महाराज रत्नग्रीव बड़े बुद्धिमान्‌ और जितेन्द्रिय थे, वे स्थान-स्थान पर दीनों, अंधों, दुःखियों तथा पंगुओं को उनकी इच्छा के अनुकूल दान देते रहते थे। साथ आये हुए सब लोगों के सहित अनेकों तीर्थों में स्नान करके वे अपने को निर्मठ एवं भव्य बना रहे थे और भगवान्‌ का ध्यान करते हुए आगे बढ़ रहे थे।

जाते-जाते महाराज ने अपने सामने एक ऐसी नदी देखी जो सब पापों को दूर करने वाली थी। उसके भीतर के पत्थर (झालग्राम) चक्र के चिन्ह से अंकित थे । वह मुनियों के हृदय की भाँति स्वच्छ दिखायी देती थी। उस नदी के किनारे अनेकों महर्षियों के समदाय कई पंक्तियों में बैठकर उसे सुशोभित कर रहे थे। उस सरिता का दर्शन करके महाराज ने धर्मक ज्ञाता तपस्वी ब्राह्मण से उसका परिचय पूछा; क्योंकि वे अनेकों तीर्थों की विशेष महिमा के ज्ञान में बढ़े-चढ़े थे।

राजा ने प्रश्न किया – स्वामिन्‌ ! महर्षि-समुदाय के द्वारा सेवित यह पवित्र नदी कौन है? जो अपने दर्शन से मेरे चित्त में अत्यन्त आह्वाद उत्पन्न कर रही है। बुद्धिमान्‌ महाराज का यह वचन सुनकर विद्वान्‌ ब्राह्मण ने उस तीर्थ का अद्भुत माहात्म्य बतलाना आरम्भ किया।

ब्राह्मण ने कहा – राजन्‌ ! यह गण्डकी नदी है इसे शालग्रामी और नारायणी भी कहते हैं, देवता और असुर सभी इसका सेवन करते हैं । इसके पावन जल की उत्ताल तरंगे राशि-राशि पातकों को भी भस्म कर डालती हैं। यह अपने दर्शन से मानसिक, स्पर्श से कर्मजनित तथा जल का पान करने से वाणी द्वारा होने वाले पापों के समुदाय को दग्ध करती है।

पूर्वकाल में प्रजापति ब्रह्माजी ने सब प्रजा को विशेष पाप में लिप्त देखकर अपने गण्डस्थल (गाल) के जल की बूँदों से इस पापनाशिनी नदी को उत्पन्न किया । जो उत्तम लहरों से सुशोभित इस पुण्य-सलिला नदी के जल का स्पर्श करते हैं, वे मनुष्य पापी हों तो भी पुनः माता के गर्भ में प्रवेश नहीं करते। इसके भीतर से जो चक्र के चिह्नों द्वारा अलंकृत पत्थर प्रकट होते हैं, वे साक्षात्‌ भगवान के ही विय्रह हैं। भगवान्‌ ही उनके रूप में प्रादुर्भूत होते हैं। जो मनुष्य प्रतिदिन चक्र के चिन्ह से युक्त शालग्राम शिला का पूजन करता है वह फिर कभी माता के उदर में प्रवेश नहीं करता । जो बुद्धिमान्‌ श्रेष्ठ शालग्राम शिला का पूजन करता है, उसको दम्भ और लोभ से रहित एवं सदाचारी होना चाहिये । परायी स्त्री और पराये धन से मुँह मोड़कर यत्न-पूर्वक चक्राड्डित शालय्राम का पूजन करना चाहिये। द्वारका में लिया हुआ चक्र का चिह्न और गण्डकी नदी से उत्पन्न हुई शालाग्राम की शिला – ये दोनों मनुष्यों के सौ जन्मो के पाप भी एक ही क्षण में हर लेते है। हज़ारों पापों का आचरण करने वाला मनुष्य क्यों न हो, शालग्राम शिला का चरणामृत पीकर तत्काल पवित्र सकता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैद्य तथा वेदोक्त मार्ग पर स्थित रहने वाला शूद्र गृहस्थ भी शालग्राम की पूजा करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

परन्तु स्त्री को कभी Shalgram Shila का पूजन नहीं करना चाहिये । विधवा हो या सुहागिन, यदि वह स्वर्गलोक एवं आत्मकल्याण की इच्छा रखती है तो शालग्राम शिला का स्पर्श न करे। यदि मोहवश उसका स्पर्श करती है तो अपने किये हुए पुण्य-समूह का त्याग करके तुरंत नरक में पड़ती है।

कोई कितना ही पापाचारी और ब्रह्महत्यारा क्यों न हो, शालग्राम शिला को स्नान कराया हुआ जल (भगवान्‌ का चरणामृत) पी लेने पर परमगति को प्राप्त होता है। भगवान को निवेदित तुलसी, चन्दन, जल, शंख, घण्टा, चक्र, शाल-ग्राम शिला, ताम्रपात्र, श्रीविष्णु का नाम तथा उनका चरणामृत — ये सभी वस्तुएँ पावन हैं । उपर्युक्त नौ वस्तुओं के साथ भगवान्‌ का चरणामृत पापराशि को दग्ध करने वाला है । ऐसा सम्पर्ण शास्त्रों के अर्थ को जानने वाले शान्तचित्त महर्षियों का कथन है।

राजन्‌ ! समस्त तीर्थो में स्नान करने से तथा सब प्रकार के यज्ञों द्वारा भगवान्‌ का पूजन करने से जो अद्भुत पुण्य होता है, वह भगवान के चरणामृत की एक-एक बूँद में प्राप्त होता है। चार, छः, आठ आदि, समसंख्या में शालग्राम- मूर्तियों की पूजा करनी चाहिये । परन्तु समसंख्या में दो शालग्रामों की पूजा उचित नहीं है। इसी प्रकार विषमसंख्या में भी शालग्राम मूर्तियों की पूजा होती है, किन्तु विषम में तीन शालग्रामों की नहीं।

द्वारका का चक्र तथा गण्डकी नदी के शालय्राम इन दोनों का जहाँ समागम हो, वहाँ समुद्रगामिनी गंडका की उपस्थिति मानी जाती है । यदि शालय्राम शिलाएँ रूखी हों तो वे पुरुषों को आयु, लक्ष्मी और उत्तम कीर्ति से वंचित कर देती हैं; अतः जो चिकनी हों, जिनका रूप मनोहर हो, उन्हीं का पूजन करना चाहिये । वे लक्ष्मी प्रदान करती हैं । पुरुष को आयु की इच्छा हो या धन की, यदि वह शालग्राम- शिला का पूजन करता है तो उसकी ऐहलौकिक और पारलौकिक–सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं ।

राजन्‌ ! जो मनुष्य बड़ा भाग्यवान्‌ होता है, उसी के प्राणान्त के समय जिव्भा पर भगवान का पवित्र नाम आता है और उसी की छाती पर तथा आस पास शालग्राम शिला मौजूद रहती है। प्राणों के निकलते समय अपने विश्वास या भावना में ही यदि शालग्राम शिला की स्फुरणा हो जाय तो उस जीव की निःसन्देह मुक्ति हो जाती है।

पूर्वकाल में भगवान ने बुद्धिमान्‌ राजा अम्बरीष से कहा था कि ब्राह्मण, संन्यासी तथा चिकनी शालग्राम शिला – ये तीन इस भूमण्डल पर मेरे स्वरूप हैं। पापियों का पाप नाश करने के लिये मैंने ही ये स्वरूप धारण किये हैं। जो अपने किसी प्रिय व्यक्ति को शालग्राम की पूजा करने का आदेश देता है वह स्वयं तो कृतार्थ होता ही है, अपने पूर्वजों को भी शीघ्र ही वैकुण्ठ में पहुँचा देता है।

इस विषय में काम-क्रोध से रहित वीतराग महर्षिगण एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। –

पूर्व-काल की बात है, धर्मशून्य मगधदेश में एक पुल्कस-जाति का मनुष्य रहता था, जो लोगों में शबर के नाम से सिद्ध था । सदा अनेकों जीव-जंतुओं की हत्या करना, और दूसरों का धन लूटना, यही उसका काम था । राग- द्वेष और काम-क्रोधादि दोष सर्वदा उसमें भरे रहते थे । एक दिन वह व्याध समस्त प्राणियों को भय पहुँचाता हुआ घूम रहा था, उसके मन पर मोह छाया हुआ था; इसलिये वह इस बात को नहीं जानता था कि उसका काल समीप आ पहुँचा है । यमराज के भयंकर दूत हाथों में मुद्गल और पाश लिये वहाँ पहुँचे। उनके ताँबे – जैसे लाल-लाल केश, बड़े-बड़े नख तथा लंबी -लबी दाढ़ें थीं। वे सभी काले – कलूटे दिखायी देते थे तथा हाथों में लोहे की साँकलें लिये हुए थे। उन्हें देखते ही प्राणियों को मूर्छा आ जाती थी।

वहाँ पहुँचकर वे कहने लगे – सम्पूर्ण जीवो को भय पहुँचाने वाले इस पापी को बाँध लो|

तदनन्तर सब यमदूत उसे लोहे के पाश से बाँधकर बोले – दुष्ट ! दुरात्मा ! तूने कभी मन से भी शुभकर्म नहीं किये; इसलिये हम तुझे रौरव-नरक में डालेंगे । जन्म से लेकर अब तक तूने कभी भगवान की सेवा नहीं की। समस्त पापों को दूर करने वाले श्री नारायण देव का कभी स्मरण नहीं किया। अतः धर्मराज की आज्ञा से हम तुझे बारम्बार पीटते हुए लोहदाडडू, कुम्भीपाक अथवा अतिरौरव नरक में ले जायेंगे।

ऐसा कहकर यमदूत ज्यों ही उसे ले जाने को उद्यत हुए त्यों ही महाविष्णु के चरणकमलों की सेना करने वाले एक भक्त महात्मा वहाँ आ पहुँचे। उन वैष्णव महात्मा ने देखा कि यमदूत पाश, मुद्रर और दंड आदि कठोर आयुध धारण किये हुए हैं तथा पुल्कस को लोहे की साँकलॉ से बाँधकर ले जाने को उद्यत हैं।

भगवद्भक्त महात्मा बड़े दयालु थे। उस समय पुल्कस की अवस्था देखकर उनके हृदय में अत्यन्त करुणा भर आयी और उन्होंने मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया – यह पुल्कस मेरे समीप रहकर अत्यन्त कठोर यातना को प्राप्त न हो, इसलिये मैं अभी यमदूतों से इसको छुटकारा दिलाता हूँ ।’

ऐसा सोचकर वे कृपालु मुनीश्वर हाथ में शालग्राम शिला लेकर पुल्कस के निकट गये और भगवान्‌ शालग्राम का पवित्र चरणामृत, जिसमें तुलसीदल भी मिला हुआ था, उसके मुख में डाल दिया फ़िर उसके कान में उन्होंने राम-नाम का जप किया, मस्तक पर तुलसी रखी और छाती पर महाविष्णु की शालग्राम शिला रखकर कहा – यातना देने वाले यमदूत यहाँ से चले जायें । शालग्राम शिला का स्पर्श ने पुल्कस के महान्‌ पातक को भस्म कर डाले।

बैष्णव महात्मा के इतना कहते ही भगवान्‌ विष्णु के पार्षद, जिनका स्वरूप बड़ा अद्भुत था, उस पुल्कस के निकट जा पहुँचे; शालग्राम की शिला के स्पर्श से पुल्कस के सारे पाप नष्ट हो गये थे । वे पार्षद पीताम्बर धारण किये शंख, चक्र, गदा और पद्म से सुशोभित हो रहे थे । उन्होंने आते ही उस दुःसह लोहपाश से पुल्कस को मुक्त कर दिया। उस महापापी को छुटकारा दिलाने के बाद वे यमदूतों से बोले – तुम लोग किसकी आज्ञा का पालन करने वाले हो, जो इस प्रकार अधर्म कर रहे हो ?

यह पुल्कस तो वैष्णव है, इसने पूजनीय देह धारण कर रखा है, फिर किसलिये तुमने इसे बन्धन में डाला था ?

उनकी बात सुनकर यमदूत बोले – यह पापी है, हम लोग धर्मराज की आज्ञा से इसे ले जाने को उद्यत हुए हैं, इसने कभी मन से भी किसी प्राणी का उपकार नहीं किया है।

इसने जीव हिंसा जैसे बड़े-बड़े पाप किये हैं। तीर्थ- यात्रियों कों तो इसने अनेकों बार लूटा है। यह सदा परायी स्त्रियों का सतीत्व नष्ट करने में ही लगा रहता था।

सभी तरह के पाप इसने किये हैं; अतः हम लोग इस पापी को ले जाने के उद्देश्य से ही यहाँ उपस्थित हुए हैं। आप लोगों ने सहसा आकर क्यों इसे बन्धन से मुक्त कर दिया?

विष्णु-दूत बोले – यमदूतो ! ब्रह्महत्या आदि का पाप हो या करोड़ों प्राणियों के वध करने का, शालय्राम – शिला का स्पर्श सबको क्षणभर में जला डालता है।

जिसके कानों में अकस्मात्‌ भी राम-नाम पड़ जाता है, उसके सारे पापो को वह उसी प्रकार भस्म कर डालता है, जैसे आग की चिनगारी रूई को। जिसके मस्तक पर तुलसी, छाती पर शालग्राम की मनोहर शिला तथा मुख या कान में रामनाम हो वह तत्काल मुक्त हो जाता है। इस पुल्कस के मस्तक पर भी पहले से ही तुलसी रखी हुई है, इसकी छाती पर शालग्राम की शिला है तथा अभी तुरंत ही इसको श्रीराम का नाम भी सुनाया गया है; अतः इसके पापों का समूह दग्ध हो गया और अब इसका शरीर पवित्र हो चुका है। तुम लोगों को शालग्राम शिला की महिमा का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं है; यह दर्शन, स्पर्श अथवा पूजन करने पर तत्काल ही सारे पापों को हर लेती है।

इतना कहकर भगवान्‌ विष्णु के पार्षद चुप हो गये। यमदूतों ने लौटकर यह अद्भुत घटना धर्मराज से कह सुनायी तथा श्रीरघुनाथजी के भजन में लगे रहने वाले वे वैष्णव महात्मा भी यह सोचकर कि यह यमराज के पाश से मुक्त हो गया और अब परमपद को प्राप्त होगा, बहुत प्रसन्न हुए। इसी समय देवलोक से बड़ा ही मनोहर, अत्यन्त अद्भुत और उज्ज्वल विमान आया तथा वह पुल्कस उस पर आरूढ हो बड़े-बड़े पुण्यवानों द्वारा सेवित स्वर्गलोक को चला गया। वहाँ प्रचुर भोगों का उपभोग करके वह फिर इस पृथ्वी पर आया और काशीपुरी के भीतर एक शुद्ध ब्राह्मण वंश में जन्म लेकर उसने विश्वनाथजी की आराधना की एवं अन्त में परमपद को प्राप्त कर लिया । वह पुल्कस पापी था तो भी साधु-संग के प्रभाव से शालग्राम शिला का स्पर्श पाकर यमदू्तों की भयंकर पीड़ा से मुक्त हो परमपद को पा गया।

राजन्‌ ! यह मैंने तुम्हें शालग्राम शिला के पूजन की महिमा बतलायी है, इसका श्रवण करके मनुष्य सब पापों से छूट जाता और भोग तथा मोक्ष को प्राप्त होता है।


स्रोत – श्रीमदपद्मपुराण, पातालखण्ड – तीर्थयात्रा की विधि एवं शालग्राम शिला की महिमा

दंडवत आभार – श्रीगीताप्रेस गोरखपुर – संक्षिप्त श्रीमदपद्मपुराण – पेज संख्या – 449 से 454 तक


 

FAQs –

कौन सा शालिग्राम सबसे अच्छा है?

शालिग्राम काली और चिकनी हो तो उत्तम है। यदि शालय्राम शिलाएँ रूखी हों तो वे पुरुषों को आयु, लक्ष्मी और उत्तम कीर्ति से वंचित कर देती हैं।

घर में कौन सा शालिग्राम रखना चाहिए?

जिनका रूप मनोहर हो, उन्हीं का पूजन करना चाहिये।

How useful was this post?

Click on a star to rate it!

Average rating 5 / 5. Vote count: 1

No votes so far! Be the first to rate this post.

Last Update: मई 28, 2024