श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कन्ध में गजेन्द्र मोक्ष की कथा, (हाथी और मगरमच्छ) गज और ग्राह की कहानी है । द्वितीय अध्याय में ग्राह के साथ गजेन्द्र के युद्ध का वर्णन है, तृतीय अध्याय में गजेन्द्रकृत भगवान के स्तवन और गजेन्द्र मोक्ष का प्रसंग है और चतुर्थ अध्याय में गज ग्राह के पूर्व जन्म का इतिहास है । श्रीमद्भागवत में गजेन्द्र मोक्ष आख्यान के पाठ का माहात्म्य बतलाते हुए इसको स्वर्ग तथा यशदायक, कलियुग के समस्त पापों का नाशक, दुःस्वप्न नाशक और श्रेयसाधक कहा गया है। इसका स्तवन बहुत ही उपादेय है । इसकी भाषा और भाव सिद्धांत के प्रतिपादक और बहुत ही मनोहर हैं । यहाँ गज अर्थात हाथी और ग्राह का अर्थ मगरमच्छ है।
ग्राह के द्वारा गज का पकडे जाना –
क्षीरसागर में त्रिकुटु नामक एक प्रसिद्ध सुन्दर एवं श्रेष्ठ पर्वत था। वह दस हजार योजन ऊँचा था उसकी लंबाई-चौड़ाई भी चारों ओर इतनी ही थी। उसके चाँदी,लोहे और सोने के तीन शिखरों की छटा से समुद्र, दिशाएँ और आकाश जगमगाते रहते थे और भी उसके कितने ही शिखर ऐसे थे,जो रत्नों और धातुओं की रंग-बिरंगी छटा दिखाते हुए सब दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे। उनमें बिविध जाति के वृक्ष, लताएँ और झाड़ियाँ थीं। वह झरनों की झर-झर से गुंजायमान होता रहता था॥
सब ओरसे समुद्रकी लहरें आ-आकर उस पर्वत के निचले भाग से जब टकराती उस समय ऐसा जान पड़ता मानो वे पर्वतराज के पाँव पखार रही हों। उस पर्वत के हरे पन्ने के पत्थरों से बहाँ की भूमि ऐसी साँवली हो गयी थी, जैसे उस पर हरी-भरी दूब लग रही हो॥ उसकी
कन्दराओ में सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, नाग, किन्नर और अप्सराएँ आदि विहार करनेके लिये प्राय: बने ही रहते थे॥ जब उसके संगीत की ध्वनि चट्टानों से टकराकर गुफाओं में प्रतिध्वनित होने लगती थी, तब बड़े-बड़े सिंह उसे दूसरे सिंह की ध्वनि समझकर उसे सह न पाते और अपनी दहाड़ से उस धवनि को दवाने के लिए और जोर दहाड़ने लगते थे ।
उस पर्वत की तलहटी तरह-तरह के जंगली जानवरों के झुंडों से सुशोभित रहती थी। अनेकों प्रकार के वुक्षों से भरे हुए देवताओं के उद्यान में सुन्दर-सुन्दर पक्षी मधुर कण्ठ से चहकते रहते थे, उस पर बहुत-सी नदियाँ और सरोवर भी थे। उनका जल बड़ा निर्मल था। उनके पुलिन पर मणियों की बालू चमकती रहती थी। उनमें देवांगनाएँ स्नान करती थीं, जिससे उनका जल अत्यन्त सुगन्धित हो जाता था। उसकी सुरभि लेकर भीनी-भीनी वायु चलती रहती थी॥
पर्वतराज त्रिकूट की तराई में महात्मा भगवान् वरुण का एक उद्यान था। उसका नाम था ऋतुमान्। उसमें देवांगनाएँ क्रीडा करती रहती थी। उसमें सब ओर ऐसे दिव्य वृक्ष शोभायमान थे, जो फलों और फूलों से सर्वदा लदे ही रहते थे। उस उद्यान में मन्दार, पारिजात, गुलाब, अशोक, चम्पा, तरह-तरह के आम, पयाल, कटहल, आमड़ा, सुपारी, नारियल, खजूर, बिजौरा, महुआ, साखू, ताड़, तमाल, असन, अर्जुन, रीठा, गूलर, पाकर, बरगद, पलास, चन्दन, नीम, कचनार, साल, देवदारु, दाख, ईख, केला, जामुन, बेर, रुद्राक्ष, आँवला, बेल, कैथ, नीबू आदिके वृक्ष लहराते रहते थे। उस उद्यान में एक बड़ा भारी सरोवर था। उसमें सुनहले कमल खिल रहे थे और भी विविध जाति के कुमुद,डत्पल, कह्लार, शतदल आदि कमलों की अनूठी छटा छिटक रही थी। मतवाले भौरे गूँज रहे थे। मनोहर पक्षी कलरब कर रहे थें। हँस, कारण्डब, चक्रवाक और सारस दल-के-दल भरे हुए थे। पनडुब्बी, बतख और पपीहे गूंज रहे थे। मछली और कछुओं के चलने से कमल के फूल हिल जाते थे, जिससे उनका पराग झड़कर जल को सुन्दर और सुगन्धित बना देता था। कदम्ब, बेंत, नरकुल, कदम्बलता, बेन आदि वृक्षों से वह घिरा था॥
कुन्द, कुस्बक (कटसरैया), अशोक, सिरस, अनमल्लिका, लिसौडा, हरसिंगार, सोनजूही, नाग, पुन्नाग, जाती, मल्लिका, शतपत्र, माधवी और मोगरा आदि सुद्दर-सुन्दर पुष्पवृक्ष एवं तट के दूसरे वृक्षो से भी, जों प्रत्येक ऋतु में हरे-भेरे रहते थे, वह सरोवर शोभायमान रहता था॥
उस पर्वत के घोर ज॑गल में बहुत-सी हथिनियो के साथ एक गज़ेद्ध निवास करता था। वह बड़े-बड़े शक्तिशाली हाथियों का सरदार था। एक दिन वह उसी पर्वत पर अपनी हथिनियों के साथ कीचक, बाँस, बेंत, बड़ी-बड़ी झाड़ियों और पेड़ों को रौंदता हुआ घूम रहा था ॥ उसकी गन्ध मात्र से सिंह, हाथी, बाघ, गैंड़े आदि हिंसक जन्तु, नाग आदि डरकर भाग जाया करते थे॥ उसकी कृपा से भेड़िये, सूअर, भैंसे, रोछ, शल्य, लंगूर तथा कुत्ते, बंदर और खरगोश आदि जीव सब निर्भय विचरते रहते थे॥ उसके पीछे-पीछे हाथियों के छोटे-छोटे बच्चे दौड़ रहे थे।
बड़े-बड़े हाथी और हथिनियाँ भी उसे घेरे हुए चल रही थीं। उसकी धमक से पहाड़ एक बार काँप उठता था। उसके गण्डस्थल से टपकते हुए मद का पान करने के लिये साथ-साथ भौरे उड़ते जा रहे थे। मद के कारण उसके नेत्र बिद्वल हो रहे थे। बड़े जोर की धूप थी, इसलिये वह व्याकुल हो गया और उसे तथा उसके साथियों कों प्यास भी सताने लगीं। उस समय दूर से ही कमल के पराग से वायु की गन्ध सुँघकर बह उसी सरोबर की ओर चल पड़ा, जिसकी शीतलता और सुगंध लेकर वायु आ रही थी। थोड़ी ही देर में वेग से चलकर वह सरोवर के तट पर जा पहुँचा, उस सरोवर का जल अत्यन्त निर्मल एवं अमृत के समान मधुर था। सुनहले और अरुण कमलों की केसर से वह महक रहा था। गजेंद्र पहले तो उसमें घुसकर अपनी सूँड़ से उठा-उठा जी भरकर जल पिया, फिर उस जल में स्नान करके अपनी थकान मिटाने लगा। गजेंद्र गृहस्थ पुरुषों की भाँति मोहग्रस्त होकर अपनी सुँड़ से जल की फुहारें छोड़-छोड़कर साथ की हथिनियों और बच्चों कों नहलाने लगा तथा उनके मुँह में सूड़ डालकर जल पिलाने लगा। भगवान् की माया से मोहित हुआ गजेन्द्र उन्मत हो रहा था। उस बेचारे को इस बात का पता ही न था कि मेंरे सिर पर बहुत बड़ी विपत्ति मंडरा रही है॥
शुकदेव जी कहते है – परीक्षित् ! गजेन्द्र जिस समय इतना उन्मत्त हो रहा था, उसी समय प्रारब्ध को प्रेरणा से एक बलवान ग्राह (मगरमच्छ) ने क्रोध में भरकर उसका पैर पकड़ लिया। इस प्रकार अकस्मात् विपत्ति में पड़कर उस बलबान् गजेद्र ने अपनी शक्ति के अनुसार अपने को छुड़ाने की बड़ी चेष्टा की, परन्तु छुड़ा न सका, दूसरे हाथी, हथिनियों और उनके बच्चो ने देखा कि उनके स्वामी कों बलवान ग्राह बड़े वेग से खींच रहा है और वे बहुत घबरा रहे हैं। उन्हें बड़ा दुःख हुआ। वे बड़ी विकलता से चिग्घाड़ने लगे। बहुतों ने उसे सहायता पहुँचाकर जल से बाहर निकाल लेना चाहा, परन्तु इसमें भी वे असमर्थ ही रहे. गजेन्द्र और ग्राह अपनी-अपनी पूरी शक्ति लगाकर भिड़े हुए थे। कभी गजेन्द्र ग्राह कों बाहर खींच लाता, तो कभी ग्राह गजेन्द्र को भीतर खींच ले जाता। इस प्रकार गज और ग्राह लड़े जल भीतर।
शुकदेव जी कहते है – परीक्षित् !इस प्रकार उनको लड़ते-लड़ते हजार वर्ष बीत गये और दोनों ही जीते रहे। यह घटना देखकर देवता भी आश्चर्यचकित हो गये. अन्त में बहुत बार जल में खींचे जाने से गजेद्र का शरीर शिथिल पड़ गया। न तो उसके शरीर में बल रह गया और न मन में उत्साह । शक्ति भी क्षीण हो गयीं। इधर ग्राह तो जलचर ही ठहरा। इसलिये उसकी शक्ति क्षीण होने के स्थान पर बढ़ गयी थी। वह बड़े उत्साह से और भी बल लगाकर गजेन्द्र को खींचने लगा॥ इस प्रकार देहाभिमानी गजेन्द्र अकस्मात् संकट में पड़ गया और अपने को छुड़ाने में सर्वथा असमर्थ हो गया। बहुत देर तक उसने अपने छुटकारे के उपाय पर विचार किया, अंत में वह इस निश्चय पर पहुँचा – यह ग्राह विधाता की फाँसी ही है। इसमें फंसकर मैं आतुर हो रहा हूँ। जब मुझे मेरे बराबर के हाथी भी इस विपत्ति से न बचा सके, तब ये बेचारी हथिनियाँ तो छुड़ा हो कैसे सकती हैं। इसलिये अब मैं सम्पूर्ण बिश्व के एकमात्र आश्रय भगवान की ही शरण लेता हूँ॥ काल बड़ा बलबान है। यह सांप के समान बड़े प्रचण्ड वेग से सबको निगल जाने के लिये दौड़ता ही रहता है। इससे अत्यन्त भयभीत होकर जो कोई भगवान् की शरण में चला जाता है, उसे वे प्रभु अवश्य-अवश्य बचा लेते हैं। यही प्रभु सबके आश्रय हैं। मैं उन्हीं की शरण ग्रहण करता हूँ ॥
गजेंद्र के द्वारा भगवान की स्तुति करना (गजेंद्र मोक्ष स्तोत्रम्) –
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित् ! अपनी बुद्धि से ऐसा निश्चय करके गजेन्द्र ने अपने मन को हृदय में एकाग्र किया और फिर पूर्वजन्म में सीखे हुए श्रेष्ठ स्तोत्र के जप द्वारा भगवान् की स्तुति करने लगा॥
गजेन्द्र ने कहा (गजेंद्र मोक्ष स्तोत्रम्) –
जों जगत् के मूल कारण हैं और सबके हृदय में पुरुष के रूप में विराजमान हैं एवं समस्त जग के एकमात्र स्वामी हैं, जिनके कारण इस संसार में चेतनता का विस्तार होता है, उन भगवान् कों मैं नमस्कार करता हूँ॥
प्रेम से उनका ध्यान करता हूँ, यह संसार उन्हीं में स्थित है, उन्हीं की सत्ता से प्रतीत हो रहा है, वे ही इसमें व्याप्त हो रहे हैं और स्वयं वे ही इसके रूप में प्रकट हो रहे हैं। यह सब होने पर भी वे इस संसार और इसके कारण प्रकृति से सर्वथा परे हैं। उन स्वयं प्रकाश,स्वयंसिद्ध सत्तात्मक भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ॥
यह विश्व उन्हीं की माया से उनमें अध्यस्त है। यह कभी प्रतीत होता है, तो कभी नहीं । परन्तु उनकी दृष्टि ज्यों-की-त्यों-एक-सी रहती है। वे इसके साक्षी हैं और वे सबके मूल हैं और अपने मूल भी वही हैं। कोई दूसरा उनका कारण नहीं है। ये ही समस्त कार्य और कारणों से अतीत प्रभु मेरी रक्षा करें ॥
प्रलय के समय लोक, लोकपाल और इन सबके कारण सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं। उस समय केवल अत्यन्त घना और गहरा अन्धकार रहता है। परन्तु अनन्त परमात्मा उससे सर्वथा परे बिराजमान रहते हैं। वे ही प्रभु मेरी रक्षा करें॥
उनकी लीलाओं का रहस्य जानना बहुत ही कठिन है। ये नट की भाँति अनेकों वेष धारण करते हैं। उनके वास्तविक स्वरूप को न तो देवता जानते हैं और न ऋषि ही; फिर दूसरा ऐसा कौन प्राणी है, जो वहाँ तक जा सके और उसका वर्णन कर सके? वे प्रभु मेरी रक्षा करें॥
जिनके परम स्वरूप का दर्शन करने के लिये महात्मा-गण संसार की समस्त आसक्तियों का परित्याग कर देते हैं और बन में जाकर अखण्ड भाव से ब्रह्मचर्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं तथा अपने आत्मा को सब के हृदय में विराजमान देखकर स्वाभाविक ही सबकी भलाई करते हैं, वे ही मुनियो के सर्वश्व भगवान मेरे सहायक हैं; वे ही मेरी गति हैं॥ न उनके जन्म-कर्म हैं और न नाम-रूप; फिर उनके सम्बन्ध गुण और दोष की तो कल्पना ही कैसे की जा सकती है? फिर भी विश्व की सृष्टि और संहार करने के लिये समय-समय पर वे उन्हें अपनी माया से स्वीकार करते हैं॥ उन्हीं अनन्त शक्तिमान् परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ॥
वे अरूप होने पर भी बहुरूप हैं। उनके कर्म अत्यन्त आश्चर्यमय हैं। मैं उनके चरणों में नमस्कार करता हूँ॥ स्वयं प्रकाश, सबके साक्षी पसमात्माकों मैं नमस्कार करता हूँ।
जो मन, वाणी और चित्त से अत्यन्त दूर हैं, उन परमात्मा कों मैं नमस्कार करता हूँ॥
विवेकी पुरुष कर्म-संन्यास अथवा कर्म-समर्पण के द्वारा अपना अन्तःकरण शुद्ध करके जिन्हें प्राप्त करते है तथा जो स्वयं तो नित्यमुक्त, परमानन्द एवं ज्ञानस्वरूप हैं ही, दूसरों को मुक्ति देने की सामर्थ्य भी केवल उन्हीं में है, उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ॥
जो सत्त्व, रज, तम – इन तीन गुणों का धर्म स्वीकार करके क्रमशः शान्त, घोर और मूढ़ अवस्था भी धारण करते हैं, उन भेदरहित समभाव से स्थित एवं ज्ञानघन प्रभु कों मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ॥
आप सबके स्वामी, समस्त क्षेत्रो के एकमात्र ज्ञाता एवं सर्वसाक्षी हैं, आपको मैं नमस्कार करता हूँ॥
आप स्वयं ही अपने कारण हैं। पुरुष और मूल प्रकृति के रूप में भी आप ही हैं। आप को मेरा बारम्बार नमस्कार॥
आप समस्त इन्द्रियों और उनके विषयो के द्रष्टा हैं, समस्त प्रतीतियों के आधार हैं। छायारूप असत् वस्तुओं के द्वारा आपका ही अस्तित्व प्रकट होता है। समस्त वस्तुओं की सत्ता के रूप में भी केवल आप ही भास रहे हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥
आप सबके मूल कारण हैं, आपका कोई कारण नहीं है । तथा कारण होने पर भी आप में विकार या परिणाम नहीं होता, इसलिये आप अनोखे कारण हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार ॥
जैसे समस्त नदी-झरने आदि का परम आश्रय समुद्र है, वैसे ही आप समस्त बेद और शास्त्रों के परम तात्पर्य हैं। आप मोक्ष स्वरुप हैं और समस्त संत आपकी ही शरण ग्रहण करते हैं; अतः आपको मैं नमस्कार करता हूँ॥
जैसे यज्ञ के काष्ठ अरणि में अग्नि गुप्त रहती है, वैसे ही आपने अपने ज्ञान कों गुणों की माया से ढक रक्खा है। गुणों में क्षोभ होने पर उनके द्वारा विविधप्रकार की सृष्टि रचना का आप संकल्प करते हैं। जो लोग कर्म-संन्यास अथवा कर्म-समर्पण के द्वारा आत्मतत्व की भावना करके वेद-शास्त्रों से ऊपर उठ जाते हैं, उनके आत्मा के रूप में आप स्वयं ही प्रकाशित हो जाते हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥
जैसे कोई दयालु पुरुष फंदे में पड़े हुए पशु का बंधन काट दे, वैसे हो आप मेरे-जैसे शरणागतों की फाँसी काट देते हैं। आप नित्यमुक्त हैं, परम करुणामय हैं और भक्तों का कल्याण करने में आप कभी आलस्य नहीं करते । आपके चरणों में मेरा नमस्कार है॥
समस्त प्राणियों के हृदय में अपने अंश के द्वारा अन्तरात्मा के रूप में आप उपलब्ध होते रहते हैं। आप सर्वैश्चर्यपूर्ण एवं अनन्त हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ॥
जो लोग शरीर,पुत्र, गुरुजन, गृह, सम्पत्ति और स्वजनों में आसक्त है, उन्हें आपकी प्राप्ति अत्यंत कठिन है। क्योंकि आप स्वयं गुणों की आसक्ति से रहित हैं। जीवन्मुक्त पुरुष अपने हृदय में आपका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं। उन सर्वैश्चर्यपूर्ण ज्ञान-स्वरूप भगबान् कों मैं नमस्कार करता हूँ॥
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कामना से मनुष्य उन्हीं का भजन करके अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेते हैं। इतना ही नहीं, वे उनको सभी प्रकार का सुख देते हैं और अपने ही जैसा अबिनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं। वे परम दयालु प्रभु मेरा उद्धार करें ॥
जिनके अनन्य प्रेमी भक्तजन उन्ही की शरण में रहते हुए उनसे किसी भी वस्तु की, यहाँ तक कि मोक्ष की भी अभिलाषा नहीं करते, केवल उनकी परम दिव्य मंगलमयी लीलाओं का गान करते हुए आनन्द के सागर में निमग्न रहते हैं, जो अविनाशी, सर्वशक्तिमान्, अव्यक्त, इन्द्रियातीत और अत्यन्त सृक्ष्म हैं; जो अत्यन्त निकट रहने पर भी बहुत दूर जान पड़ते हैं; जो आध्यात्मिक योग अर्थात् ज्ञानयोग या भक्तियोग के द्वाय प्राप्त होते हैं, उन्हीं आदिपुरुष, अनन्त एवं परिपूर्ण परबह्म परमात्मा की, मैं स्तुति करता हूँ॥
जिनकी अत्यन्त छोटी कला से अनेकों नाम-रूप के भेद-भाव से युक्त ब्रह्मा आदि देवता, वेद और चराचर लोकों की सृष्टि हुई है, जैसे धधकती हुई आग से लपटे और प्रकाशमान सूर्य से उनकी किरणें बार-बार निकलती और लीन होती रहती हैं, वैसे ही जिन स्वयं प्रकाश परमात्मा से बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शरीर, जो गुणों के प्रधाहरूप हैं, बार-बार प्रकट होते तथा लीन हो जाते हैं, वे भगवान् न देवता हैं और न असुर। वे मनुष्य और पशु-पक्षीं भी नहीं हैं। न वे स्त्री हैं, न पुरुष और न नपुंसक | वे कोई साधारण या असाधारण प्राणी भी नहीं हैं। न वे गुण हैं और न कर्म, न कार्य हैं और न तो कारण हो। सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरुप है तथा वे ही सब कुछ हैं। वे ही परमात्मा मेरे उद्धार के लिये प्रकट हों॥
मैं जीना नहीं चाहता। यह हाथो की योनि बाहर और भीतर सब ओर से अज्ञानरूप आवरण के द्वारा ढकी हुई है, इसको रखकर करना ही क्या है? मैं तो आत्मप्रकाश कों ढकने वाले उस अज्ञानरूप आवरण से छूटना चाहता हूँ, जो कालक्रम से अपने-आप नहीं छूट सकता, जो केवल भगवद कृपा और तत्वज्ञान के द्वारा ही नष्ट होता है, इसलिये मैं उन परब्रह्म परमात्मा की शरण में हूँ जो विश्वरहित होने पर भी विश्व के रचयिता और विश्वस्वरूप है, साथ ही जो विश्व को अन्तरत्मा के रूप में विश्वरूप सामग्री से क्रीड़ा भी करते रहते हैं, उन अजन्मा परमपद-स्वरूप ब्रह्म को मैं नमस्कार करता हूँ॥
योगी लोग योग के द्वारा कर्म, कर्म-वासना और कर्मफल को भस्म करके अपने योग शुद्धहृदय में जिन योगेश्वर भगबान का साक्षात्कार करते हैं, उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ॥
प्रभो! आप ही तीन शक्तियों-सत्त्व, रज और तम के रागादि वेग असह्य हैं। समस्त इन्द्रियों और मन के विषयो के रूप में भी आप ही प्रतीत हों रहे हैं। इसलिये जिनकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, वे तो आपको प्राप्ति का मार्ग भी नहीं पा सकते। आपकी शक्ति अनन्त है। आप शरणागत-वत्सल हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥
आपकी माया अहंबुद्धि से आत्मा का स्वरूप ढक गया है, इसी से यह जीव अपने स्वरूप कों नहीं जान पाता । आपकी महिमा अपार हैं। उन सर्वशक्तिमान् भगवान की मैं शरणमें हूँ॥
गज का संकट से मुक्त होना –
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित् ! गजेन्द्र ने बिना किसी भेदभाव के निर्विशेषरूप से भगवानव् की स्तुति की थी, इसलिये भिन्न-भिन्न नाम और रूप कों अपना स्वरूप मानने वाले ब्रह्मा आदि देवता उसकी रक्षा करने के लिये नहीं आये। उस समय सर्वात्मा होने के कारण सर्वदेव स्वरूप स्वयं भगवान् श्रीहरि प्रकट हो गये , विश्व के एकमात्र आधार भगवान ने देखा कि गजेन्द्र अत्यन्त पीड़ित हो रहा है। अतः उसकी स्तुति सुनकर वेदमय गरुड़ पर सवार हो चक्रधारी भगवान् बड़ी शीघ्रता से बहाँ के लिये चल पड़े, जहाँ गजेद्र अत्यंत संकट में पड़ा हुआ था। उनके साथ स्तुति करते हुए देवता भी आये॥ सरोवर के भीतर बलबान् ग्राह ने गजेन्द्र कों पकड़ रक्खा था और वह अत्यन्त व्याकुल हो रहा था।
जब उसने देखा कि आकाश में गरुड़ पर सवार होकर हाथ में चक्र लिये भगवान् श्रीहरि आ रहे हैं, तब अपनी सुँड़ में कमल का एक सुन्दर पुष्प लेकर उसने ऊपर को उठाया और बड़े कष्ट से बोला–“नारायण !जगद्गुरु ! भगवन् ! आपको नमस्कार है॥
जब भगवान् ने देखा कि गजेन्द्र अत्यन्त पीड़ित हो रहा है, तब वे गरुड़ कों छोड़कर कूद पड़े और कृपा करके गजेन्द्र के साथ ही ग्राह कों भी बड़ी शीघ्रता से सरोबर से बाहर निकाल लाये। फिर सब देवताओं के सामने ही भगवान् श्रीहरि ने चक्र से ग्राह का मुँह फाड़ डाला और गज़ेद्र को छुड़ा लिया ॥ गजेन्द्र भी भगवान का स्पर्श प्राप्त होते ही अज्ञान के बन्धनसे मुक्त हो गया। उसे भगवान का ही रूप प्राप्त हों गया। वह पीताम्बरधारी एवं चतुर्भुज बन गया.
गज और ग्राह का पूर्व चरित्र –
गज का पूर्व चरित्र –
गजेन्द्र पूर्व जन्म में द्रविड़ देश का पांड्यवंशी राजा था। उसका नाम था इंद्रधुम्न। वह भगवान् का एक श्रेष्ठ उपासक एवं अत्यत्त यशस्त्री था. एक बार राजा इंद्रधुम्न राजपाट छोड़कर मलय पर्वत पर रहने लगे थे। उन्होंने जटाये बढ़ा लीं, तपस्वी का वेष धारण कर लिया। एक दिन स्नान के बाद पूजा के समय मन को एकाग्र करके एबं मौनब्रती होकर वे सर्वशक्तिमान् भगवान् की आराधना कर रहे थे.
उसी समय दैवयोग से परम यशस्वी अगस्त्य मुनि अपनी शिष्यमण्डली के साथ वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने देखा कि यह प्रजापालन और गृहस्थोचित अतिथि सेवा आदि धर्म का परित्याग करके तपस्वियों की तरह एकान्त में चुपचाप बैठकर उपासना कर रहा है, इसलिये वे राजा इंद्रधुम्न पर क्रुद्ध हो गये.उन्होंने राजा को शाप दिया- इस राजा ने गुरुजनों से शिक्षा नहीं ग्रहण की है, अभिमानवश परोपकार से निवृत्त होकर मनमानी कर रहा है। ब्राह्मणो का अपमान करने वाला यह हाथी के समान जड़बुद्धि है, इसलिये इसे वही घोर अज्ञानमवी हाथी की योनि प्राप्त हो, इस प्रकार शाप देकर अगस्त्य मुनि अपनी शिष्यमण्डली के साथ बहाँ से चले गये।
इंद्रधुम्न ने यह समझकर सन्तोष किया कि यह मेरा प्रारब्ध ही था. इसके बाद आत्मा को विस्मृति कर देने बाली हाथी की योनि उन्हें प्राप्त हुई । परन्तु भगवान की आराधना का ऐसा प्रभाव है कि हाथी होने पर भी उन्हें भगवान की स्मृति हो ही गयी. भगवान् श्रीहरि ने इस प्रकार गजेन्द्र का उद्धार करके उसे अपना पार्षद बना लिया | पार्षदरूप गजेन्द्र कों साथ ले गरुड़ पर सवार होकर श्री हरि भगवान् अपने अलौकिक धाम को चले गये .
ग्राह का पूर्व चरित्र –
ग्राह पूर्व जन्म में हू हू नाम का एक श्रेष्ठ गन्धर्व था। एक बार देवल ऋषि जब पानी में खड़े होकर तपस्या कर रहे थे, गंधर्व को शरारत सूझी। उसने ग्राह रूप धरा और जल में कौतुक करते हुए ऋषि के पैर पकड़ लिए। क्रोधित ऋषि ने उसे शाप दिया कि तुम मगरमच्छ की तरह इस पानी में पड़े रहो। देवल ऋषि के शाप से उसे ग्राह की गति प्राप्त हुई ।
जय श्री हरि ll ॐ परमात्मने नमः ll हे प्रभु मैं तुम्हे न भूलू।
Katha Source – श्रीमद्भागवतमहापुराण (अष्टम स्कंध में दूसरा, तीसरा एवं चौथा अध्याय से )
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