यहाँ हम शास्त्रों में बताये गए योग, योग के प्रकार और उसके स्वरुप के बारे में जानेगे।
Contents -
योग चूडामणि उपनिषद के अनुसार –
योग के छह अंग होते है?
- आसान
- प्राणायाम
- प्रत्याहार
- धारणा
- ध्यान
- समाधि
(योग चूडामणि उपनिषद, श्लोक संख्या – 2)
आसन दो प्रकार के होते है –
- सिध्दासन
- पद्मासन
(योग चूडामणि उपनिषद, श्लोक संख्या – 5)
श्रीमद नारद पुराण के अनुसार –
अष्टांग योग का ज्ञान आपको विस्तार से श्रीमद नारद पुराण (पूर्वभाग प्रथम पाद में – मोक्ष प्राप्ति का उपाय, भगवान् विष्णु ही मोक्ष दाता है। – इसका प्रतिपादन, योग तथा अंगो का निरूपण), के अंतर्गत मिलता है।
श्री नारद पुराण में श्री सनक जी ने श्री नारद ऋषि को इसके बारे में विस्तार से समझाया है। श्री सनक जी ब्रह्मा जी के चार कुमार सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार में से एक है।
Ashtanga Yoga has a unique encompassing range from the simple practice of life to the highest states of spirituality including meditation and samadhi. Any person who is engaged in the search of his existence and wants to know the ultimate truth of life should follow Ashtanga Yoga. Yama and Niyama are the basic foundation of Ashtanga Yoga. The origin of Ashtanga Yoga is the knowledge of Vedas, Puranas and Rishis in Sanatana Dharma.
अब हम बहिरंग अष्टांग योग और अंतरंग अष्टांग योग को संक्षिप्त में समझते है। अष्टांग योग (eightfold yoga system) के प्रथम पांच अंग –
बहिरंग साधना –
यम –
यम का अर्थ है संयम जो पांच प्रकार (पांच सामाजिक नैतिकता) का माना जाता है :
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरग्रहाः यमा ॥
- (1.1) अहिंसा
- (1.2) सत्य
- (1.3) अस्तेय (चोरी न करना अर्थात् दूसरे के द्रव्य (धन) के लिए स्पृहा न रखना)
- (1.4) ब्रह्मचर्य,
- (1.5) अपरिगृह।
अहिंसा –
अर्थात अहिंसा से प्रतिष्ठित हो जाने पर उस योगी पास वैरभाव छूट जाता है। शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना
सत्य –
अर्थात सत्य से प्रतिष्ठित (वितर्क शून्यता स्थिर) हो जाने पर उस साधक में क्रियाओं और उनके फलों की आश्रयता आ जाती है ।
अर्थात जब साधक सत्य की साधना में प्रतिष्ठित हो जाता है तब उसके किए गए कर्म उत्तम फल देने वाले होते हैं और इस सत्य आचरण का प्रभाव अन्य प्राणियों पर कल्याणकारी होता है ।
विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना
अस्तेय –
अर्थात अस्तेय के प्रतिष्ठित हो जाने पर सभी रत्नों की उपस्थति हो जाती है । अस्तेय अर्थात चोर-प्रवृति का न होना
ब्रह्मचर्य –
अर्थात ब्रह्मचर्य के प्रतिष्ठित हो जाने पर वीर्य (सामर्थ्य) का लाभ होता है ।
ब्रह्मचर्य दो अर्थ हैं-
> चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना
> सभी इन्द्रिय जनित सुखों में संयम बरतना
अपरिग्रह –
अपरिग्रह स्थिर होने पर (बहुत, वर्तमान और भविष्य के ) जन्मों तथा उनके प्रकार का संज्ञान होता है । अपरिग्रह का अर्थ आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना
नियम –
इसी भांति नियम के भी पांच प्रकार होते हैं : शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय (मोक्षशास्त्र का अनुशलीन या प्रणव का जप) तथा ईश्वर प्रणिधान (ईश्वर में भक्तिपूर्वक सब कर्मों का समर्पण करना)
शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान, पाँच व्यक्तिगत नैतिकता नियम कहे जाते हैं ।
- (2.1) शौच – शरीर और मन की शुद्धि
- (2.2) संतोष – संतुष्ट और प्रसन्न रहना
- (2.3) तप – स्वयं से अनुशाषित रहना
- (2.4) स्वाध्याय – आत्मचिंतन करना
- (2.5) ईश्वर-प्रणिधान – ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए
आसन –
आसन से तात्पर्य है स्थिर और सुख देनेवाले बैठने के प्रकार (स्थिर सुखमासनम्) जो देहस्थिरता की साधना है।
पद्मासन, स्वस्तिकासन, पीठासन, सिंहासन, कुक्कुटासन, कुञ्जरासन, कूर्मासन, वज्रासन, वाराहासन, मृगासन, चैलिकासन क्रौञ्चासन, नालिकासन, सर्वतोभद्रासन, वृषभासन, नागासन, मत्स्यासन, व्याघ्रासन, अर्धचन्द्रासन, दण्डवातासन, शैलासन, खड्गासन, मुद्ररासन, मकरासन, त्रिपथासन, काष्ठासन, स्थाणु आसन, वैकर्णिकासन, भौमासन और वीरासन – ये सब योगसाधनके हेतु हैं।
प्राणायाम –
आसन जप होने पर श्वास प्रश्वास की गति के विच्छेद का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का लेना श्वास और भीतरी वायु का बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है। प्राणायाम प्राणस्थैर्य की साधना है। इसके अभ्यास से प्राण में स्थिरता आती है और साधक अपने मन की स्थिरता के लिए अग्रसर होता है। अंतिम तीनों अंग मन:स्थैर्य का साधना है।
तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम: ।। पातंजलयोगदर्शन 2/49 ।।
उस ( आसन) के सिद्ध होने पर श्वास और प्रश्वास की गति को रोकना प्राणायाम है ।
प्रत्याहार –
प्राणस्थैर्य और मन:स्थैर्य की मध्यवर्ती साधना का नाम ‘प्रत्याहार’ है। प्राणायाम द्वारा प्राण के अपेक्षाकृत शांत होने पर मन का बहिर्मुख भाव स्वभावत: कम हो जाता है। फल यह होता है कि इंद्रियाँ अपने बाहरी विषयों से हटकर अंतर्मुखी हो जाती है। इसी का नाम प्रत्याहार है इन्द्रियों का विषयों से हट कर एकाग्र हुए चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना प्रत्याहार है। (प्रति=प्रतिकूल, आहार=वृत्ति)।
शेष तीन अंग –
अतरंग साधना –
- धारणा
- ध्यान
- समाधि
धारणा –
अब मन की बहिर्मुखी गति निरुद्ध हो जाती है और अंतर्मुख होकर स्थिर होने की चेष्टा करता है। इसी चेष्टा की आरंभिक दशा का नाम धारणा है। मन को एकाग्रचित्त करके ध्येय विषय पर लगाना पड़ता है। किसी एक विषय को ध्यान में बनाए रखना।
ध्यान –
ध्यान धारणा के आगे की दशा है। जब उस देश-विशेष में ध्येय वस्तु का ज्ञान एकाकार रूप से प्रवाहित होता है, तब उसे ‘ध्यान’ कहते हैं। धारणा और ध्यान दोनों दशाओं में वृत्तिप्रवाह विद्यमान रहता है, परंतु अंतर यह है कि धारणा में एक वृत्ति से विरुद्ध वृत्ति का भी उदय होता है, परन्तु ध्यान में सदृशवृत्ति का ही प्रवाह रहता है, विसदृश का नहीं।
किसी एक स्थान पर या वस्तु पर निरन्तर मन स्थिर होना ही ध्यान है। जब ध्येय वस्तु का चिन्तन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।
बौद्ध धर्म भी ध्यान के लिए अहम माना जाता है.
समाधि –
ध्यान की परिपक्वावस्था का नाम ही समाधि है। चित्त आलंबन के आकार में प्रतिभासित होता है, अपना स्वरूप शून्यवत् हो जाता है और एकमात्र आलंबन ही प्रकाशित होता है। यही समाधि की दशा कहलाती है। अंतिम तीनों अंगों का सामूहिक नाम ‘संयम’ है जिसके जिसके जीतने का फल है विवेक ख्याति का आलोक या प्रकाश। समाधि के बाद प्रज्ञा का उदय होता है और यही योग का अंतिम लक्ष्य है।
यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। समाधि की भी दो श्रेणियाँ हैं : सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है।
आपको षडङ्ग योग- अर्थात “छः अंगों वाला योग”। इसका वर्णन भी मैत्रायणी उपनिषद् में आता है। ये छः अंग हैं – प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, तर्क और समाधि।
प्राणायामस्तथा ध्यानं प्रत्याहारोsथ धारणा ।
तर्कश्चैत्र समाधिश्च षडङ्गो योग उच्यते ॥
ध्यान दे – दी गयी जानकारी संक्षिप्त नारद पुराण – गीताप्रेस और पब्लिक डोमेन में उपलब्ध जानकारी से ली गयी है। विस्तार से अष्टांग योग का ज्ञान जानने के लिए आपको संक्षिप्त नारद पुराण Book – गीताप्रेस द्वारा अवश्य पढ़ना चाहिए। यहाँ दी गयी जानकारी संकेत मात्र है।
FAQs –
अष्टांग योग के अनुसार कितने आसन होते हैं?
योग को हम अष्टांग योग योग के नाम से जानते हैं। अष्टांग योग अर्थात योग के आठ अंग। यह आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, और समाधि।
अष्टांग योग से क्या लाभ है?
अष्टांग योग से व्यक्ति चरणवद्ध तरीके से अपने लक्ष्य की और अग्रसर रहता है। अंतिम चरण समाधि को संपन्न कर वह परमात्मा के साथ जुड़ जाता है। यही योग है।
योग के आठ चरण कौन से हैं?
यह आठ चरण हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, और समाधि।
योग के 8 अंगों का उद्देश्य क्या है?
परम शक्ति से जुड़ना ही इन योग के 8 अंगों का उद्देश्य है। यहाँ पहुंचकर व्यक्ति परम सुख को प्राप्त करता है।
Who is the father of Yoga?
It is said that Yoga philosophy was invented by Maharishi Patanjali. But even before that it was described in Narada Purana by Shri Hari Vishnu Bhagwan who had told Narada Rishi about Ashtanga Yoga. Lord Shri Krishna, in the form of Shri Hari Vishnu, also explained Ashtanga Yoga and Kriya Yoga to Arjuna through Shrimad Bhagwat Geeta.
Shadanga Yoga – means “six-limbed yoga”. Its description comes in the Maitrayani Upanishad.