स्कन्द जी कहते हैं – मुने! कलावती ने पुनः उस चित्रपट में स्वर्गद्वार के आगे श्रीमणिकर्णिका तीर्थ को देखा जहाँ संसार रूपी सर्प से डसे हुए जीवों के दाहिने कान में भगवान् शिव अपने दाहिने हाथ से स्पर्श करते हुए तारक ब्रह्म का उपदेश देते हैं। बार-बार चित्रपट को निहारती हुई उसने भगवान् विश्वनाथ के दक्षिण भाग में ज्ञानवापी को देखा।
पुराण में महादेब जी को जिन आठ मूर्तियों से युक्त बताया जाता है, उनमें से उनकी जलमयी मूर्ति यह ज्ञानवापी ही है, जो ज्ञान प्रदान करने वाली है। ज्ञानवापी का दर्शन करके कलावती के शरीर में रोमांच हो आया। शरीर कुछ कम्पित होने लगा और माथे में पसीना आ गया। उसके दोनों नेत्र आनन्द के आँसुओं से भर आये। देह जडवत् हो गयी | मुँह का रंग फीका हो गया और वह चित्रपट उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ा। वह क्षणभर के लिये अपने-आप को भूल गयी। तदनन्तर कलावती की दासियाँ इधर-उधर से दौड़ती हुई आयीं और आपस में पूछने लगीं –
क्या हुआ?
क्या हुआ?
यह क्या हो गया?
फिर वे शान्तिदायक उपचारों से धैर्ययुक्त उसकी सेवा में जुट गयीं। उसे इस अवस्था में देखकर बुद्धि शरीरिणी नाम वाली एक सखी बोली – मैं इसके सन्ताप को शान्त करने के लिये एक उत्तम ओषधि जानती हूँ। यह इस चित्रपट को देखकर तत्काल विकलता को प्राप्त हुई है, अत: फिर उसी का स्पर्श करने से सन्ताप-रहित होगी। बुद्धिशरीरिणी के कहने से दासियों ने कलावती के आगे उस चित्रपट को रखकर कहा –
“रानीजी ! इस चित्रपट को देखिये, जिसमें आपको आनन्द देने वाले कोई इष्टदेव विराज रहे हैं।”
चित्रपट का स्पर्श प्राप्त होते ही कलावती मूर्छा त्यागकर सहसा उठ बैठी। फिर उसने ज्ञानदायिनी ज्ञानवापी को देखा। चित्रपट में अंकित उस ज्ञानवापी का स्पर्श करके ही उसने जन्मान्तर का वैसा ही ज्ञान प्राप्त कर लिया जैसा कि पूर्वजन्म में था। तब उसने प्रसन्न होकर अपनी दासियों से पूर्वजन्म का वृत्तान्त कह सुनाया।
कलावती बोली – पूर्वजन्म में मैं ब्राह्मण की कन्या थी और काशी में विश्वनाथ-मन्दिर के समीप ज्ञानवापी के तट पर प्रसन्नता-पूर्वक खेला करती थी। मेरे पिता का नाम हरि स्वामी, माता का नाम प्रियंवदा और मेरा नाम सुशीला था। इस समय ज्ञानवापी को देखने से क्षण भर में मुझे यह पूर्वजन्म का ज्ञान हो आया है।
कलावती की यह बात सुनकर बुद्धि शरीरिणी तथा वे सब दासियाँ हर्ष में भरकर बोलीं – अहो !जिस तीर्थ का ऐसा प्रभाव है, उसका दर्शन हमें कैसे प्राप्त हो सकता है?
कलावती रानी ! आपको नमस्कार है। आप हमारी मनोकामना पूर्ण करें।
राजा से प्रार्थना करके हमको भी वहाँ ले चलें।
जो चित्रपट में प्राप्त होने पर भी आपको ज्ञान देने वाली हुई है, वह अवश्य ही नाम से “ज्ञानवापी” कहलाने योग्य है।
कलावती ने उन सबकी प्रार्थना स्वीकार करके महाराज से कहा – “प्राणनाथ! आप – जैसे पति को पाकर मेरे सब मनोरथ पूर्ण हो गये।
आर्यपुत्र! अब एक ही मनोरथ शेष है, जिसके लिये मैं प्रार्थना करती हूँ।
राजा ने कहा – प्रिये ! मैं ऐसी कोई वस्तु नहीं देखता जो तुम्हारे लिये देने योग्य न हो।
अतः शीघ्र कहो। तुम किस से माँगती हो, किस वस्तु को माँगती हो और कौन माँगने वाला है?
हम दोनों का आपस का बर्ताव दो भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की भाँति नहीं है। राज्य, कोष, सेना और दुर्ग तथा अन्य भी जितनी वस्तुएँ हैं, वे सब तुम्हारी हैं, मेरा कुछ भी नहीं है। मैं नाम मात्र के लिये ही इनका स्वामी हूँ।
कलावती बोली – नाथ ! मुझे शीघ्र काशीपुरी में पहुँचाइये।
राजा माल्यकेतु ने कहा – प्रिये! यदि तुमने काशी जाने का ही निश्चय कर लिया तो अब मुझे भी यहाँ रहने की क्या आवश्यकता। अतः हम-तुम दोनों को काशी चलना चाहिये।
इस प्रकार अपनी प्यारी पत्नी कलावती को आश्वासन देकर राजा माल्यकेतु ने पुरवासियों को बुलाकर सत्कार किया और पुत्र को राज सिंहासन पर बिठाकर कुछ रत्न-धन साथ ले काशीपुरी को प्रस्थान किया। विश्वनाथ जी की नगरी का दर्शन करके राजा ने अपने को कृतार्थ माना और संसार-सागर से पार गया हुआ समझा।
पहले जन्म की वासना से रानी कलावती ने उस पुरी की समस्त गलियों और मार्गों को स्वयं पहचान लिया।
उन्होंने मणि कर्णिका में स्नान करके बहुत धन दान किया और विश्वनाथ जी की पूजा करके परिक्रमा करने के पश्चात मुक्तिमण्डप में प्रवेश किया। वहाँ धर्म कथा सुनकर धन-दान किया।
फिर राजा ने सायंकाल की महा पूजा की और रात में जागरण किया। तदनंतर प्रातःकाल उठकर शौच और स्नान से निवृत्त हो रानी के बताये हुए मार्ग से वे ज्ञानवापी पर गये।
वहाँ हर्ष में भरे हुए राजा ने कलावती के साथ स्नान किया और श्रद्धा पूर्वक पिण्डदान देकर पितरों को तृप्त किया।
वहाँ सुपात्र ब्राह्मणों को सुवर्ण और रजत दान किये। फिर दीनों, अन्धों, दरिद्रों और अनाथों को धन से सन्तुष्ट करके नरेश ने पारणा की तथा रत्नमयी सीढ़ियाँ लगवाकर ज्ञानवापी का संस्कार कराया। रानी कलावती ने अपने पति के साथ ज्ञानवापी तीर्थ के प्रति भक्ति-भाव बढ़ाया और आयु के शेष दिन तपस्या पूर्वक व्यतीत किये।
एक दिन प्रातःकाल वे दोनों दम्पति ज्ञानवापी में स्नान करके बैठे हुए थे। इसी समय किसी जटाधारी व्यक्ति ने आकर उनके हाथ में विभूति दी और इस प्रकार कहा –
उठो, आज एक ही क्षण में तुम दोनों को यहाँ तारक मन्त्र का उपदेश प्राप्त होगा।
उस जटाधारी तपस्वी के इतना कहते ही आकाश से एक तेजस्वी विमान उतर आया और सब लोगों के देखते-देखते भगवान् शिव उस विमान से उतरे। उतरकर उन्होंने उन दोनों पति-पत्नी के कानों में स्वयं ही ज्ञान का उपदेश किया।
उपदेश के अनन्तर अनिर्वचनीय परम ज्योति:स्वरूप वह श्रेष्ठ विमान आकाश मार्ग को प्रकाशित करता हुआ तत्काल ऊपर को चला गया और महादेव जी भी अपने परम धाम में चले गये।
स्कन्दजी कहते हैं – तभी से (Gyanvapi Teerth) ज्ञानवापी तीर्थ का महत्व इस संसार में सबसे अधिक हो गया। ज्ञानवापी भगवान शिव की प्रत्यक्ष मूर्ति ज्ञान उत्पन्न करने वाली है।
स्रोत – संक्षिप्त स्कंदपुराण, (४ ) काशी खंड (पूर्वार्ध)
ज्ञानवापी शिवलिंग की महिमा और उसके सेवन से मलयकेतु और कलावती को तारक ब्रह्म की प्राप्ति। पेज संख्या -804
दंडवत आभार – श्रीगीता प्रेस गोरखपुर संक्षिप्त स्कंदपुराण पुस्तक के माध्यम से।
FAQs –
ज्ञानवापी तीर्थ का क्या महत्त्व है?
श्री स्कन्दपुराण के अनुसार जलमयी ज्ञानवापी भगवान शिव की प्रत्यक्ष मूर्ति ज्ञान उत्पन्न करने वाली है। शायद इसीलिए भी भगवान के प्रिय ब्राह्मण (जो काशी से दीक्षित, और त्रिकाल संध्या करते है) काशी में दीक्षित होने के लिए जाते है।
ज्ञानवापी का इतिहास क्या है?
श्री स्कन्दपुराण के अनुसार काशी में मणिकर्णिका के पास ज्ञानवापी जलमयी शिवलिंग है जिसके दर्शन से ज्ञान की प्राप्ति, और तारक ब्रह्म की प्राप्ति संभव है।