महापुराण डॉट कॉम पर आपको मिलती है पौराणिक कहानियाँ जिन्हे आप जब चाहे जहाँ चाहे पढ़ सकते है। लेकिन सोने से पहलेऐसी कहानी पढ़ने से स्वप्नावस्था में शरीर सुख को अनुभव करता है। अगर नहीं विश्वास तो 7 दिन ऐसा करके देखे और अनुभव करे। तो पढ़ते है श्री जड़भरत की कहानी की कैसे वो राजा से हिरन और हिरन से जड़ भरत (सचिदानंद) बने।
Contents -
राजा भरत का पहला जन्म –
श्री ऋषभ देव जी के 100 पुत्र थे जिनमें सबसे बड़े भरत जी थे। इन्होंने अपने पुत्र भरत को राजगद्दी सोंप दी। इनका विवाह विश्वरूप की कन्या पञ्चजनी से हुआ। इनके 5 पुत्र हुए- सुमति, राष्ट्रभृत, सुदर्शन, आवरण और धूम्रकेतु।
पहले भारतभूमि को अजनाभवर्ष कहते थे लेकिन राजा भरत के बाद से “भारतवर्ष” कहा जाने लगा। इन्होंने बड़े अच्छे से प्रजा का पालन किया और ये बहुत अच्छे राजा हुए। कई वर्ष बीत जाने पर इन्होंने राज्य अपने पुत्रों में बाँट दिया। और खुद पुलहाश्रम (हरिहरक्षेत्र) में आ गए।
यहाँ पर गंडकी नाम की नदी थी उसकी तलहटी में शालिग्राम जी मिलते हैं।
(गण्डकी नदी, नेपाल और बिहार में बहने वाली एक नदी है जिसे बड़ी गंडक या केवल गंडक भी कहा जाता है। इस नदी को नेपाल में सालिग्रामि या सालग्रामी और मैदानों मे नारायणी और सप्तगण्डकी कहते हैं। )
वहीँ पर भगवान का ध्यान करते, पूजा पाठ करते और कंद मूल से भगवान की आराधना करते। इस तरह ये भगवान में मन को लगाए रहते। एक बार भरतजी गण्डकी नदी में स्नान कर रहे थे तो इन्होंने देखा की एक गर्भवती हिरनी पानी पीने के लिए नदी के तट पर आई। अभी वह पानी पी ही रही थी कि पास ही गरजते हुए सिंह की भयंकर दहाड़ सुनायी पड़ी। जैसे ही उसने शेर की दहाड़ सुनी तो वह डर गई और उसने नदी पार करने के लिए छलांग लगा दी। उसी समय उसके गर्भ से मृगशावक बाहर आ गया और नदी में गिर गया। हिरनी ने भी नदी पार की लेकिन डर से उसने प्राण त्याग दिए। ।
भरत जी ने देखा की हिरनी का बच्चा नदी में बह रहा है। उन्हें बड़ी दया आई और कूदकर उस हिरन के बच्चे को बचा लिया और अपने आश्रम पर ले आये। वे बड़े प्यार से उस हिरनी के बच्चे का पालन करने लगे। वो हिरन अब भरत जी को ही अपना सब कुछ समझने लगा।
लेकिन भरत जी एक गलती कर गए । उनका मन भगवान की पूजा से हटकर उस हिरन के बच्चे में आशक्त हो गया। हिरन के बच्चे में आसक्ति बढ़ जाने से सोते, बैठते और भोजन करते समय भी उनका चित्त उसके स्नेहपाश में बँधा रहता था। क्योकि मन एक है या तो आप इसे संसार में लगा लो या भगवान में। अब वो जो भी भगवान का पूजा पाठ करते तो उस समय उन्हें उस हिरन के बच्चे की याद आ जाती। कहीं उसे कोई कुत्ता, या सियार या भेड़िया खा न जाये। अगर भरत जी को वह दिखाई नही देता तो उनकी दशा ऐसे हो जाती की किसी का सारा धन लूट गया हो। भरत जी को उसके रहने की, खाने की और सोने की चिंता लगी रहती थी।
एक दिन ऐसा आया की भरत जी अपने दैनिक कर्म में लगे हुए थे वहां हिरनों का झुंड आया और वह हिरन का बच्चा उनके साथ चला गया। जब भरत जी को हिरन का बच्चा कहीं भी नही मिला तो उसे निरंतर उस हिरन की याद सताने लगी। काल का प्रभाव हुआ भरत जी की मृत्यु हुई। मृत्यु के समय भरत जी उस हिरन का ही चिंतन कर रहे थे।
महाराज का दूसरा जन्म हिरन के रूप में –
इस कारण उन्हें अगला जन्म कालिंजर पर्वत पर एक हिरनी के गर्भ से हुआ। भरत जी हिरन बन गए लेकिन उन्हें अपने पूर्वजन्म की याद बनी हुई थी क्योकिं वो पूर्वजन्म में इतना भजन कर चुके थे।
हिरन बनकर भरत जी सोच रहे थे की ” पिछले जन्म में मैंने कितनी बड़ी भूल कर दी। अपने सब परिवार को छोड़कर मैं भगवान का भजन करने के लिए वन में आया था लेकिन मैं उस हिरन में इतना आशक्त हो गया की मुझे हिरन की योनि प्राप्त हो गई।
एक दिन उन्होंने अपनी माता मृगी को त्याग दिया और अपनी जन्मभूमि कालंजर पर्वत से वे फिर शान्त स्वभाव मुनियों के प्रिय उसी शालग्राम तीर्थ में, जो भगवान् का क्षेत्र है, पुलस्त्य और पुलह ऋषि के आश्रम पर चले आये। वहाँ रहकर भी वे काल की ही प्रतीक्षा करने लगे। जैसा रुख सूखा उन्हें मिल जाता था वे खा लेते थे। अन्त में उन्होंने अपने शरीर का आधा भाग गण्डकी के जल में डुबाये रखकर उस मृग शरीर को छोड़ दिया।
महाराज जड़भरत का तीसरा जन्म –
भरत जी का अगला जन्म आंगिरस गोत्र ब्राह्मण के घर हुआ। ये बड़े ही श्रेष्ठ ब्राह्मण थे। इनकी बड़ी स्त्री से इनके 9 पुत्र हुए और छोटी पत्नी से एक ही साथ एक पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ। इस जन्म में भी भगवान की कृपा से इन्हें अपने पूर्वजन्म का स्मरण बना हुआ था।
पिता पौरोहित्य कार्य में थे तो सोचा अपने छोटे पुत्र को ही पौरोहित्य कर्म सिखाऊंगा। इधर भरत जी ने सोचा एक जन्म के बिगड़ने से मुझे 3 जन्म लेना पड़ा। इसलिए अब वह गलती हम दोबारा नहीं करेंगे, पिता इन्हें वेद, शास्त्र सिखाते लेकिन ये जान बुझ कर सीखते नही थे। क्योंकि अगर मैंने ये सब सिख लिए तो मुझे कर्म कांड करने पड़ेंगे और मैं फिर संसार में फंस जाऊंगा। इन्होंने जान बुझ कर एक मन्त्र भी याद नही किया। कोई कह भी नही सकता था ये की ये वही ज्ञानी भरत है जो सब कुछ छोड़कर भगवान के भजन करने के लिए वन में गए थे।
वे पृथ्वी पर ही पड़े रहते थे, कभी तेल-उबटन आदि नहीं लगाते थे और न कभी स्नान ही करते थे, इससे उनके शरीर पर मैल जम गयी थी। लोग कहने लगे थे की ये तो ‘अधम ब्राह्मण’ है। इसी कारण से इन्हें “जड़ भरत” कहा जाने लगा। इन पर सुख दुःख का कोई प्रभाव नही था। गर्मी-सर्दी और वर्षा का भी कोई प्रभाव नही था। कोई इन्हें काम की कहता तो कर देते थे। कोई गाली देता तो सुन लेते थे।
अब तो यह देख पिता जी को बहुत गुस्सा आई। इस तरह पिता ने भरत जी को बहुत डांट लागई और नाम ही रख दिया जड़। तुम भरत नही जड़ हो जड़। इस प्रकार इनका नाम ही पड़ गया जड़भरत। समय बीता और एक दिन पिता जी पधार गए। बड़े पुत्र ने पिता का सब संस्कार किया। अब सभी भाईयों ने मिलकर विचार किया कि हम सब तो अपने अपने कार्य मे व्यस्त रहते हैं और छोटा भाई बैठा बैठा खाता है।
उनके भाइयों ने एक दिन उन्हें खेत की क्यारियाँ ठीक करने में लगा दिया तब वे उस कार्य को भी करने लगे। परन्तु उन्हें इस बात का कुछ भी ध्यान न था कि उन क्यारियों की भूमि समतल है या ऊँची-नीची अथवा वह छोटी है या बड़ी। उनके भाई उन्हें चावल की कनी, खली, भूसी, घुने हुए उड़द अथवा बरतनों में लगी हुई जले अन्न की खुरचन—जो कुछ भी दे देते, उसी को वे अमृत के समान खा लेते थे।
जड़भरत की रक्षा के लिए मूर्ति से प्रकट हुई थी माँ काली –
एक दिन डाकुओं के सरदार ने पुत्र की कामना से भद्रकाली को मनुष्य की बलि देने का संकल्प किया। उसने जिस पुरुष को पशु बलि देने के लिये मँगाया था, वह किसी तरह से उसके फंदे से निकलकर भाग गया। उसे ढूँढने के लिये उसके सेवक चारों ओर दौड़े; किन्तु अँधेरी रात में आधी रात के समय कहीं उसका पता न लगा।
अचानक उनकी दृष्टि इन आंगिरस गोत्रीय ब्राम्हण कुमार (भरत जी) पर पड़ी, जो वन के जीवों से खेतों की रखवाली कर रहे थे । उन्होंने देखा कि हम इन्हें पकड़कर ले चलते हैं इससे हमारे स्वामी का कार्य अवश्य सिद्ध हो जायगा। यह सोचकर वे उन्हें रस्सियों से बाँधकर चण्डिका के मन्दिर में ले आये।
फिर उन चोरों ने अपनी पद्धति के अनुसार विधिपूर्वक उनको अभिषेक एवं स्नान कराकर कोरे वस्त्र पहनाये तथा नाना प्रकार के आभूषण, चन्दन, माला और तिलक आदि से विभूषित कर अच्छी तरह भोजन कराया। और बलिदान की विधि से गान, स्तुति और मृदंग एवं ढोल आदि का शब्द करते उस पुरुष को भद्रकाली के सामने नीचा सिर कराके बैठा दिया । इसके पश्चात् नर-पशु के रुधिर से देवी को तृप्त करने के लिये देवीमन्त्रों से अभिमन्त्रित एक तीक्ष्ण खड्ग उठाया ।
और जैसे ही भरत जी को मारने लगे तो माँ काली ने सोचा की एक तो ये ब्राह्मण है और दूसरा भगवान का भक्त है। यदि मैं आज इसकी रक्षा नही कर पाई और भगवान ने पूछ लिया की देवी आप मेरी भक्त की रक्षा नही कर पाई तो भगवान को क्या कहूँगी?
इसलिए यह भयंकर कुकर्म देखकर देवी भद्रकाली के शरीर में अति दुःसह ब्रम्हतेज से दाह होने लगा और वे एकाएक मूर्ति को फोड़कर प्रकट हो गयीं। उन्होंने क्रोध से तड़ककर बड़ा भीषण अट्टहास किया और उछलकर उस अभिमन्त्रित तलवार से ही उन सारे पापियों के सिर उड़ा दिये और अपने गणों के सहित उनके गले से बहता हुआ गरम-गरम रुधिर रूप आसव पीकर अति उन्मत्त हो ऊँचे स्वर से गाती और नाचती हुई उन सिरों को ही गेंद बनाकर खेलने लगीं। इस तरह माँ काली ने भरत जी की प्राण रक्षा की।
जड़ भरत और राजा रहूगण की कहानी –
फिर भरत जी महाराज अब यहाँ से भी आगे चल दिए। एक बार सिन्धुसौवीर देश का स्वामी राजा रहूगण पालकी पर सवार होकर कपिल भगवान के आश्रम पर जा रहा था। मार्ग में उन्हें पालकी साधने वाले एक कहार की कमी महसूस हुई। जब सेवक कहार की खोज करने निकले तो उन्हें यही भरत जी मिल गए। और इन्हें पकड़कर पालकी उठाने में लगा दिया। वे बिना कुछ बोले ही चुपचाप पालकी को उठाकर चलने लगे।
जड़भरत महाराज पृथ्वी पर रेंगने वाले जीवो को बचाकर चल रहे थे। जिस कारण से पालकी हिल रही थी। राजा रहूगण ने पालकी उठाने वालों से कहा—‘अरे कहारों! अच्छी तरह चलो, पालकी को इस प्रकार ऊँची-नीची करके क्यों चलते हो ?’ कहारों ने सोचा अगर हमने ये नही बताया की जो नया पालकी उठाने वाला है उसके कारण सब गड़बड़ हो रही है तो राजा हमे जरूर दंड देगा। उन्होंने राजा से कहा की- ‘महाराज! अभी नया कहार पालकी में लगाया है जो कभी धीरे चलता है और कभी जल्दी। हम लोग इसके साथ पालकी नहीं ले जा सकते’।
राजा रहूगण ने सोचा, ‘संसर्ग से उत्पन्न होने वाला दोष एक व्यक्ति में होने पर भी उससे सम्बन्ध रखने वाले सभी पुरुषों में आ सकता है। इसलिये यदि इसका प्रतीकार न किया जाय तो धीरे-धीरे ये सभी कहार अपनी चाल बिगाड़ लेंगे।’ ऐसा सोचकर राजा रहूगण को कुछ क्रोध हो आया। राजा गुस्से में कहने लगा – “बड़े दुःख की बात है, अवश्य ही तुम बहुत थक गये हो। इतनी दूर से तुम अकेले ही बड़ी देर से पालकी ढोते चले आ रहे हो। तुम्हारा शरीर भी तो विशेष मोटा-ताजा और हट्टा-कट्टा नहीं है और मित्र! बुढ़ापे ने अलग तुम्हें दबा रखा है।’
ऐसा सुनकर भी भरत जी ने राजा का कुछ भी बुरा न माना। और चुपचाप पालकी को लेकर चलते रहे। लेकिन भरत जी महाराज अब भी अपनी चाल में चले जा रहे थे।
चलते चलते रस्ते में एक लंबी चींटियों की लाइन भरत जी को दिखाई दी। कहीं चींटियों पर पैर न पड़ जाये उन्होंने एक छोटी सी छलांग लगाई। और जैसे ही छलांग लगाई तो राजा का सर पालकी से टकराया। और राजा गुस्से से आग बबुला हो गया।
राजा कहता है -“तू जीते जी मरे के सामान है। तू सर्वथा प्रमादी है। तुझसे ये पालकी का भार नही उठाया जा रहा है। जैसे यमराज जन-समुदाय को उसके अपराधों के लिये दण्ड देते हैं, उसी प्रकार मैं भी अभी तेरा इलाज किये देता हूँ। तब तेरे होश ठिकाने आ जायँगे”। अपने अभिमान के कारण राजा अनाप शनाप बकने लगा।
भरत जी ने सोचा की एक तो ये मुझसे सेवा करवा रहा है और दूसरा गाली भी दे रहा है। तो मैं इसे थोड़ा ज्ञान दे दूं।
जड भरत ने कहा—राजन्! तुमने जो कुछ कहा वह एकदम सच है। लेकिन यदि भार नाम की कोई वस्तु है तो ढोने वाले के लिये है, यदि कोई मार्ग है तो वह चलने वाले के लिये है। मोटापन भी उसी का है, यह सब शरीर के लिये कहा जाता है, आत्म के लिये नहीं। ज्ञानीजन ऐसी बात नहीं करते। आधि, व्याधि, भूख, प्यास, भय, कलह, इच्छा, बुढ़ापा, निद्रा, प्रेम, क्रोध, अभिमान और शोक—ये सब शरीर को लगते हैं इसका आत्मा से कोई लेना देना नहीं है। भूख और प्यास प्राणों को लगती है। शोक और मोह मन में होता है। तुम राजा हो और मैं प्रजा। प्रजा का काम है वो राजा की आज्ञा का पालन करे लेकिन तुम सदा के लिए राजा नही रहोगे और मैं सदा के लिए प्रजा नही रहूँगा? तुम कह रहे हो की मैं पागल हूँ और मेरा इलाज तुम कर दोगे। मुझे शिक्षा देना ऐसे होगा जैसे कोई किसी वस्तु को पीस दे और तुम आकर उसे दोबारा पीस दो। मैं तो पहले ही पिसा हुआ हूँ तू मुझे क्या पीसेगा?
जब जड भरत यथार्थ तत्व का उपदेश करते हुए इतना उत्तर देकर मौन हो गये। फिर राजा ने सोचा ये कोई ज्ञानी पुरुष है और राजा पालकी से उतर पड़ा। उसका राजमद सर्वथा दूर हो गया और वह उनके चरणों में सिर रखकर अपना अपराध क्षमा कराते हुए इस प्रकार कहने लगा।
आप कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं? क्या आप दत्तात्रेय आदि अवधूतों में से कोई हैं ? आप किसके पुत्र हैं, आपका कहाँ जन्म हुआ है और यहाँ कैसे आपका पदार्पण हुआ है ? यदि आप हमारा कल्याण करने पधारे हैं, तो क्या आप साक्षात् सत्वमूर्ति भगवान् कपिलजी ही तो नहीं हैं ? मुझे इन्द्र के वज्र का कोई डर नहीं है, न मैं महादेवजी के त्रिशूल से डरता हूँ और न यमराज के दण्ड से। मुझे अग्नि, सूर्य, चन्द्र, वायु और कुबेर के अस्त्र-शस्त्रों का भी कोई भय नहीं है; परन्तु मैं ब्राम्हण कुल के अपमान से बहुत ही डरता हूँ। मेरे द्वारा किसी ब्राह्मण का अपमान न हो जाये। आप कृपा करके बताइये की आप कौन हैं। मैंने आप जैसे संत-पुरुष का अपमान किया। मैंने आपकी अवज्ञा की। अब आप ऐसी कृपा दृष्टि कीजिये, जिससे इस साधु-अवज्ञा रूप अपराध से मैं मुक्त हो जाऊँ।
जड़ भरत का राजा रहूगण को ज्ञान देना –
जड़भरत कहते हैं की यह मायामय मन संसार चक्र में छलने वाला है। जब तक यह मन रहता है, तभी तक जाग्रत् और स्वप्नावस्था का व्यवहार प्रकाशित होकर जीव का दृश्य बनता है। इसलिये पण्डितजन मन को ही संसार में बंधने का और मोक्ष पद का कारण बताते हैं । विषयासक्त मन जीव को संसार-संकट में डाल देता है, विषयहीन होने पर वही उसे शान्तिमय मोक्ष पद प्राप्त करा देता है। जिस तरह घी से भीगी हुई बत्ती को खाने वाले दीपक से तो धुंएँ वाली शिखा निकलती रहती है और जब घी समाप्त हो जाता है—उसी प्रकार विषय और कर्मों से आसक्त हुआ मन तरह-तरह की वृत्तियों का आश्रय लिये रहता है और इनसे मुक्त होने पर वह अपने तत्व में लीन हो जाता है।
पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक अहंकार—ये ग्यारह मन की वृत्तियाँ हैं तथा पाँच प्रकार के कर्म, पाँच तन्मात्र और एक शरीर—ये ग्यारह उनके आधारभूत विषय कहे जाते हैं ।
गन्ध, रूप, स्पर्श, रस और शब्द—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं; मल त्याग, सम्भोग, गमन, भाषण और लेना-देना आदि व्यापार—ये पाँच कर्मेन्द्रियों के विषय हैं तथा शरीर को ‘यह मेरा है’ इस प्रकार स्वीकार करना अहंकार का विषय है।
कुछ लोग अहंकार को मन की बारहवीं वृत्ति और उसके आश्रय शरीर को बारहवाँ विषय मानते हैं । ये मन की ग्यारह वृतियाँ द्रव्य (विषय), स्वभाव, आशय (संस्कार), कर्म और काल के द्वारा सैकड़ों, हजारों और करोड़ों भेदों में परिणत हो जाती हैं। किन्तु इनकी सत्ता क्षेत्रज्ञ आत्मा की सत्ता से ही है, स्वतः या परस्पर मिलकर नहीं है। जब तक मनुष्य ज्ञान के द्वारा इस माया का तिरस्कार कर, सबकी आसक्ति छोड़कर तथा काम-क्रोधादि छः शत्रुओं को जीतकर आत्मतत्व को नहीं जान लेता और जब तक वह आत्मा के उपाधि रूप मन को संसार-दुःख का क्षेत्र नहीं समझता, तब तक वह इस लोक में यों ही भटकता रहता है, क्योंकि चित्त उसके शोक, मोह, रोग, राग, लोभ और वैर आदि के संस्कार तथा ममता की वृद्धि करता रहता है। यह मन ही तुम्हारा बड़ा बलवान् शत्रु है। तुम्हारी उपेक्षा करने से इसकी शक्ति और भी बढ़ गयी है। इसलिये तुम सावधान होकर श्रीगुरु और हरि के चरणों की उपासना के अस्त्र से इसे मार डालो।
राजा रहूगण ने कहा-“मैं आपको नमस्कार करता हूँ।” जिस प्रकार ज्वर से पीड़ित रोगी के लिये मीठी ओषधि और धूप से तपे हुए पुरुष के लिये शीतल जल अमृत तुल्य होता है, उसी प्रकार मेरे लिये, जिसकी विवेक बुद्धि को देहाभिमान रूप विषैले सर्प ने डस लिया है, आपके वचन अमृतमय ओषधि के समान हैं।
आपने कहा था की भार नाम की अगर कोई चीज है तो उसका सम्बन्ध केवल देह तक ही सिमित है उसका आत्मा से कोई सम्बन्ध नही है। ये बात मेरी समझ में नही आई है। आपके ऊपर पालकी रखी हुई हुई है तो आपको भार लगेगा , और यदि आपके शरीर को भार का अनुभव होगा तो उसे आत्मा भी अनुभव करती होगी ना?
फिर राजा कहता है की तुमने कहा की सुख दुःख का अनुभव आत्मा नही करती है लेकिन मैंने युद्ध में खुद को थकते हुए देखा है। मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ। एक पात्र(बर्तन) है, बर्तन में पानी है और पानी में चावल है। अगर हम उसे अग्नि पर चढ़ाएंगे तो पहले अग्नि पात्र को गर्म करेगी फिर पानी गर्म होगा और फिर चावल गल जायेगा। क्योकि सभी एक दूसरे के संपर्क में है। आप समझे की इस देह का सम्बन्ध इन्द्रियों से है, इन्द्रियों का सम्बन्ध मन से है, और मन का सम्बन्ध बुद्धि और बुद्धि का सम्बन्ध आत्मा से है। एक दूसरे के संपर्क होने के कारण सुख दुःख का अनुभव आत्मा भी करती होगी ना?
राजा की इस बात को सुनकर जड़भरत हँसे और बोले-“राजन! एक ओर तू तत्व को जानना चाहता है और दूसरी ओर इस व्यवहार जगत को सत्य मान बैठा है। जैसे तूने अपनी बात रखी है , इसी तरह से मैं भी अपनी बात रख देता हूँ। तूने कहा की एक बर्तन है, बर्तन में जल है, जल में चावल हैं, और जब हम अग्नि पर उसे चढ़ाते हैं तो पहले अग्नि उस पात्र को गर्म करती है, फिर पानी गर्म होता है और फिर चावल गल जाते हैं। लेकिन अगर उस पात्र में चावल की जगह एक पत्थर का टुकड़ा डाल दें तो क्या वह अग्नि उस पत्थर को जल सकती है? गला सकती है?
राजा ने कहा की – नही जल सकती है और ना ही गला सकती है।
जड़भरतजी बोले इसी प्रकार आत्मा भी निर्लेप है, आत्मा को कोई सुख दुःख का अनुभव नही होता। ना ही इस पर जल का प्रभाव है और ना ही अग्नि का। ना अस्त्र का और ना ही शस्त्र का। इस आत्मा का वस्त्र ये देह है।
इस प्रकार जड़भरत जी ने बड़ा ही सुंदर ज्ञान राजा रहूगण को दिया है। इसके बाद भरत जी ने भवाटवी का वर्णन किया है जिसका श्रीमद भगवत पुराण में सुंदर वर्णन है।
अंत में भरत जी कहते हैं की अपने मन को संसार से हटाकर भगवान के चरणों में लगाओ। ये मन काम, क्रोध, मोह, मद, लोभ, परिवार और विषयों आदि में फसाये रहता है। अब तुम प्रजा को दण्ड देने का काम छोड़कर समस्त प्राणियों के सुह्रद् हो जाओ और विषयों में अनासक्त होकर भगवत्सेवा से तीक्ष्ण किया हुआ ज्ञान रूप खड्ग लेकर इस मार्ग को पार कर लो ।
राजा रहूगण ने कहा- : आपके चरणकमलों की रज का सेवन करने से जिनके सारे पाप-ताप नष्ट हो गये हैं, उन महानुभावों को भगवान् विशुद्ध भक्ति प्राप्त होना कोई विचित्र बात नहीं है। मेरा तो आपके दो घड़ी के सत्संग से ही सारा कुतर्क मूलक अज्ञान नष्ट हो गया है । इस तरह से जड़ भरत ने इन्हें ज्ञान दिया । और राजा रहूगण उस ज्ञान को पाकर इस प्रकार तृप्त हो गए जैसे कोई निर्धन धन पाकर तृप्त हो जाता है ।
श्रीमद भागवत महापुराण से ऐसी ही अन्य पौराणिक सत्य कहानियो के लिए यहाँ देखे।
Source –
श्रीमद्भागवत पुराण, पंचम स्कन्ध, चतुर्थ अध्याय
श्रीमद्भागवत पुराण, पंचम स्कन्ध, सप्तम अध्याय
श्रीमद्भागवत पुराण, पंचम स्कन्ध, अष्टम अध्याय
श्रीमद्भागवत पुराण, पंचम स्कन्ध, नवम अध्याय
FAQs –
ऋषि जड़ भरत कौन थे?
श्री ऋषभ देव जी के 100 पुत्र थे जिनमें सबसे बड़े भरत जी थे
जदभारत कौन है?
श्री ऋषभ देव जी के 100 पुत्र थे जिनमें सबसे बड़े भरत जी थे