनाने वाला
- सर्प
- मकड़ी और भृंगी कीट
राजन! मैंने इन चौबीस गुरुओं का आश्रय लिया है और इन्हीं के आचरण से इस लोक में अपने लिये शिक्षा ग्रहण की है। वीरवर ययातिनन्दन! मैंने जिससे जिस प्रकार जो कुछ सीखा है, वह सब ज्यों-का-त्यों तुमसे कहता हूँ, सुनो –
अवधूतोपाख्यान – पृथ्वी से लेकर कबूतर तक आठ गुरुओं की कथा। –
Contents -
1. पृथ्वी से शिक्षा –
मैंने पृथ्वी से उसके धैर्य की, क्षमा की शिक्षा ली है। लोग पृथ्वी पर कितना आघात और क्या-क्या उत्पात नहीं करते; परन्तु वह न तो किसी से बदला लेती है और न रोती-चिल्लाती है। संसार के सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्ध के अनुसार चेष्टा कर रहे हैं, वे समय-समय पर भिन्न-भिन्न प्रकार से जान या अनजान में आक्रमण कर बैठते हैं। धीर पुरुष को चाहिये कि उनकी विवशता समझे, न तो अपना धीरज खोवे और न क्रोध करे। अपने मार्ग पर ज्यों-का-त्यों चलता रहे।
पृथ्वी के ही विकार पर्वत और वृक्ष से मैंने यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे उनकी सारी चेष्टाएँ सदा-सर्वदा दूसरों के हित के लिये ही होती हैं, बल्कि यों कहना चाहिये कि उनका जन्म ही एकमात्र दूसरों का हित करने के लिये ही हुआ है, साधु पुरुष को चाहिये कि उनकी शिष्यता स्वीकार करके उनसे परोपकार की शिक्षा ग्रहण करे।
2. वायु से शिक्षा –
मैंने शरीर के भीतर रहने वाले वायु–प्राणवायु से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह आहारमात्र की इच्छा रखता है और उसकी प्राप्तिसे ही सन्तुष्ट हो जाता है, वैसे ही साधक को भी चाहिये कि जितने से जीवन-निर्वाह हो जाय, उतना भोजन कर ले। इन्द्रियों को तृप्त करने के लिये बहुत-से विषय न चाहे। संक्षेप में उतने ही विषयों का उपयोग करना चाहिये, जिनसे बुद्धि विकृत न हो, मन चंचल न हो और वाणी व्यर्थ की बातों में न लग जाय।
शरीर के बाहर रहने वाले वायु से मैंने यह सीखा है कि जैसे वायु को अनेक स्थानों में जाना पड़ता है, परन्तु वह कहीं भी आसक्त नहीं होता, किसी का भी गुण-दोष नहीं अपनाता, वैसे ही साधक पुरुष भी आवश्यकता होने पर विभिन्न प्रकार के धर्म और स्वभाव वाले विषयों में जाय, परन्तु अपने लक्ष्य पर स्थिर रहे। किसी के गुण या दोष की ओर झुक न जाय, किसी से आसक्ति या द्वेष न कर बैठे। गन्ध वायु का गुण नहीं, पृथ्वी का गुण है। परन्तु वायु को गन्ध का वहन करना पड़ता है। ऐसा करने पर भी वायु शुद्ध ही रहता है, गन्ध से उसका सम्पर्क नहीं होता। वैसे ही साधक का जब तक इस पार्थिव शरीर से सम्बन्ध है, तब तक उसे इसकी व्याधि-पीड़ा और भूख-प्यास आदि का भी वहन करना पड़ता है। परन्तु अपने को शरीर नहीं, आत्मा के रूप में देखने वाला साधक शरीर और उसके गुणों का आश्रय होने पर भी उनसे सर्वथा निर्लिप्त रहता है।
3. आकाश से शिक्षा –
राजन! जितने भी घट-मठ आदि पदार्थ हैं, वे चाहे चल हों या अचल, उनके कारण भिन्न-भिन्न प्रतीत होने पर भी वास्तव में आकाश एक और अपरिच्छिन्न (अखण्ड) ही है। वैसे ही चर-अचर जितने भी सूक्ष्म-स्थूल शरीर हैं, उनमें आत्मारूप से सर्वत्र स्थित होनेके कारण ब्रह्म सभी में है। साधक को चाहिये कि सूत के मनियों में व्याप्त सूत के समान आत्मा को अखण्ड और असंगरूप से देखे। वह इतना विस्तृत है कि उसकी तुलना कुछ-कुछ आकाश से ही की जा सकती है। इसलिये साधक को आत्मा की आकाशरूपता की भावना करनी चाहिये। आग लगती है, पानी बरसता है, अन्न आदि पैदा होते और नष्ट होते हैं, वायु की प्रेरणा से बादल आदि आते और चले जाते हैं; यह सब होने पर भी आकाश अछूता रहता है। आकाश की दृष्टि से यह सब कुछ है ही नहीं। इसी प्रकार भूत, वर्तमान और भविष्य के चक्कर में न जाने किन किन नामरूपों की सृष्टि और प्रलय होते हैं; परन्तु आत्मा के साथ उनका कोई संस्पर्श नहीं है।
4. जल से शिक्षा –
जिस प्रकार जल स्वभाव से ही स्वच्छ, चिकना, मधुर और पवित्र करने वाला होता है तथा गंगा आदि तीर्थो के दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारण से भी लोग पवित्र हो जाते हैं, वैसे ही साधक को भी स्वभाव से ही शुद्ध, स्निग्ध, मधुरभाषी और लोकपावन होना चाहिये। जल से शिक्षा ग्रहण करने वाला अपने दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारण से लोगों को पवित्र कर देता।
5. अग्नि से शिक्षा –
राजन! मैंने अग्नि से यह शिक्षा ली है कि जैसे वह तेजस्वी और ज्योतिर्मय होती है, जैसे उसे कोई अपने तेज से दबा नहीं सकता, जैसे उसके पास संग्रह-परिग्रह के लिये कोई पात्र नहीं। सब कुछ अपने पेट में रख लेती है, और जैसे सब कुछ खा-पी लेने पर भी विभिन्न वस्तुओं के दोषों से वह लिप्त नहीं होती वैसे ही साधक भी परम तेजस्वी, तपस्या से देदीप्यमान, इन्द्रियों से अपराभूत, भोजनमात्र का संग्रही और यथायोग्य सभी विषयों का भोग करता हुआ भी अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखे, किसी का दोष अपने में न आने दे।
जैसे अग्नि कहीं (लकड़ी आदि में) अप्रकट रहती है और कहीं प्रकट, वैसे ही साधक भी कहीं गुप्त रहे और कहीं प्रकट हो जाय। वह कहीं-कहीं ऐसे रूप में भी प्रकट हो जाता है, जिससे कल्याणकामी पुरुष उसकी उपासना कर सकें। वह अग्नि के समान ही भिक्षारूप हवन करने वालों के अतीत और भावी अशुभ को भस्म कर देता है तथा सर्वत्र अन्न ग्रहण करता है । साधक पुरुष को इसका विचार करना चाहिये कि जैसे अग्नि लम्बी-चौड़ी, टेढ़ी-सीधी लकड़ियों में रहकर उनके समान ही सीधी-टेढ़ी या लम्बी-चौड़ी दिखायी पड़ती है, वास्तव में वह वैसी है नहीं; वैसे ही सर्वव्यापक आत्मा भी अपनी माया से रचे हुए कार्य-कारण रूप जगत में व्याप्त होने के कारण उन-उन वस्तुओं के नाम-रूप से कोई सम्बन्ध न होने पर भी उनके रूप में प्रतीत होने लगता है।
6. चन्द्रमा से शिक्षा –
मैंने चन्द्रमा से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यद्यपि जिसकी गति नहीं जानी जा सकती, उस कालके प्रभाव से चन्द्रमा की कलाएँ घटती-बढ़ती रहती हैं, तथापि चन्द्रमा तो चन्द्रमा ही है, वह न घटता है और न बढ़ता ही है; वैसे ही जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त जितनी भी अवस्थाएँ हैं, सब शरीर की हैं, आत्मा से उनका कोई भी सम्बन्ध नहीं है । जैसे आग की लपट अथवा दीपक की लौ क्षण-क्षण में उत्पन्न और नष्ट होती रहती है। उनका यह क्रम निरन्तर चलता रहता है, परन्तु दीख नहीं पड़ता। वैसे ही जलप्रवाह के समान वेगवान् काल के द्वाराक्षण-क्षण में प्राणियों के शरीर की उत्पत्ति और विनाश होता रहता है, परन्तु अज्ञानवश वह दिखायी नहीं पड़ता।
7. सूर्य से शिक्षा –
राजन! मैंने सूर्य से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वे अपनी किरणों से पृथ्वी का जल खींचते और समय पर उसे बरसा देते हैं, वैसे ही योगी पुरुष इन्द्रियों के द्वारा समय पर विषयों का ग्रहण करता है और समय आने पर उनका त्याग, उनका दान भी कर देता है। किसी भी समय उसे इन्द्रिय के किसी भी विषय में आसक्ति नहीं होती। स्थूलबुद्धि पुरुषों को जल के विभिन्न पात्रों में प्रतिबिंबित हुआ सूर्य उन्हीं में प्रविष्ट-सा होकर भिन्न-भिन्न दिखायी पड़ता है। परन्तु इससे स्वरूपतः सूर्य अनेक नहीं हो जाता; वैसे ही चल-अचल उपाधियों के भेद से ऐसा जान पड़ता है कि प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा अलग-अलग है। परन्तु जिनको ऐसा मालूम होता है, उनकी बुद्धि मोटी है। असल बात तो यह है कि आत्मा सूर्य के समान एक ही है। स्वरूपतः उसमें कोई भेद नहीं है।
8. कबूतर से शिक्षा –
राजन्! कहीं किसी के साथ अत्यन्त स्नेह अथवा आसक्ति न करनी चाहिये, अन्यथा उसकी बुद्धि अपना स्वातन्त्रय खोकर दीन हो जायगी और उसे कबूतर की तरह अत्यन्त क्लेश उठाना पड़ेगा।
राजन्! किसी जंगलमें एक कबूतर रहता था, उसने एक पेड़ पर अपना घोंसला बना रखा था। अपनी मादा कबूतरी के साथ वह कई वर्षो तक उसी घोंसले में रहा। उस कबूतर के जोड़े के हृदय में निरन्तर एक-दूसरे के प्रति स्नेह की वृद्धि होती जाती थी। वे गृहस्थ धर्म में इतने आसक्त हो गये थे कि उन्होंने एक-दूसरे की दृष्टि-से-दृष्टि, अंग-से-अंग और बुद्धि-से-बुद्धि को बाँध रखा था। उनका एक-दूसरे पर इतना विश्वास हो गया था कि वे निःशंक होकर वहाँ की वृक्षावली में एक साथ सोते, बैठते, घूमते-फिरते, ठहरते, बातचीत करते, खेलते और खाते-पीते थे।
राजन! कबूतरी पर कबूतर का इतना प्रेम था कि वह जो कुछ चाहती, कबूतर बड़े- से-बड़ा कष्ट उठाकर उसकी कामना पूर्ण करता; वह कबूतरी भी अपने कामुक पति की कामनाएँ पूर्ण करती। समय आने पर कबूतरी को पहला गर्भ रहा। उसने अपने पति के पास ही घोंसले में अंडे दिये। भगवान् की अचिन्त्य शक्ति से समय आने पर वे अंडे फूट गये और उनमें से हाथ-पैर वाले बच्चे निकल आये। उनका एक-एक अंग और रोएँ अत्यन्त कोमल थे। अब उन कबूतर-कबूतरी की आँखें अपने बच्चों पर लग गयीं, वे बडे प्रेम और आनंद से अपने बच्चो का लालन-पालन, लाड-प्यार से करते और उनकी मीठी बोली, उनकी गुटर-गुं सुन सुनकर आनंदमग्न हो जाते । बच्चे तो सदा-सर्वदा प्रसन्न रहते ही हैं; वे जब अपने सुकुमार पंखों से माँ-बाप का स्पर्श करते, कूजते, भोली-भाली चेष्टाएँ करते और फुदक-फुदककर अपने माँ-बाप के पास दौड़ आते तब कबूतर-कबूतरी आनन्दमग्न हो जाते।
राजन्! सच पूछो तो वे कबूतर- कबूतरी भगवान की माया से मोहित हो रहे थे। उनका हृदय एक-दूसरे के स्नेहबन्धन से बँध रहा था। वे अपने नन्हें-नन्हें बच्चों के पालन-पोषण में इतने व्यग्र रहते कि उन्हें दीन-दुनिया, लोक-परलोक की याद ही न आती।
एक दिन दोनों नर-मादा अपने बच्चों के लिये चारा लाने जंगल में गये हुए थे। क्योंकि अब उनका कुटुम्ब बहुत बढ़ गया था। वे चारे के लिये चिरकाल तक जंगल में चारों ओर विचरते रहे। इधर एक बहेलिया घूमता-घूमता संयोगवश उनके घोंसले की ओर आ निकला। उसने देखा कि घोंसले के आस-पास कबूतर के बच्चे फुदक रहे हैं; उसने जाल फैलाकर उन्हें पकड़ लिया। कबूतर-कबूतरी बच्चों को खिलाने-पिलाने के लिये हर समय उत्सुक रहा करते थे। अब वे चारा लेकर अपने घोंसले के पास आये। कबूतरी ने देखा कि उसके नन्हें-नन्हें बच्चे, उसके हृदय के टुकड़े जाल में फँसे हुए हैं और दुःखसे चें-चें कर रहे हैं। उन्हें ऐसी स्थिति में देखकर कबूतरी के दुःख की सीमा न रही। वह रोती-चिल्लाती उनके पास दौड़ गयी।
भगवान् की माया से उसका चित्त अत्यन्त दीन-दुःखी हो रहा था। वह उमड़ते हुए स्नेहं की रस्सी से जकड़ी हुई थी; अपने बच्चों को जाल में फँसा देखकर उसे अपने शरीर की भी सुध-बुध न रही। और वह स्वयं ही जाकर जाल में फँस गयी। जब कबूतर ने देखा कि मेरे प्राणों से भी प्यारे बच्चे जाल में फँस गये और मेरी प्राणप्रिया पत्नी भी उसी दशा में पहुँच गयी, तब वह अत्यन्त दु:खित होकर विलाप करने लगा। सचमुच उस समय उसकी दशा अत्यन्त दयनीय थी। “मैं अभागा हूँ, दुर्मति हूँ। हाय, हाय! मेरा तो सत्यानाश हो गया। देखो, देखो, न मुझे अभी तृप्ति हुई और न मेरी आशाएँ ही पूरी हुईं। तब तक मेरा धर्म, अर्थ और काम का मूल यह गृहस्थाश्रम ही नष्ट हो गया। हाय! मेरी प्राणप्यारी मुझे ही अपना इष्टदेव समझती थी; मेरी एक-एक बात मानती थी, मेरे इशारे पर नाचती थी, सब तरह से मेरे योग्य थी। आज वह मुझे सूने घर में छोड़कर हमारे सीधे-सादे निश्छल बच्चों के साथ स्वर्ग सिधार रही है। मेरे बच्चे मर गये। मेरी पत्नी जाती रही। मेरा अब संसार में क्या काम है? मुझ दीन का यह विधुर जीवन–बिना गृहिणी का जीवन जलन का व्यथा का जीवन है। इस सूने घर में किसके लिये जीऊँ?
राजन्! कबूतर के बच्चे जाल में फँसकर तड़फड़ा रहे थे, स्पष्ट दीख रहा था कि वे मौत के पंजे में हैं. पर वह मूर्ख कबूतर यह सब देखते हुए भी इतना दीन हो रहा था कि स्वयं जान-बूझकर कूद पड़ा।
राजन! वह बहेलिया बड़ा क्रूर था। गृहस्थाश्रमी कबूतर-कबूतरी और उनके बच्चों के मिल जाने से उसे बड़ी प्रसन्नता हुई; उसने समझा मेरा काम बन गया और वह उन्हें लेकर चलता बना। जो कुट॒म्बी है, विषयों और लोगों के संग-साथ में ही जिसे सुख मिलता है एवं अपने कुटुम्ब के भरण-पोषण में ही जो सारी सुध-बुध खो बैठा है, उसे कभी शान्ति नहीं मिल सकती। वह उसी कबूतर के समान अपने कुटुंब के साथ कष्ट पाता है। यह मनुष्य शरीर मुक्ति का खुला हुआ द्वार है। इसे पाकर भी जो कबूतर की तरह अपनी घर गृहस्थी में ही फँसा हुआ है, वह बहुत ऊँचे तक चढ़कर गिर रहा है। शास्त्र की भाषा में वह “आरूढ़च्युत’ है।
श्रीमद भागवत महापुराण (द्वितीय खंड) – अथाष्टमोSध्याय: – अवधूतोपाख्यान – अजगर से लेकर पिंगला तक नौ गुरुओं की कथा।
1. अजगर से शिक्षा –
अवधूत दत्तात्रेय जी कहते हैं – राजन्! प्राणियों को जैसे बिना इच्छा के, बिना किसी प्रयत्न के, रोकने की चेष्टा करने पर भी पूर्व कर्मानुसार दुःख प्राप्त होते हैं, वैसे ही स्वर्ग में या नरक में, कहीं भी रहें, उन्हें इन्द्रिय सम्बन्धी सुख भी प्राप्त होते ही हैं। इसलिये सुख और दुःख का रहस्य जानने वाले बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि इनके लिये इच्छा अथवा किसी प्रकार का प्रयत्न न करे। बिना माँगे, बिना इच्छा किये स्वयं ही अनायास जो कुछ मिल जाय, वह चाहे रूखा-सूखा हो, चाहे बहुत मधुर और स्वादिष्ट, अधिक हो या थोड़ा, बुद्धिमान पुरुष अजगर के समान उसे ही खाकर जीवन-निर्वाह कर ले और उदासीन रहे। यदि भोजन न मिले तो उसे भी प्रारब्ध-भोग समझकर किसी प्रकार की चेष्टा न करे, बहुत दिनों तक भूखा ही पड़ा रहे। उसे चाहिये कि अजगर के समान केवल प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त हुए भोजन में ही सन्तुष्ट रहे। उसके शरीर में मनोबल, इन्द्रियवल और देहबल तीनों ही तब भी वह निश्रैष्ट ही रहे। निद्रा-रहित होने पर भी सोया हुआ-सा रहे और कामेन्द्रिय के होने पर भी उनसे कोई चेष्टा न करे। राजन्! मैंने अजगर से यही शिक्षा ग्रहण की ।
2. समुद्र से शिक्षा –
समुद्र से मैंने यह सीखा है कि साधक को सर्वदा प्रसन्न और गम्भीर रहना चाहिये, उसका भाव अथाह, अपार और असीम होना चाहिये तथा किसी भी निमित्त से उसे क्षोभ न होना चाहिये। उसे ठीक वैसे ही रहना चाहिये, जैसे ज्वार-भाटे और तरंगों से रहित शान्त समुद्र। देखो, समुद्र वर्षाऋतु में नदियों की बाढ़ के कारण बढ़ता नहीं और न ग्रीष्म-ऋतु में घटता ही है; वैसे ही भगवत्परायण साधक को भी सांसारिक पदार्थो की प्राप्ति से प्रफुल्लित न होना चाहिये और न उनके घटने से उदास ही होना चाहिये।
3. पतिंगा (भौंरे) से शिक्षा –
राजन! मैंने पतिंगे से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह रूप पर मोहित होकर आग में कूद पड़ता है और जल मरता है, वैसे ही अपनी इन्द्रियों को वश में न रखने वाला पुरुष जब स्त्री को देखता है तो उसके हाव-भाव पर लट्टू हो जाता है और घोर अन्धकार में, नरक में गिरकर अपना सत्यानाश कर लेता है। सचमुच स्त्री देवताओं की वह माया है, जिससे जीव भगवान् या मोक्ष की प्राप्ति से वंचित रह जाता है। जो मूढ़ कामिनी-कंचन, गहने-कपड़े आदि नाशवान् मायिक पदार्थो में फंसा हुआ है और जिसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्ति उनके उपभोग के लिये ही लालायित है, वह अपनी विवेक-बुद्धि खोकर पतिंगे के समान नष्ट हो जाता है।
राजन! सन्यासी को चाहिये कि गृहस्थों को किसी प्रकार का कष्ट न देकर भौंरे की तरह अपना जीवन-निर्वाह करे। वह अपने शरीर के लिये उपयोगी रोटी के कुछ टुकड़े कई घरों से माँग ले। जिस प्रकार भौंरा विभिन्न पुष्पों से, चाहे वे छोटे हों या बड़े, उनका सार संग्रह करता है, वैसे ही बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि छोटे-बड़े सभी शास्त्रों से उनका सार, अर्थात उनका रस निचोड़ ले।
4. मधुमक्खी से शिक्षा –
राजन! मैंने मधुमक्खी से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासी को सायंकाल अथवा दूसरे दिन के लिये भिक्षा का संग्रह न करना चाहिये। उसके पास भिक्षा लेने को कोई पात्र हो तो केवल हाथ और रखने के लिये कोई बर्तन हो तो पेट। वह कहीं संग्रह न कर बैठे, नहीं तो मधुमक्खियों के समान उसका जीवन ही दूभर हो जायगा। यह बात खूब समझ लेनी चाहिये कि संन्यासी सबेरे-शाम के लिये किसी प्रकार का संग्रह न करा यदि संग्रह करेगा तो मधुमक्खियों के समान अपने संग्रह के साथ ही जीवन भी गँवा बैठेगा।
5. हाथी से शिक्षा –
राजन! मैंने हाथी से यह सीखा कि संन्यासी को कभी पैर से भी काठ की बनी हुई स्त्री का भी स्पर्श न करना चाहिये। यदि वह ऐसा करेगा तो जैसे हथिनी के अंग-संग से हाथी बँध जाता है, वैसे ही वह भी बँध जायगा* । विवेकी पुरुष किसी भी स्त्री को कभी भी भोग्यरूप से स्वीकार न करे; क्योंकि यह उसकी मूर्तिमती मृत्यु है। यदि वह स्वीकार करेगा तो हाथियों से हाथी की तरह अधिक बलवान अन्य पुरुषों के द्वारा मारा जायगा।
6. मधु निकालने वाले पुरुष से शिक्षा –
मैंने मधु निकालने वाले पुरुषसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि संसार के लोभी पुरुष बड़ी कठिनाई से धन का संचय तो करते रहते हैं, किन्तु वह संचित धन न किसी को दान करते हैं, और न स्वयं उसका उपभोग ही करते हैं। बस, जैसे मधु निकालने वाला मधुमक्खियों के द्वारा संचित रस को निकाल ले जाता है वैसे ही उनके संचित धन को भी उसकी टोह रखने वाला कोई दूसरा पुरुष ही भोगता है। तुम देखते हो न कि मधुहारी मधुमक्खियों का जोड़ा हुआ मधु उनके खाने से पहले ही साफ कर जाता है; वैसे ही गृहस्थों के बहुत कठिनाई से संचित किये पदार्थों को, जिनसे वे सुखभोग की अभिलाषा रखते हैं, उनसे भी पहले संन्यासी और ब्रह्मचारी भोगते हैं। क्योंकि गृहस्थ तो पहले अतिथि-अभ्यागतों को भोजन कराकर ही स्वयं भोजन करेगा।
7. हिरन से शिक्षा –
मैंने हिरन से यह सीखा है कि वनवासी संन्यासी को कभी विषय-सम्बन्धी गीत नहीं सुनने चाहिये। वह इस बात की शिक्षा उस हिरन से ग्रहण करे जो व्याध के गीत से मोहित होकर बँध जाता है। तुम्हें इस बात का पता है कि हरिनी के गर्भ से पैदा हुए ऋष्यशृंग मुनि स्त्रियों का विषय-सम्बन्धी गाना-बजाना, नाचना आदि देख-सुनकर उनके वश में हो गये थे, और उनके हाथ की कठपुतली बन गये थे।
8. मछली से शिक्षा –
अब मैं तुम्हें मछली की सीख सुनाता हूँ। जैसे मछली कॉटे में लगे हुए मांस के टुकड़े के लोभ से अपने प्राण गँवा देती है, वैसे ही स्वाद का लोभी दुर्बुद्धि मनुष्य भी मन को मथकर व्याकुल कर देने वाली अपनी जिव्हा के वश में हो जाता है और मारा जाता है। विवेकी पुरुष भोजन बंद करके दूसरी इन्द्रियों पर तो बहुत शीघ्र विजय प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु इससे उनकी रसना-इन्द्रिय वश में नहीं होती। वह तो भोजन बंद कर देने से और भी प्रबल हो जाती है। मनुष्य और सब इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेने पर भी तब तक जितेन्द्रिय नहीं हो सकता, जब तक रसनेन्द्रिय को अपने वश में नहीं कर लेता। और यदि रसनेन्द्रिय को वश में कर लिया, तब तो मानो सभी इन्द्रियाँ वशमें हो गयीं।
9. पिंगला वेश्या से शिक्षा –
नृपनन्दन! प्राचीन काल की बात है, विदेह नगरी मिथिला में एक वेश्या रहती थी। उसका नाम था पिंगला। मैंने उससे जो कुछ शिक्षा ग्रहण की, वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ; सावधान होकर सुनो। – वह स्वेच्छाचारिणी तो थी ही, रूपवती भी थी। एक दिन रात्रि के समय किसी पुरुष को अपने रमणस्थान में लाने के लिये खूब बन-ठनकर–उत्तम वस्त्र आभूषणों से सजकर बहुत देर तक अपने घर के बाहरी दरवाजे पर खड़ी रही।
नररत्न! उसे पुरुष की नहीं, धन की कामना थी और उसके मन में यह कामना इतनी दृढ़मूल हो गयी थी कि वह किसी भी पुरुष को उधर से आते-जाते देखकर यही सोचती कि यह कोई धनी है और मुझे धन देकर उपभोग करनेके लिये ही आ रहा है। जब आने-जाने वाले आगे बढ़ जाते, तब फिर वह संकेत जीविनी वेश्या यही सोचती कि अवश्य ही अबकी बार कोई ऐसा धनी मेरे पास आवेगा जो मुझे बहुत सा धन देगा। उसके चित्त की यह दुराशा बढ़ती ही जाती थी। वह दरवाजे पर बहुत टँगी रही। उसकी नींद भी जाती रही। वह कभी बाहर आती तो कभी भीतर जाती। इस प्रकार आधी रात हो गयी। राजन्! सचमुच आशा और वो भी धन की, बहुत बुरी है। धनी की बाट जोहते-जोहते
उसका मुँह सूख गया, चित्त व्याकुल हो गया। अब उसे इस वृत्ति से बड़ा वैराग्य हुआ। उसमें दुःख-बुद्धि हो गयी। इसमें सन्देह नहीं कि इस वैराग्य का कारण चिन्ता ही थी। परन्तु ऐसा वैराग्य भी है, तो सुख का ही हेतु। जब पिंगला के चित्त में इस प्रकार वैराग्य की भावना जाग्रत् हुई, तब उसने एक गीत गाया। वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ।
राजन! मनुष्य आशा की फाँसी पर लटक रहा है। इसको तलवार की तरह काटने वाली यदि कोई वस्तु है तो वह केवल वैराग्य है। प्रिय राजन्! जिसे वैराग्य नहीं हुआ है, जो इन बखेड़ों से ऊबा नहीं है, वह शरीर और इसके बन्धन से उसी प्रकार मुक्त नहीं होना चाहता, जैसे अज्ञानी पुरुष ममता छोड़ने की इच्छा भी नहीं करता। पिंगला ने यह गीत गाया था –
हाय! हाय! मैं इन्द्रियों के अधीन हो गयी। भला! मेरे मोह का विस्तार तो देखो, मैं इन दुष्ट पुरुषों से, जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है, विषय-सुख की लालसा करती हूँ। कितने दुःख की बात है! मैं सचमुच मूर्ख हूँ। देखो तो सही, मेरे निकट-से-निकट हृदय में ही मेरे सच्चे स्वामी भगवान् विराजमान हैं। वे वास्तविक प्रेम, सुख और परमार्थ का सच्चा धन भी देने वाले हैं। जगत् के पुरुष अनित्य हैं और वे नित्य हैं। हाय! हाय! मैंने उनको तो छोड़ दिया और उन तुच्छ मनुष्यों का सेवन किया जो मेरी एक भी कामना पूरी नहीं कर सकते; उलटे दुःख-भय, आधि-व्याधि, शोक और मोह ही देते हैं। यह मेरी मूर्खता की हद है कि मैं उनका सेवन करती हूँ। बड़े खेद की बात है, मैंने अत्यन्त निन्दनीय आजीविका वेश्यावृत्ति का आश्रय लिया और व्यर्थ में अपने शरीर और मन को क्लेश दिया, पीड़ा पहुँचायी। मेरा यह शरीर बिक गया है। लम्पट, लोभी और निन्दनीय मनुष्यों ने इसे खरीद लिया है और मैं इतनी मूर्ख हूँ कि इसी शरीर से धन और रति-सुख चाहती हूँ। मुझे धिक्कार है। यह शरीर एक घर है। इसमें हड्डियों के टेढ़े-तिरछे बाँस और खंभे लगे हुए हैं; चाम, रोएँ और नाखूनों से यह छाया गया है। इसमें नौ दरवाजे हैं, जिनसे मल निकलते ही रहते हैं। इसमें संचित सम्पत्ति के नाम पर केवल मल और मूत्र हैं। मेरे अतिरिक्त ऐसी कौन स्त्री है जो इस स्थूल शरीर को अपना प्रिय समझकर सेवन करेगी। यों तो यह विदेहों की, जीवन्मुक्तों की नगरी है, परन्तु इसमें मैं ही सबसे मूर्ख और दुष्ट हूँ; क्योंकि अकेली मैं ही तो आत्मदानी, अविनाशी एवं परमप्रियतम परमात्मा को छोड़कर दूसरे पुरुष की अभिलाषा करती हूँ। मेरे हृदय में विराजमान प्रभु, समस्त प्राणियों के हितैषी, सुहृद, प्रियतम, स्वामी और आत्मा हैं। अब मैं अपने-आपको देकर इन्हें खरीद लूँगी और इनके साथ वैसे ही विहार करूँगी, जैसे लक्ष्मीजी करती हैं। मेरे मूर्ख चित्त! तू बतला तो सही, जगत् के विषयभोगों ने और उनको देने वाले पुरुषों ने तुझे कितना सुख दिया है। अरे! वे तो स्वयं ही पैदा होते और मरते रहते हैं। मैं केवल अपनी ही बात नहीं कहती, केवल मनुष्यों की भी नहीं; क्या देवताओं ने भी भोगों के द्वारा अपनी पत्नियों को सन्तुष्ट किया है? वे बेचारे तो स्वयं काल के गाल में पड़े-पड़े कराह रहे हैं। अवश्य ही मेरे किसी शुभकर्म से विष्णु भगवान् मुझ पर प्रसन्न हैं, तभी तो दुराशा से मुझे इस प्रकार वैराग्य हुआ है। अवश्य ही मेरा यह वैराग्य सुख देने वाला होगा। यदि मैं मन्दभागिनी होती तो मुझे ऐसे दुःख ही न उठाने पडते, जिनसे वैराग्य होता है। मनुष्य वैराग्य के द्वारा ही घर आदि के सब बन्धनों को काटकर शान्ति-लाभ करता है। अब मैं भगवान् का यह उपकार आदरपूर्वक सिर झुकाकर स्वीकार करती हूँ और विषयभोगों की दुराशा छोड़कर उन्हीं जगदीश्वर की शरण ग्रहण करती हूँ। अब मुझे प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जायगा उसी से निर्वाह कर लूँगी और बड़े संतोष तथा श्रद्धा के साथ रहूँगी। मैं अब किसी दूसरे पुरुष की ओर न ताककर अपने ह्रदयेश्वर, आत्मस्वरूप प्रभु के साथ ही विहार करूँगी। यह जीव संसार के कूएँ में गिरा हुआ है। विषयों ने इसे अंधा बना दिया है, कालरूपी अजगर ने इसे अपने मुँह में दबा रखा है। अब भगवान् को छोड़कर इसकी रक्षा करने में दूसरा कौन समर्थ है। जिस समय जीव समस्त विषयों से विरक्त हो जाता है, उस समय वह स्वयं ही अपनी रक्षा कर लेता है। इसलिये न सावधानी के साथ यह देखते रहना चाहिये कि सारा जगत् कालरूपी अजगर से ग्रस्त है।
अवधूत दत्तात्रेय जी कहते हैं – राजन्! पिंगला वेश्या ने ऐसा निश्चय करके अपने प्रिय धनियों की दुराशा, उनसे मिलने की लालसा का परित्याग कर दिया और शान्त भाव से जाकर वह अपनी सेज पर सो रही। सचमुच आशा ही सबसे बड़ा दुःख है और निराशा ही बड़ा सुख है; क्योंकि पिंगला वेश्या ने जब पुरुष की आशा त्याग दी, तभी वह सुख से सो सकी।
श्रीमद भागवत महापुराण (द्वितीय खंड) – अथ नवमोऽध्याय: – अवधूतोपख्यान —कुरर से लेकर भृंगी तक सात गुरुओ की कथा
1. कुरर पक्षी से शिक्षा –
अवधूत दत्तात्रेय जी ने कहा–राजन्! मनुष्यों को जो वस्तुएँ अत्यन्त प्रिय लगती हैं, उन्हें इकट्ठा करना ही उनके दुःख का कारण है। जो बुद्धिमान् पुरुष यह बात समझकर अकिंचनभाव से रहता है। शरीर की तो बात ही अलग, मन से भी किसी वस्तु का संग्रह नहीं करता। उसे अनन्त सुखस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति होती है। एक कुरर पक्षी अपनी चोंच में मांस का टुकड़ा लिये हुए था। उस समय दूसरे बलवान पक्षी, जिनके पास मांस नहीं था, उससे छीनने के लिये उसे घेरकर चोंचें मारने लगे। जब कुरर पक्षी ने अपनी चोंच से मांस का टुकड़ा फेंक दिया, तभी उसे सुख मिला।
2. बालक से शिक्षा –
मुझे मान या अपमान का कोई ध्यान नहीं है, और घर एवं परिवार वालों को जो चिन्ता होती है, वह मुझे नहीं है। मैं अपने आत्मा में ही रमता हूँ, और अपने साथ ही क्रीडा करता हूँ। यह शिक्षा मैंने बालक से ली है। अतः उसी के समान मैं भी मौज से रहता हूँ। इस जगत् में दो ही प्रकार के व्यक्ति निश्चिन्त और परमानन्द में मग्न रहते हैं, एक तो भोलाभाला निश्रेष्ट नन्हा सा बालक और दूसरा वह पुरुष जो गुणातीत हो गया हो।
3. कुमारी कन्या से शिक्षा –
एक बार किसी कुमारी कन्या के घर उसे वरण करने के लिये कई लोग आये हुए थे। उस दिन उसके घर के लोग कहीं बाहर गये हुए थे। इसलिये उसने स्वयं ही उनका आतिथ्य सत्कार किया। राजन्! उनको भोजन कराने के लिये वह घर के भीतर एकान्त में धान कूटने लगी। उस समय उसकी कलाई में पड़ी शंख की चूड़ियाँ जोर-जोर से बज रही थीं। इस शब्द को निन्दित समझकर कुमारी को बड़ी लज्जा मालूम हुई और उसने एक-एक करके सब चूड़ियाँ तोड़ डाली और दोनों हाथों में केवल दो-दो चूड़ियाँ रहने दीं। अब वह फिर धान कूटने लगी। परन्तु वे दो-दो चूड़ियाँ भी बजने लगीं, तब उसने एक-एक चूड़ी और तोड़ दी। जब दोनों कलाइयों में केवल एक-एक चूड़ी रह गयी तब किसी प्रकार की आवाज नहीं हुई।
रिपुदमन! उस समय लोगों का आचार-विचार निरखने-परखने के लिये इधर-उधर घूमता-घामता मैं भी वहाँ पहुँच गया था। मैंने उससे यह शिक्षा ग्रहण की कि जब बहुत लोग एक साथ रहते हैं तब कलह होता है और दो आदमी साथ रहते हैं तब भी बातचीत तो होती ही है; इसलिये कुमारी कन्या की चूड़ी के समान अकेले ही विचरना चाहिये।
4. बाण बनाने वाले से शिक्षा –
राजन! मैंने बाण बनाने वाले से यह सीखा है कि आसन और श्वास को जीतकर वैराग्य और अभ्यास के द्वारा अपने मन को वश में कर ले और फिर बड़ी सावधानी के साथ उसे एक लक्ष्य में लगा दे। जब परमानन्दस्वरूप परमात्मा में मन स्थिर हो जाता है तब वह धीरे-धीरे कर्मवासनाओं की धूल को धो बहाता है। सत्त्वगुण की वृद्धि से रजोगुणी और तमोगुणी वृत्तियों का त्याग करके मन वैसे ही शान्त हो जाता है, जैसे ईंधन के बिना अग्नि। इस प्रकार जिसका चित्त अपने आत्मा में ही स्थिर, निरुद्ध हो जाता है, उसे बाहर-भीतर कहीं किसी पदार्थ का भान नहीं होता। मैंने देखा था कि एक बाण बनाने वाला कारीगर बाण बनाने में इतना तन्मय हो रहा था कि उसके पाससे ही दलबल के साथ राजा की सवारी निकल गयी और उसे पता तक न चला।
5. सांप से शिक्षा –
राजन! मैंने साँप से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासी को सर्प की भाँति अकेले ही विचरण करना चाहिये, उसे मण्डली नहीं बाँधनी चाहिये, मठ तो बनाना ही नहीं चाहिये। वह एक स्थान में न रहे, प्रमाद न करे, गुहा आदि में पड़ा रहे, बाहरी आचारों से पहचाना न जाय। किसी से सहायता न ले और बहुत कम बोले। इस अनित्य शरीर के लिये घर बनाने के बखेड़े में पड़ना व्यर्थ और दुःख की जड़ है। साँप दूसरों के बनाये घर में घुसकर बड़े आराम से अपना समय काटता है।
6. मकड़ी से शिक्षा –
अब मकड़ी से ली हुई शिक्षा सुनो। सबके प्रकाशक और अन्तर्यामी सर्वशक्तिमान् भगवान ने पूर्वकल्प में बिना किसी अन्य सहायक के अपनी ही माया से रचे हुए जगत् को कल्प के अन्त में (प्रलयकाल उपस्थित होने पर) काल शक्ति के द्वारा नष्ट कर दिया। उसे अपने में लीन कर लिया और सजातीय, विजातीय तथा स्वगत भेद से शून्य अकेले ही शेष रह गये। वे सबके अधिष्ठान हैं, सबके आश्रय हैं; परन्तु स्वयं अपने आश्रय, अपने ही आधार से रहते हैं, उनका कोई दूसरा आधार नहीं है। वे प्रकृति और पुरुष दोनों के नियामक, कार्य और कारणात्मक जगत् के आदिकारण परमात्मा अपनी शक्ति काल के प्रभाव से सत्त्व-रज आदि समस्त शक्तियों को साम्यावस्था में पहुँचा देते हैं और स्वयं कैवल्यरूप से एक और अद्वितीयरूप से विराजमान रहते हैं। वे केवल अनुभव स्वरूप और आनन्दघन मात्र हैं। किसी भी प्रकार की उपाधिका उनसे सम्बन्ध नहीं है। वे ही प्रभु केवल अपनी शक्ति काल के द्वारा अपनी त्रिगुणमयी माया को क्षुब्ध करते हैं और उससे पहले क्रियाशक्ति-प्रधान सूत्र (महत्तत्त्व) की रचना करते हैं। यह सूत्ररूप महत्तत्त्व ही तीनों गुणों की पहली अभिव्यक्ति है, वही सब प्रकार की सृष्टि का मूल कारण है। उसी में यह सारा विश्व, सूत में ताने-बाने की तरह ओतप्रोत है, और इसी के कारण जीव को जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ना पड़ता है। जैसे मकड़ी अपने हृदय से मुँह के द्वारा जाला फैलाती है, उसी में विहार करती है और फिर उसे निगल जाती है, वैसे ही परमेश्वर भी इस जगत् को अपने में से उत्पन्न करते हैं, उसमें जीवरूप से विहार करते हैं और फिर उसे अपने में लीन कर लेते हैं।
7. भृंगी (बिलनी) कीड़े से शिक्षा –
राजन! मैंने भृंगी (बिलनी) कीड़े से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यदि प्राणी स्नेह से, द्वेष से
अथवा भय से भी जान-बूझकर एकाग्ररूप से अपना मन किसी में लगा दे तो उसे उसी वस्तु का स्वरूप प्राप्त हो जाता है। राजन! जैसे भृंगी एक कीड़े को ले जाकर दीवार पर अपने रहने की जगह बंद कर देता है और वह कीड़ा भय से उसी का चिन्तन करते-करते अपने पहले शरीर का त्याग किये बिना ही उसी शरीर से तद्भरूप हो जाता है।
राजन! इस प्रकार मैंने इतने गुरुओं से ये शिक्षाएँ ग्रहण कीं। अब मैंने अपने शरीर से जो कुछ सीखा है, वह तुम्हें बताता हूँ, सावधान होकर सुनो। यह शरीर भी मेरा गुरु ही है; क्योंकि यह मुझे विवेक और वैराग्य की शिक्षा देता है। मरना और जीना तो इसके साथ लगा ही रहता है। इस शरीर को पकड़ रखने का फल यह है कि दुःख-पर-दुःख भोगते जाओ। यद्यपि इस शरीर से तत्त्वविचार करने में सहायता मिलती है, तथापि मैं इसे अपना कभी नहीं समझता; सर्वदा यही निश्चय रखता हूँ कि एक दिन इसे सियार-कुत्ते खा जायँगे। इसीलिये मैं इससे असंग होकर विचरता हूँ। जीव जिस शरीर का प्रिय करने के लिये ही अनेकों प्रकार की कामनाएँ और कर्म करता है तथा स्त्री-पुत्र, धन-दौलत, हाथी-घोड़े, नौकर-चाकर, घर-द्वार और भाई-बन्धुओं का विस्तार करते हुए उनके पालन-पोषण में लगा रहता है। बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ सहकर धनसंचय करता है। आयुष्य पूरी होने पर वही शरीर स्वयं तो नष्ट होता ही है, वृक्षे के समान दूसरे शरीर के लिये बीज बोकर उसके लिये भी दुःख की व्यवस्था कर जाता है। जैसे बहुत-सी सौतें अपने एक पति को अपनी-अपनी ओर खींचती हैं, वैसे ही जीव को जीभ एक ओर–स्वादिष्ट पदार्थो की ओर खींचती है तो प्यास दूसरी ओर, जल की ओर; जननेन्द्रिय एक ओर, स्त्रीसंभोग की ओर ले जाना चाहती है तो त्वचा, पेट और कान दूसरी ओर, कोमल स्पर्श, भोजन और मधुर शब्द की ओर खींचने लगते हैं। नाक कहीं सुन्दर गन्ध सूँघने के लिये ले जाना चाहती है तो चंचल नेत्र कहीं दूसरी ओर सुन्दर रूप देखने के लिये। इस प्रकार कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ दोनों ही इसे सताती रहती हैं। वैसे तो भगवान ने अपनी अचिन्त्य शक्ति माया से वृक्ष, सरीसृप (रेंगनेवाले जन्तु) पशु, पक्षी, डाँस और मछली आदि अनेकों प्रकार की योनियाँ रचीं; परन्तु उनसे उन्हें संतोष न हुआ। तब उन्होंने मनुष्य शरीर की सृष्टि की। यह ऐसी बुद्धि से युक्त है जो ब्रह्म का साक्षात्कार कर सकती है। इसकी रचना करके वे बहुत आनन्दित हुए। यद्यपि यह मनुष्य शरीर है तो अनित्य ही, मृत्यु सदा इसके पीछे लगी रहती है। परन्तु इससे परम पुरुषार्थ की प्राप्ति हो सकती है; इसलिये अनेक जन्मों के बाद यह अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर पाकर बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि शीघ्र-से-शीघ्र, मृत्यु के पहले ही मोक्ष-प्राप्ति का प्रयत्न कर ले। इस जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष ही है। विषय-भोग तो सभी योनियों में प्राप्त हो सकते हैं, इसलिये उनके संग्रह में यह अमूल्य जीवन नहीं खोना चाहिये।
राजन! यही सब सोच-विचार कर मुझे जगत से वैराग्य हो गया। मेरे हृदय में ज्ञान-विज्ञान की ज्योति जगमगाती रहती है। न तो कहीं मेरी आसक्ति है और न कहीं अहंकार ही। अब मैं स्वच्छन्दरूप से इस पृथ्वी में विचरण करता हूँ।
राजन! अकेले गुरु से ही यथेष्ट और सुदृढ़ बोध नहीं होता, उसके लिये अपनी बुद्धि से भी बहुत कुछ सोचने-समझने की आवश्यकता है। देखो! ऋषियों ने एक ही अद्वितीय ब्रह्म का अनेकों प्रकार से गान किया है। आदि तुम स्वयं विचारकर निर्णय न करोगे तो ब्रह्मके वास्तविक स्वरूप को कैसे जान सकोगे?
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – प्यारे उद्धव! गम्भीर बुद्धि अवधूत दत्तात्रेय ने राजा यदु को इस प्रकार उपदेश किया। यदु ने उनकी पूजा और वन्न्दना की, दत्तात्रेय जी उनसे अनुमति लेकर बड़ी प्रसन्नता से इच्छानुसार पधार गये। हमारे पूर्वजों के भी पूर्वज राजा यदु अवधूत दत्तात्रेय की यह बात सुनकर समस्त आसक्तियों से छुटकारा पा गये और समदर्शी हो गये। (इसी प्रकार तुम्हें भी समस्त आसक्तियों का परित्याग करके समदर्शी हो जाना चाहिये)
To be continued …
गुरु दत्तात्रेय का मानव जीवन में महत्त्व –
जिन लोगो के कोई गुरु नहीं है, या जिन्हे कोई गुरु नहीं मिले है। उन्हें श्री दत्तात्रेय भगवान् को गुरु बनाना अनिवार्य होता है। श्री दत्तात्रेय भगवान् गुरुओं के भी गुरु अर्थात आप जिन्हे गुरु बनाते है वे उन गुरु के भी गुरु भगवान् है। बृहस्पतिबार के दिन भगवान् दत्त की पूजा, दत्त माला मन्त्र (कम से कम एक माला, किसी भी पूजा से पहले) या कम से कम एक दीपक रखना, हर सनातनी व्यक्ति के लिए आवश्यक है।
जल्दी ही हम दत्तात्रेय भगवान् के बारे में शास्त्रों से जानकारी को यहाँ अपडेट करेंगे।
गुरु दत्तात्रेय जयंती –
लेकिन 26 दिसंबर को दत्तात्रेय जयंती है उस दिन आप श्री दत्तात्रेय भगवान् को गुरु रूप में अवश्य पूजा करे। कुछ नहीं तो आप उन्हें उनकी जयंती के दिन दीपदान अवश्य करे। बाकी की जानकारी हम अगले कुछ दिनों में शास्त्रानुसार बताने की कोशिश करेंगे।