पिछले  तृतीय अध्याय में आपने पढ़ा नारद के द्वारा भक्ति के कष्ट का निवारण का उपाय

श्रीमदभागवत – चौथा अध्याय – गोकर्णोपख्यान प्रारम्भ

सूत जी कहते है – मुनिवर! उस समय अपने भक्तो के चित्त में अलौकिक भक्ति का प्रादुर्भाव देखकर भक्तवत्सल श्री भगवान् अपना धाम छोड़कर वहाँ पधारे।

भक्ति के प्रवाह से हरिद्धार के आनंदघाट पर श्री भगवान् का विराजमान होना –

उनके गले में वनमाला शोभा पा रही थी, उनका श्रीअंग सजल जलधर के समान श्यामवर्ण था, उसपर मनोहर पीताम्बर सुशोभित था, कटी- प्रदेश करधनी लड़ियों से सुसज्जित था,  सिर पर मुकुट की लटक और कानो में कुण्डलों की झलक देखते ही बनती थी।

वे विभंग-ललित भावसे खड़े हुए चित्तको चुराये लेते थे। वक्षःस्थल पर कौस्तुभ-मणि दमक रही थी, सारा श्रीअंग हरिचंदन से चर्चित था। उस रूपकी शोभा क्या कहें, उसने तो मानों करोड़ों कामदेवों की रूप-माधुरी छीन ली थी॥ भगवान के नित्य लोक निवासी लीलापरिकर उद्धवादि वहाँ गुप्तरूपसे उस कथा को सुननेके लिये आये हुए थे, प्रभु के प्रकट होते ही चारों ओर ‘जय हो ! जय हो की  ध्वनि होने लगी। उस समय भक्ति रस का अद्भुत प्रवाह चला, बार-बार अबीर-गुलांल और पृष्पोंक़ी वर्षा तथा शंक-ध्वनि  होने लगी।

उस सभा में जो लोग बैठे हुए थे उन्हें अपने देह, गेह और आत्माकी भी कोई सुधि न रही। उनकी ऐसी तन्मयता देखकर नारद  जी कहने लगे — मुनीश्वरगण ! आज सप्ताह श्रवण की मैंने यह बड़ी ही अलौकिक महिमा देखी। यहाँ तो जो बड़े मूर्ख, दुष्ट और पशु-पक्षी भी हैं, वे सभी अत्यन्त निष्पाप हो गये हैं॥ अतः इसमें संदेह नहीं कि कलिकाल में चित्त की शुद्धिक लिये इस भागवतकथा के समान मृत्यु-लोक  में पाप का नाश करने बाला कोई दूसरा पवित्र साधन नहीं है।

मुनिवर! आप लोग बड़े कृपालु हैं, आपने संसार के कल्याण का विचार करके यह बिलकुल निराला मार्ग निकाला है। आप कृपया यह तो बताइये कि इस कथारूप सप्ताह यज्ञ के द्वारा इस संसार में कौन-कौन लोग पवित्र हो जाते है?

सनकादिक ऋषि ने कहा – जो लोग सदा तरह-तरह के पाप किया करते हैं, निरन्तर दुराचार में ही तत्पर रहते हैं और उलटे मार्गों से चलते हैं तथा जो क्रोधाग्नि जलते रहने वाले, कुटिल और कामपरायण हैं, वे सभी इस कलियुग में इस सप्ताह यज्ञ से पवित्र हो जाते हैं।

जो सबसे च्युत, माता-पिता की निंदा करने वाले, तृष्णा के मारे ब्याकुल, आश्रमयर्मले रहित, दम्भी, दूसरों की उन्नति देखकर कुद़ने वाले और दूसरों को दुःख देनेवाले है, वे भी ‘कलियुग में सप्ताह यज्ञ  से पवित्र हो जाते हैं।  जो मदिरापान, ब्रह्महत्या, सोने की चोरी, गुरु स्त्री गमन और विश्वासघात — ये पाँच महापाप करनेवाले, छल- छदमपरायण, क्रूर, पिशाचों के समान निर्दयी, ब्राहम्णो के धन को खाने वाले और  व्यभचारी  हैं, ये भी इस कलयुग में सप्ताहयज्ञ से पवित्र हो जाते  है, जो दुष्ट आग्रहपूर्वक सर्वदा मन, वाणी या शरीर से पाप करते रहते है, दुसरो के धन से पुष्ट होते है तथा मलिन मन और दुष्ट हदय वाले हैं, वे  भी कलि युग में सप्ताह्यज्ञ से पवित्र हो जाते हैं।

नारद जी! अब हम तुम्हे इस विषय में एक प्राचीन इतिहास सुनते है, इसके सुनने से हो सब पाप नष्ट हो जाते हैं।

आत्मदेव ब्राह्मण और धुंधली ब्राह्मणी की कहानी –

पूर्वकाल में तुंगभद्रा नदी के तट पर  एक अनुपम नगर बसा  हुआ था। वहाँ सभी वर्णो  के लोग अपने-अपने धर्मो का आचरण करते हुए सत्य  और सत्कर्मो में  तत्पर रहते थे॥ उस नगर में  समस्त वेदो का विशेषज्ञ और समस्त कर्मो में निपुण एक आत्मदेव नाम का ब्राह्मण रहता  था, वह साक्षात्‌ दूसरे सूर्य के समान तेजस्वी था॥ वह धनी होने पर भी भिक्षाजीबी था। उसकी प्यारी पत्नी धुंधली कुलीन एवं सुंदरी  होने पर भी सदा अपनी बात पर अड़ जाने वाली थी। उससे लोगों की बात करने में सुख मिलता था। उसका स्वाभाव क्रूर था। बात बात में विवाद करती थी। गृहकार्य में निपुण थी, कृपण थी,  और झगड़ालू भी थी। फिर भी दोनों  ब्राह्मण दम्पति प्रेम से घर में रहते। उनके पास अर्थ और भोग-बिलासकी सामग्री बहुत थी। परन्तु उससे उन्हे सुख नहीं था॥ जब अवस्था बहुत ढल गयी, तब उन्होंते संतान प्राप्ति के लिए तरह तरह के दान पुण्य आदि कार्य किये।  इस प्रकार धर्म कार्य में  उन्होंने अपना आधा धन समाप्त कर दिया, तो भी उन्हें पुत्र या पुत्री किसी का भी मुख देखने को न मिला। इसलिये अब वह ब्राह्मण बहुत ही चिंतातुर रहने लगा॥

एक दिन वह ब्राह्मण देवता बहुत दुखी होकर घरसे निकलकर बनको चल दिया। दोपहर के समय उसे प्यास लगी, इसलिये वह एक तालाब पर आया। सन्तान के अभाव के दुःख ने उसके शरीर कों बहुत सुखा दिया था, इसलिये थक जाने के कारण जल पीकर वह वहीँ बैठ गया। दो घड़ी बीतने पर वहाँ एक संन्यासी महात्मा आये॥ जब ब्राह्मण देवता ने देखा कि वे जल पी चुके हैं, तब वह उनके पास गया और चरणो मेंनमस्कार करने के बाद सामने खड़े होकर लेबो-लंबी साँसें लेने लगा॥

सन्यासी ने पूछा–कहो, ब्राह्मण-देवता ! रोते क्यों हो ? ऐसी तुम्हें क्या भारी चिन्ता है ? तुम जल्दी ही मुझे अपने दुःखका कारण बताओ।

ब्राह्मण ने  कहा–महाराज  ! मैं अपने पूर्वजन्म के पापों से संचित दुःख का क्या वर्णन कहूँ; ? अब मेरे पितर मेरे द्वारा दी हुई जलांजलि के जल को अपनी चिन्ताजनित साँस से कुछ गरम करके पीते हैं॥  देवता और ब्राह्मण मेरा दिया हुआ अन्न प्रसन्न मन से स्वीकार नहीं करते। सन्तानके लिये मैं इतना दुखी हो गया हूँ कि मुझे सब सूना-ही-सूना दिखायी देता है। मैं प्राण त्यागने के लिये यहाँ आया हूँ।  सन्तानहीन जीवन को धिक्कार है,  सन्तानहीन गृह कों धिक्कार है! सन्तानहीन धन कों धिक्कार है। है और सन्तानहीन कुलको धिक्कार है। मैं जिस गाय को पालता हूँ, वह भी सर्वथा वांझ हो जाती है; जो पेड़ लगाता हूँ, उस पर भी फल-फूल नहीं लगते। मेरे घर में जो फल आता है, वह भी बहुत जल्दी सड़ जाता है। जब मैं ऐसा अभागा और पुत्रहीन हूँ, तब फिर इस  जीवन कों ही रखकर मुझे क्या करना है।  यों कहकर वह ब्राह्मण दुःख से व्याकुल हो उन संन्यासी महात्मा के पास फूट-फूटकर रोने लगा।

तब उन मुनिवर के हृदय में बड़ी करुणा उत्पन्न हुई।  वे योगनिष्ठ थे; उन्होंने उसके ललाट की रेखाएँ देखकर सारा बृत्तात्त जान लिया और फिर उसे विस्तारपूर्वक कहने लगे।

संन्यासी ने कहा– ब्राह्मण-देवता ! इस प्रजाप्राप्ति का मोह त्याग दो । कर्म की गति प्रबल है, विवेक का आश्रय लो। मैंने इस समय तुम्हारा प्रारव्ध देखकर निश्चय किया है कि सात जन्म तक तुम्हारे कोई सन्तान किसी प्रकार नहीं  हो सकती।   पूर्वकाल में राजा सगर को उनके पुत्रो के कारण दुःख भोगना पड़ा था। ब्राह्मण ! अब तुम कुटुंब  की आशा छोड़ दो । संन्यास में ही सब प्रकार का सुख है॥

ब्राह्मण ने कहा — महात्मा जी ! विवेक से मेरा क्या होगा। मुझे तो बलपूर्वक पुत्र दीजिये; नहीं तो मैं आपके सामने ही शोकमूर्च्छित होकर अपने प्राण त्यागता हूँ ॥ जिसमें पुत्र-स्त्री आदिका सुख नहीं है, ऐसा संन्यास तो सर्वथा नीरस ही है। लोक में सरस तो पुत्र-पौत्रादि से भरा-पूरा गृहस्थाश्रम ही है।

ब्राह्मण का ऐसा आग्रह देखकर उन तपोधन ने कहा — विधाता के लेख को मिटाने पर राजा चित्रकेतु को बड़ा दुःख उठाना पड़ा था। उस पुरुष के समान तुमको भी पुत्र सुख नहीं मिल सकेगा।  तुमने तो बड़ा हठ पकड़ रखा है और अर्थी के रूप में तुम मेरे सामने उपस्थितहो; ऐसी दशामें मैं तुमसे क्या कहूँ’ .

जब महात्माजीने देखा कि यह किसी प्रक्रार अपना आग्रह नहीं छोड़ता, तब उन्होंने उसे एक फल देकर कहा— इसे तुम अपनी पत्नी कों खिला देना, इससे उसके एक पुत्र होगा ॥ तुम्हारी स्त्री को एक साल तक सत्य, शौच, दया, दान और एक समय एक ही अन्न खाने का नियम रखना होगा। यदि वह ऐसा करेगी तो वह बालक बहुत ही शुद्ध स्वाभाव वाला होगा। ये कहकर वो योगीराज चले गए और वो ब्राह्मण आत्मदेव भी ख़ुशी ख़ुशी घर को लौटने लगा।

आत्मदेव का, संतान प्राप्ति वाला आशीर्वाद रूपी फल धुंधली को देना –

Gokarn Dhundhukari ki Katha –

घर आकर उसने वह फल अपनी स्त्री को दे दिया और कही चला गया। उसकी स्त्री कुटिल स्वाभाव की थी, रो रोकर अपनी पड़ोसन सखी से कहने लगी – “सखी” मुझे तो बड़ी चिंता हो गयी है, में तो यह फल नहीं खायुंगी। ये फल खाने से मेरा गर्भ ठहर जायेगा और मेरा पेट निकल आएगा। में कुछ भी खाया पीया नहीं जायेगा, शक्ति भी क्षीण हो जाएगी। तो तू ही बता घर का काम धंधा कौन देखेगा, ये घर कैसे चलेगा, और कही गांव में डाकुओं का आक्रमण हो गया तो एक गर्भिणी स्त्री कैसे भागेगी? और यदि कही यह शुकदेव की तरह गर्भ पेट में ही रह गया तो में क्या करुँगी, इसे बाहर कैसे निकाला जायेगा? और यदि प्रसवकाल में कही टेड़ा हो गया तो प्राणो से हाथ भी धोने होंगे। में सुकुमारी भला यह सब कैसे सह सकुंगी। दुर्बल होने की स्थिति में मेरी नंदरानी मेरा सारा माल समेट ले जाएगी। और तो और मुझसे ये सत्य, शौंच के नियम भी कैसे पालन होंगे? जो स्त्री बच्चे को जन्म देती है वो बड़ा ही कष्ट भोगती है।  मेरे विचार से वांझ या विधवा स्त्री ही सुखी रहती है।

मन में ऐसे ही तरह-तरह के कुतर्क उठने से उसने वह ‘फल नहीं खाया और जब उसके पति ने पूछा— फल खा लिया ?’ तब उसने कह दिया–‘हाँ, खा लिया’

एक दिन उसकी बहिन अपने-आप ही उसके घर आयी; तब उसने अपनी बहिन को साथ वृतांत सुनाकर कहा कि “मेरे मन में इस फल को लेकर बड़ी चिन्ता है, मैं इस दुःख के कारण दिनों दिन दुबली हो रही हूँ। बहिन! मैं क्या कहूँ ?” बहिन ने कहा, “मेरे पेट में बच्चा है, प्रसव होनेपर वह बालक मैं तुझे दे दूँगी। तब तक तू गर्भवती के समान घरमें गुप्त रूप से सुख से रह । तू मेरे पति कों कुछ घन दे देगी तो वे तुझे अपना बालक दे देंगे। (हम ऐसी युक्ति करेंगी) कि जिसमें सब लोग यही कहें कि ‘इसका बालक छः महीने का होकर मर गया’ और मैं नित्यप्रति तेरे घर आकर उस बालक का पालन-पोषण करती रहूँगी। तू इस समय इसकी जाँच करने के लिये यह फल गौ कों खिला दे ।’

धुंधकारी की जन्म कथा –

ब्राह्मणी ने अपने स्वाभाववश जो-जो उसकी बहिन ने कहा था, वैसे ही सब किया। इसके पश्चात्‌ समयानुसार जब उस स्त्री के पुत्र हुआ, तब उसके पति ने चुपचाप लाकर उसे धुंधली  कों दे दिया और उसने आत्मदेव को सूचना दे दी कि मेरे सुखपूर्वक बालक हो गया है। इस प्रकार आत्मदेव के पुत्र हुआ सुनकर सब लोगों को बड़ा आनन्द हुआ। ब्राह्मण  ने उसका जातकर्म-संस्कार करके अन्य ब्राह्मणों को दान दिया।  और उसके द्वार पर गाना बजाना तथा अनेक प्रकार के मांगलिक कृत्य होने लगे। धुंधली ने अपने पति से कहा – “मेरे  स्तनों में तो दूध ही नहीं है। तो फिर में इस बालक का गौ के दूध से लालन पालन करुँगी। मेरे बहन के यहाँ भी संतान हुयी थी लेकिन वो मर गया है, में उसे ही बुला लेती हु वो उसका सही से लालन पालन कर सकती है। तब अपने पुत्र की रक्षा के लिए आत्मदेव ने वैसा ही काम किया।  माता धुंधली इस उस पुत्र का नाम धुंधकारी रखा।

गोकर्ण के जन्म की कथा –

इसी समय ब्राह्मण की गाय के तीन महीने बीत जाने पर एक मनुष्यकार बच्चा पैदा हुआ वह सर्वांग सुन्दर, दिव्य, निर्मल तथा सुवर्ण की कांति वाला था।

उसे देखकर ब्राह्मण देवता कों वड़ा आनन्द हुआ और उसने स्वयं ही उसके सब संस्कार किये। इस समाचार से और सब लोगों को भी बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बालक को देखने के लिये आये तथा आपस में कहने लगे,’ देखो, भाई ! आब आत्मदेव का कैसा भाग्य उदय हुआ है! कैसे आश्चर्य की बात है कि गौ के भी ऐसा दिव्यरूप बालक उत्पन्न हुआ है’ दैवयोगसे इस गुप्त रहस्थ का किसी को भी पता न लगा। आत्मदेव ने उस बालक के गौ के-से कान देखकर उसका नाम ‘गोकर्ण’ रखा।

कुछ काल बीतने पर वे दोनों बालक जवान हो गये। उनमें गोकर्ण तो बड़ा पंडित और ज्ञानी हुआ, किन्तु धुंधकारी बड़ा ही दुष्ट निकला।  खान-शौचादि ब्राह्मणोचित आचारों का उसमें नाम भी न था और न खान-पान का ही कोई परहेज था | क्रोध उसमें बहुत बढ़ा-चढ़ा था। वह बुरी वस्तुओं का संग्रह किया करता था।  दूसरों की चोरी करना और सब लोगों से द्वेष बढ़ाना उसका स्वभाव बन गया था! छिपे-छिपे वह दूसरों के घरो में आग लगा देता था।

दूसरों के बालको को खिलाने के लिये गोद में लेता और उन्हें चट कुएँमें डाल देता।  हिंसा का उसे व्यसन-सा हो गया था। हर समय वह अस्त्र शस्त्र  धारण किये रहता और बेचारे अंधे और दीन-दुखियों को व्यर्थ तंग करता।

चाण्डालो से  उसका विशेष प्रेम था; बस हाथ में फंदा लिये कुत्तों की टोली के साथ शिकार की टोहमें घूमता रहता।  वेश्याओं के जाल में फंसकर उसने अपने पिता की सारी सम्पत्ति नष्ट कर दी। एक दिन माता-पिता कों मार-पीटकर घर के सब बर्तन-भाँड़े उठा ले गया।

इस प्रकार जब सारी सम्पत्ति स्वाहा हो गयी, तब उसका कृपण पिता फूट-फूटकर रोने लगा और बोला–‘इससे तो इसकी माँ का बाँझ रहना ही अच्छा था; कुपुत्र तो बड़ा ही दुःखदायी होता है। अब मैं कहाँ रहूँ? कहाँ जाऊँ ? मेरे इस संकट कों कौन काटेगा ? हाय ! मेरे ऊपर तो बड़ी विपत्ति आ पड़ी है, इस दुःख के कारण अवश्य मुझे एक दिन प्राण छोड़ने पड़ेंगे।

गोकर्ण का आत्मदेव को दुष्ट कुपुत्र से छुटकारा और आत्महत्या से बचने का उपाय कहना –

उसी समय परम ज्ञानी गोकर्ण जी वहाँ आये और उन्होंने पिता को वैराग्य उपदेश करते हुए बहुत समझाया।  वे बोले,’ पिताजी ! यह संसार असार है। यह अत्यन्त दुःखरूप और मोह में डालने वाला है। पुत्र किसका ? धन किसका? स्नेहवान पुरुष रात-दिन दीपक के समान जलता रहता है।  सुख न तो इंद्रा को है और न चक्रवर्ती  राजाको ही सुख है। सुख है तो केवल विरक्त, एकान्तजीबी मुनि को।  ‘यह मेरा पुत्र है’ इस अज्ञान कों छोड़ दीजिये। मोह से नरक की प्राप्ति होती है। यह शरीर  तो नष्ट होगा ही। इसलिये सब कुछ छोड़कर वन में चले जाने को तैयार हो गया और उनसे कहने लगा, बेटा ! वन में रहकर मुझे क्या करना चाहिये, यह मुझसे विस्तारपूर्वक कहो।  मैं बड़ा मूर्ख हु. अब तक कर्मवश स्नेहपाश में वधा हुआ अपड्ग की भाँति इस घर रूप अँधेरे कुएँ में ही पड़ा रहा हूँ। तुम बड़े दयालु हो, इससे मेरा उद्धार करो।

गोकर्ण ने कहा–पिताजी ! यह शरीर हड्डी, मांस और रुधिर का पिण्ड है; इसे आप “मैं” मानना छोड़ दें और स्त्री-पुत्रादि कों ‘अपना’ कभी न मानें। इस संसार को रात-दिन क्षणभंगुर देखें, इसकी किसी भी वस्तु को स्थायी समझकर उसमें राग न करें। बस, एकमात्र वैराग्य-रस के रसिक होकर भगवान की भक्तिमें लगे रहें॥

भगवद्ध भजन ही सबसे बड़ा धर्म है, निरन्तर उसी का आश्रय लिये रहें। अन्य सब प्रकार के लौकिक धर्मो  से मुख मोड़ लें। सदा साधुजनो की सेवा करें। भोगों की लालसा को पास न फटकने दें तथा जल्दी-से-जल्दी दूसरों के गुण-दोषों का विचार करना छोड़कर एकमात्र भगवत्सेवा और भगवान् ‌की कथाओ के रसका ही पान करें।

इस प्रकार पुत्र की वाणी से प्रभावित होकर आत्मदेव ने घर छोड़ दिया और बन की यात्रा की। यद्यपि उसकी आयु उस समय साठ वर्ष की हो चुकी थी, फिर भी बुद्धि में पूरी टृढ़ता थो। वहाँ रात-दिन भगवान्‌ की सेवा-पूजा करने से और तनियमपूर्वक भागवत के दशमस्कन्ध का पाठ करने से उसने भगवान्‌ श्रीकृष्णचन्द्र को प्राप्त कर लिया।

———— श्रीमदभागवत का चतुर्थ अध्याय समाप्त ———————–

आगे – श्रीमदभागवत – पांचवा अध्याय – धुंधकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उध्दार

How useful was this post?

Click on a star to rate it!

Average rating 3.2 / 5. Vote count: 5

No votes so far! Be the first to rate this post.