सूतजी ने कहा – शौनक! म्लेच्छों की विजय होने पर कलि ने उन्हें सम्मानित किया। तदनन्तर सभी दैत्यगण अनेकों जलयानों का निर्माणकर हरिखण्ड में आये। उस समय हरिखण्ड में भी मनुष्य देवताओं के समान महाबलशाली थे। उन लोगों ने दैत्यों के साथ भयंकर अस्त्र-शस्त्रों से युद्ध किया, किंतु दस वर्ष के बाद वे सभी दैत्यों के मायायुद्ध से पराजित हो गये। तब वे हरिखण्ड निवासी महेन्द्र की शरण में गये। भगवान्‌ शक्र ने विश्वकर्मा से कहा – तात! सप्त-सिन्धुओं में तुम्हारे द्वारा विरचित भ्रमि नामक यन्त्र अवस्थित है। उस यन्त्र के प्रभाव से मानव एक खण्ड से दूसरे खण्ड में नहीं जा पाते; किंतु मायावी मय ने उसे भ्रष्ट कर दिया है।

फलत: सातों द्वीपों में मेरे शत्रु म्लेछछकगण सब जगह जाने लगे हैं। इसलिये आपके द्वारा सम्पादित जो मर्यादा है, उससे हम लोगों की आप रक्षा करें।

यह सुनकर विश्वकर्मा ने एक दिव्य भ्रमि यन्त्र का निर्माण किया। उस यन्त्र के प्रभाव से सब भ्रमित हो गये। भ्रमि-यन्त्र से म्लेच्छविनाशक एक महावायु उत्पन्न हुआ। उस महावायु से एक पुत्र उत्पन्न हुआ जो वात्य कहलाया। ज्ञानमय उस वात्य ने दैत्यों, यक्षों और पिशाचों को जीतकर त्रैवर्णिक द्विजों का सत्कार किया। महाबली वात्य ने म्लेच्छों को उनके वर्ण में प्रतिष्ठित किया और पचास वर्षो तक पृथ्वी पर ‘मण्डलीक’ पद को सुशोभित किया। उसके वंश में कलियुग में हजारों राजा हुए। जिन्होंने सोलह हजार वर्ष तक राज्य किया और वे सभी बायु के उपासक हुए। दुःखित हो कलि ने पुनः दैत्ययाज बलि के पास जाकर वात्यवंश का सम्पूर्ण वृत्तान्त बतलाया, तब बलि ने अपने मित्र कलि के साथ वामन भगवान के पास आकर नमस्कार कर कहा–‘हे सुरोत्तम! मुझ पर प्रसन्न होकर आपने मेरे लिये कलि को बनाया है, परंतु वह कलि वात्य-द्विजों के द्वारा तिरस्कृत कर दिया गया है। प्रभो! कलियुग के एक चरण व्यतीत होने में थोड़ा ही समय शेष है। इतने समय में मेरी अपेक्षा देवों का अधिक राज्य रहा। मैंने तो देवेन्द्र की माया के कारण पृथ्वी का अधिकार छोड़ दिया है। अत: आप मेरे मित्र इस कलि की रक्षा करें!

तब भगवान्‌ वामन हरि अपने पूर्वार्ध अंश से यमुना तट निवासी काम शर्मा नामक ब्राह्मण के घर उसकी पत्नी देवहूति से दो दिव्य पुत्रों के रूप में उत्पन्न हुए। एक का नाम था भोग सिंह और दूसरे का नाम था केलि सिंह। वे वात्य से उत्पन्न राजाओं को जीतकर कलपक्षेत्र में आये। मयनिर्मित रह:क्रीडावती नाम की नगरी में रहकर बलवान्‌ उन दोनों ने कलि की धुरी को धारण किया। कालान्तर में कलियुग में विपुल वर्ण संकरों की सृष्टि हो गयी। वृक्ष पर के पक्षी के समान इनकी प्रभूत वृद्धि हो गयी। दो हजार वर्ष के बाद इन्होंने पूर्ववर्ती मानवों को समाप्त कर दिया। उस समय पृथ्वी पर कलिका द्वितीय चरण आ गया। इस समय किह्नरों की वार्ता भूतल पर वर्तमान है। वे दैत्यमय मनुष्य ढाई हाथ मात्र ऊँचे हो गये और उनकी अवस्था चालीस वर्ष हुई तथा वे पक्षियों के समान कर्महीन हो गये। कलि के द्वितीय चरण के अन्त में न विवाह होगा, न राजा रहेंगे, न कोई उद्यमशील रहेंगे और न कर्मकर्ता रहेंगे। भोगसिंह और केलिसिंह के वंशज सवा लाख वर्ष तक पृथ्वी में रहेंगे।
इसलिये हे मुनिगणो! आप सबको मेरे साथ कृष्णचैतन्य के पास चलना चाहिये।

व्यासजी बोले – हे मनो! विशालापुर निवासी वे सभी मुनिगण प्रसन्नचित्त होकर यज्ञांश के पास जायँगे और उन्हें प्रणाम कर इन्द्रलोक जाने की अनुमति माँगेंगे। तब यज्ञांश चैतन्य, आहद , योगी गोरख, शंकर आदि रुद्रांशों और राजा भर्तृहरि आदि अपने सभी शिष्यों तथा अन्य योगिजनों और विशालापुर निवासी मुनियों के साथ विमानपर आछरूढ़ होकर देवलोक चले जायँगे।

तब कलि के द्वितीय चरण में वामनांश से उद्धृत भोग सिंह और द्वितीय चरण में वामनांश से उद्धृत भोगसिंह और केलिसिंह योगमार्ग का अवलम्बन कर कल्पक्षेत्र में स्थित होंगे और दैत्यवर्ग की अभिवृद्धि करेंगे।

कलि के तृतीय चरण के आने पर किन्नरगण धीरे-धीरे पृथ्वी पर विनष्ट हो जायँगे। कलियुग के तृतीय चरण के छब्बीस हजार वर्ष व्यतीत होने पर रुद्र की आज्ञा से भूज़-ऋषि सौरभी नाम की पत्नी से महाबलवान्‌ कौलकल्प नामक मनुष्यों को उत्पन्न करेंगे जो सभी किन्नरों का भक्षण करने वाले होंगे। उस समय कलि में उनकी उम्र छब्बीस वर्ष की होगी। भयभीत किन्नर वामनांश की शरण में जायँगे और तब भोगसिंह तथा केलिसिंहके साथ कौलकल्पों का घोर युद्ध होगा। दस वर्ष युद्ध करने के पश्चात्‌ भोगसिंह आदि सब पराजित हो जायँगे। दैत्यों के साथ वामनांश ( भोगसिंह, केलिसिंह) भी पातालमें चले जायँगे। घोर कलियुग में भृड़-ऋषि की भयंकर सृष्टि होगी। माता-बहिन, पुत्री आदि से वे मनुष्य पशुवत्‌ व्यवहार करेंगे। कामान्ध होकर वे सब बहुत पुत्रों को उत्पन्न करेंगे। कलि के तृतीय चरण में वे सृष्टियाँ भी भयंकर तिर्यक्‌-योनि को प्राप्त कर नष्ट हो जायँगी।

कलि के चतुर्थ चरण में मनुष्य की आयु बीस वर्ष की होगी और वे मरकर नरक जायँगे। उस समय जलीय और वन्य जीवों के समान वे कन्द- मूल-फल खाने वाले हो जायँगे। जो तामि्न आदि भयंकर नरक प्रसिद्ध हैं, वे सब कर्मभूमि में उत्पन्न मानवों से भरे जायँगे। कलियुग के चतुर्थ चरण में उत्पन्न मनुष्यों के द्वार इक्कीसों नरकों में अजीर्णता आ जायगी–नरक मनुष्यों से भर जायँगे। तब नरक धर्मराज के पास जाकर कहेंगे, कि पापियों से हमारे स्थान भर गये हैं। हे सुरोत्तम! जिस तरह हम लोग प्राकृतरूप में हो जायँ आप वैसा उपाय करें। यह सुनकर धर्मराज चित्रगुप्त के साथ कलियुग के संध्याकाल में ब्रह्मा के पास जायँगे और परमेष्ठी पितामह उनके साथ क्षीरसागर जायँगे तथा वहाँ जगन्नाथ देवाधिदेव वृषाकपि की पूजा कर सांख्यशास्त्रमय स्तोत्रों से स्तुति करेंगे एवं रक्षा की
प्रार्थना करेंगे।

कल्कि भगवान् का जन्म –

इस पर वे कहेंगे – देवगणो! लोक कल्याण के लिये यह कश्यप सम्भल ग्राम में जन्म लेगा और वहाँ इसका नाम होगा विष्णुयशा। इसकी पत्नी का नाम होगा विष्णुकीर्ति | विष्णुयशा कृष्णलीला के ग्रन्थ मनुष्यों को सुनायेगा किंतु वे महाधूर्त नारकीय प्राणी उसे भयंकर दृढ़ बन्धन में बाँधकर कारागार में डाल देंगे, तब विष्णुकी्ति से संसार का कल्याण करने वाले पूर्ण भगवान्‌ नारायण मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन अन्धकार पूर्ण रात्रि में कल्किरूप में उत्पन्न होंगे तथा ब्रह्माण्ड के कल्याण के लिये सभी देवताओं का भी प्रादुर्भाव होगा और वे सभी देवता तथा ग्रह परमेश्वर की स्तुति करेंगे। तब भगवान्‌ कल्कि उन्हें कल्पों, मन्वन्तरों, अवतार-कथाओं, सनातन राधा-कृष्ण की महिमा तथा कर्म भूमि और सभी लोकों एवं ग्रहों की स्थिति को बतलायेंगे। इसी प्रसंग में श्वेतवाराह कल्प की कथा भी कहेंगे । तदनन्तर प्रसन्न होकर पुन: प्रणाम कर वे सभी देवगण अपने-अपने स्थानों को चले जायँगे।

व्यास जी ने कहा – तदनन्तर पुराण पुरुष से उत्पन्न भगवान्‌ कल्कि खड्ग, कवच और ढाल धारण कर दिव्य अश्वपर आरूढ हो दैत्यस्वरूप म्लेच्छों को मारकर योग मार्ग का आश्रय लेंगे और सोलह हजार वर्षो तंक उनकी योगाग्रि से तपायी गयी कर्मभूमि भस्मीभूत होकर निर्जीव हो जायगी। अन्तर प्रलयंकर मेघ उत्पन्न होकर प्रलयकारी वृष्टि करेंगे और भूमि उस जल में निमग्र हो जायगी। उस समय घोर कलियुग बलि के पास चला जायगा। कलियुग के जाने के बाद भगवान्‌ हरि पुन: कर्मभूमि को रमणीय स्थलमयी करके यज्ञॉं से देविं का यजन करेंगे। यज्ञ भाग ग्रहण करके वे देवगण शक्ति सम्पन्न हो जायँगे और वैवस्वत मनु के पास जाकर सम्पूर्ण वृत्तान्त कहेंगे।

तदनन्तर कल्कि के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जानु से वैश्य और पैर से शूद्र वर्ण उत्पन्न होंगे। ये ब्राह्मणादि क्रमश: गौर, रक्त, पीत एवं श्याम वर्ण के होंगे और देवी से शक्ति प्राप्त करके अनेक पुत्र उत्पन्न करेंगे। उस समय मनुष्य जाति-धर्म का आश्रय लेकर देवताओं का यजन करेंगे । तब धीमान्‌ वैवस्वत विष्णुरूप उस कल्कि हरि को नमस्कार कर उनकी आज्ञा से अयोध्या में राजपद ग्रहण करेंगे। उनकी इच्छा से जो पुत्र उत्पन्न होगा उसका नाम होगा इक्ष्वाकु। राजा इक्ष्वाकु पिता वैवस्वत के राज्य को प्राप्त कर दिव्य सौ वर्ष की आयु प्राप्त कर अन्त में शरीर का परित्याग कर देंगे।

जब भगवान्‌ कल्कि ब्रह्मसत्र करेंगे, तब अंगो के साथ चारों वेद मूर्तिमान्‌ हो जायँगे। अष्टादश पुराणों के साथ वे वहाँ आयेंगे और वे सभी पुराणपुरुष के अंशभूत कल्कि की स्तुति करेंगे।


स्रोत – श्रीभविष्यपुराण, प्रतिसर्ग पर्व, चतुर्थ खंड
दंडवत आभार – श्रीगीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा मुद्रित, पेज संख्या 379


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Last Update: January 14, 2025