पिछले पेज पर आपने पढ़ा की – आत्मदेव और धुंधली को गोकर्ण और धुंधकारी नाम के दो पुत्र हुए। गोकर्ण सत्कर्म की तरफ और धुंधकारी बुरे कर्मो में सलग्न हुआ। गोकर्ण के पिता का वानप्रस्थ आश्रम को जाना।
श्रीमदभागवत – पाँचवा अध्याय
धुन्धकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार होना।
अब आगे –
गोकर्ण के पिता के वन को चले जाने पर, योगनिष्ठ गोकर्ण भी तीर्थ यात्रा के लिए निकल गए। क्युकी उन्हें परिवार का माया मोह नहीं थी। न उनका कोई शत्रु था और न कोई मित्र।
पिता के वन जाने के बाद घर में केवल मां और धुंधकारी ही बचे थे। एक दिन धुंधकारी ने अपनी मां को बहुत पीटा और कहा – “बता धन कहाँ छुपा कर रखा है?”. जल्दी बता, नहीं तो इस जलती लकड़ी से अंग भंग कर दूंगा। पुत्र के इस प्रकार के रोज़ रोज़ के उपद्रव से तंग आकर मां ने कुएँ में छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली।
माता के स्वर्गवास के बाद, धुंधकारी 5 वेश्याओ के साथ रहने लगा। धीरे धीरे उनके लिए धन, भोग्य सामग्री को एकत्रतित करने को लेकर क्रूर कर्म करने लगा। उनके कहने पर वह चोरी करने लगा, एक दिन वह बहुत से कपडे और आभूषण लेकर लौटा तो उन वेश्याओ ने सोचा ये पता नहीं कहाँ कहाँ से चोरी करके ये धन और आभूषण लाया है, इसे पता नहीं कब राजा पकड़ कर मृत्यु दंड दे दे, क्युकी न हम सभी इसको मारकर इसके धन का बटवारा कर ले। ऐसा सोचकर उन्होंने उसके सो जाने के बाद उसके गले में रस्सी का फंदा कस दिया, लेकिन वो बलशाली था इससे वो सभी वेश्याए डर गयी. उन्होंने तुरंत भट्टी में से कोयले निकालकर उसके मुँह पर डाल दिया जिससे धुंधकारी तड़प तड़प कर मर गया। उन्होंने उसके शरीर को एक गड्डे में डालकर मिटटी डाल दी। फिर वे वेश्याएँ धन आपस में बांट लिए। लोगो के पूछने पर कह देती की वो हमारे लिए धन कमाने गए है शीघ्र ही आ जायेगे।
धुंधकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति –
धुंधकारी अपने कुकर्मो के कारण एक प्रेत बन गया था। वह ववण्डर बनकर एक दिशा से दूसरी दिशा में भटकता रहता। कही पर भी एक पल को नहीं ठहर पता था। बस है-देव है-देव चिल्लाता रहता था। परन्तु उसकी कोई सहायता नहीं करता।
जब गोकर्ण ने अपने भाई धुंधकारी के मृत्यु का समाचार सुना तो उन्होंने तुरंत उसको अनाथ समझकर गोदान और श्राध्द किया। इस प्रकार गोकर्ण घूमते फिरते एक दिन अपने ही नगर में आ पहुंचे तो उन्होंने सोचा क्यों न रात अपने ही घर में वितायी जाए, जब घर है तो। फिर वो अपने घर आकर बीच आँगन में सो जाते है।
लेकिन उसी घर में उसका भाई धुंधकारी भी प्रेत बना छुपा हुआ था। जब उसको पता चला की गोकर्ण ही लेटा है तो वह तरह तरह के रूप दिखाने लगा। कभी अग्नि बनता, कभी हाथी, घोडा और पता नहीं क्या क्या।
गोकर्ण ने सोचा अवश्य ही कोई दुर्गति को प्राप्त ;हुयी आत्मा है। तब उन्होने उससे बड़े धैर्य से पूछा।
गोकर्ण ने कहा – तू कौन है? रात्रि के समय ऐसे भयानक रूप क्यों दिखा रहा है। तेरी ये दशा कैसे हुए, मुझे बताओ तो सही।
गोकर्ण के इस प्रकार पूछने पर प्रेत धुंधकारी जोर जोर से रोने लगा और बोला – “मैं तुम्हारा ही भाई धुंधकारी हु, मेने अपने कुकर्मो से इस दशा को प्राप्त हुआ हु. अब दैववश कर्मफल का उदय होने से केवल बायुभक्षण करके जी रहा हु। भाई तुम तो दया के सागर हो, जैसे पिता का उद्धार किया वैसा ही मेरा मार्गदर्शन करे।
गोकर्ण ने कहा – मेने तुम्हारे लिए विधिपूर्वक पिंडदान किया था। फिर भी तुमको मुक्ति नहीं मिली तो फिर अब कुछ नहीं हो सकता।
अगर तुमको कुछ ज्ञात है तो निश्चिन्त होकर कहो। की अब मुझे क्या करना चाहिए।
प्रेत ने कहा – भाई! मेरी मुक्ति सैकड़ो गया और श्राद्ध करने से भी नहीं हो सकती, इसका उपाय आप ही को खोजना होगा।
प्रेत की बात सुनकर गोकर्ण महाराज को बड़ा आश्चर्य हुआ, उन्होंने धुंधकारी से कहा – तुम निर्भय होकर अपने स्थान पर जाओ, में कुछ न कुछ उपाय खोजता हु। गोकर्ण की आज्ञा से धुंधकारी वहाँ से चला गया और गोकर्ण महाराज लेटे लेटे धुंधकारी की मुक्ति का उपाय सोचने लगे। लेकिन कोई उपाय नहीं सोचा, तो प्रातःकाल होते ही वे विद्वानों और ज्ञानीजनो के पास गए रात की घटना कह सुनाई। सबने अपने अपने ग्रन्थ, उलट पलट कर देखे पर उपाय न सुझा। सबने उनको सूर्य नारायण भगवान् की शरण में जाने को बोला।
गोकर्ण महाराज ने अपने तपोबल से सूर्य नारायण की गति रोककर उनकी स्तुति की, और पूछा – “भगवन आप इस समस्त संसार के साक्षी है। सर्व ज्ञाता है। मै आपको नमस्कार करता हु, भगवन आप कृपा करके धुंधकारी प्रेत की मुक्ति का साधन बताइये।
सूर्य नारायण भगवान बोले – गोकर्ण तुम श्रीमद भागवत महापुराण का आयोजन करो। उससे मुक्ति संभव है। तुम उसका सप्ताह परायण अनुष्ठान करो।
तब सबने बोला बिलकुल यही करो। यह उपाय सरल है। तब गोकर्ण महाराज भी निश्चय करके कथा सुनाने को तैयार हो गए। फिर गोकर्ण महाराज व्यास की गद्दी पर बैठकर कथा कहने लगे, लोगो को पता लगा तो वहाँ भीड़ का ताँता लग गया। सब अनुशासन के साथ बैठ गए। इतने में वह धुंधकारी प्रेत भी आ गया। वह इधर उधर बैठने का स्थान खोजने लगा। फिर उसने वहाँ सीधे रखे हुए सात गांठ के बांस को देखा, वह उसी में प्रवेश करके कथा को सुनने लगा।
गोकर्ण महाराज ने एक वैष्णव ब्राह्मण को श्रीमद भागवत महापुराण कथा का मुख्य श्रोता बनाया। और प्रथम स्कंध से ही कथा सुनानी शुरू की।
शाम को जब कथा समाप्त हुई तो वह एक आश्चर्य जनक घटना हुए। बांस की एक गांठ फट गयी, अब उसमे छः गांठ शेष बची। इसी प्रकार दूसरे दिन दूसरी, तीसरे दिन तीसरी गांठ टूट गयी। इस प्रकार सातों दिन सात गांठ को फोड़कर धुंधकारी श्रीमद भागवत महापुराण के 12 स्कंध को सुनकर पवित्र हो गया, और उसे प्रेत योनि से मुक्ति मिल गयी।
उसने तुरंत अपने भाई को प्रणाम करके बोला। भाई तुमने मुझ पर बड़ी कृपा की, आपने मुझे प्रेत योनि से मुक्त कर दिया। प्रेत योनि से भी मुक्ति दिलाने की शक्ति सिर्फ इस श्रीमदभागवत कथा में है। जिस प्रकार आग गीली और सूखी सभी प्रकार की लकड़ियों को जला डालती है वैसे ही इस कथा के सप्ताह श्रवण से मन वचन कर्म इत्यादि के द्वारा हुए पाप भी जलकर नष्ट हो जाते है।
धुंधकारी को प्रेत योनि से मुक्ति और बैकुंठ धाम की प्राप्ति –
जिस समय धुंधकारी ये सब बाते कर रहा था उसी समय एक तेज़ प्रकाश के साथ आकाश से बिमान उतरा जिसमे बैकुंठ धाम के पार्षद बैठे हुए थे।
चारो तरफ प्रकाश फ़ैल गया। और उसी समय सभी लोगो के सामने धुंधकारी उस विमान में चढ़ गया। तभी उस विमान में आये पार्षदों से गोकर्ण महाराज बोले।
गोकर्ण ने पूछा – भगवान के प्रिय पार्षदों, इस कथा अमृत का पान यहाँ उपस्थिति सभी जन ने लिया है लेकिन विमान सिर्फ धुंधकारी के लिए आया है, बाकि शुद्ध ह्रदय जन इसके अधिकारी क्यों नहीं है? इस प्रकार का भेद क्यों हुआ?
भगवान् के सेवक बोले – हे गोकर्ण महाराज ! यह भेद इनके मनन के भेद के कारण ही है। यह बात आपकी ठीक है की सबने श्रवण समानरूप से किया है। लेकिन मनन नहीं किया है। मनन करने में सभी के भेद है। किसी ने कथा को कुछ समय तक मनन किया किसी ज्यादा समय। लेकिन इसने तो निराहार रहकर बांस के अंदर सिर्फ मनन ही किया है। इसने जो भी सुना उसका लगातार मनन और चिंतन किया है। जो ज्ञान दृढ़ नहीं होता वह व्यर्थ हो जाता है। इसी प्रकार ध्यान न देने से श्रवण का, संदेह से मन्त्र का, और चित्त के इधर उधर भटकने से जप का कोई फल नहीं मिलता है। यदि ये श्रोता फिर से श्रीमदभागवत कथा को सुने और मनन करे तो इनका उद्दार भी संभव है।
इस प्रकार सनकादि ऋषि ने नारद और भक्ति के पुत्रो (ज्ञान और वैराग्य) को आत्मदेव उनके पुत्र गोकर्ण और धुंधकारी की कथा के द्वारा श्रीमद श्रीमद् भागवत कथा की महिमा को सुनाया।
इस वृतांत के बाद श्रीमदभागवत महापुराण के अध्याय – 5 का समापन हो जाता है। कृपया प्रेम से जपते रहे – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय :
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अगले पेज पर – अध्याय छः में आप पढ़ेंगे – श्री सनकादि ऋषियों के द्वारा नारद जी को श्रीमद् भागवत कथा पुराण का माहात्म्य / श्रीमद् भागवत पूजन विधि बताना।