मैंने आपकी कृपा से श्री रामचंद्रजी के पवित्र गुण समूहों को सुना और शांति प्राप्त की। हे प्रभो! अब मैं आपसे एक बात और पूछता हूँ। हे कृपासागर! मुझे समझाकर कहिए। संत मुनि, वेद और पुराण यह कहते हैं कि ज्ञान के समान दुर्लभ कुछ भी नहीं है। हे गोसाईं! वही ज्ञान मुनि ने आपसे कहा, परंतु आपने भक्ति के समान उसका आदर नहीं किया।
हे कृपा के धाम! हे प्रभो! ज्ञान और भक्ति में कितना अंतर है? यह सब मुझसे कहिए।
गरुड़जी के वचन सुनकर सुजान काकभुशुण्डिजी ने सुख माना और आदर के साथ कहा-भक्ति और ज्ञान में कुछ भी भेद नहीं है। दोनों ही संसार से उत्पन्न क्लेशों को हर लेते हैं। हे नाथ! मुनीश्वर इनमें कुछ अंतर बतलाते हैं। हे पक्षीश्रेष्ठ! उसे सावधान होकर सुनिए। हे हरि वाहन! सुनिए, ज्ञान, वैराग्य, योग, विज्ञान- ये सब पुरुष हैं। पुरुष का प्रताप सब प्रकार से प्रबल होता है। अबला (माया) स्वाभाविक ही निर्बल और जाति (जन्म) से ही जड़ (मूर्ख) होती है।
परंतु जो वैराग्यवान् और धीरबुद्धि पुरुष हैं वही स्त्री को त्याग सकते हैं, न कि वे कामी पुरुष, जो विषयों के वश में हैं (उनके गुलाम हैं) और श्री रघुवीर के चरणों से विमुख हैं। वे ज्ञान के भण्डार मुनि भी मृगनयनी (युवती स्त्री) के चंद्रमुख को देखकर विवश (उसके अधीन) हो जाते हैं। हे गरुड़जी! साक्षात् भगवान विष्णु की माया ही स्त्री रूप से प्रकट है। यहाँ मैं कुछ पक्षपात नहीं रखता। वेद, पुराण और संतों का मत (सिद्धांत) ही कहता हूँ।
हे गरुड़जी! यह अनुपम (विलक्षण) रीति है कि एक स्त्री के रूप पर दूसरी स्त्री मोहित नहीं होती। आप सुनिए, माया और भक्ति- ये दोनों ही स्त्री वर्ग की हैं, यह सब कोई जानते हैं। फिर श्री रघुवीर को भक्ति प्यारी है। माया बेचारी तो निश्चय ही नाचने वाली (नटिनी मात्र) है। श्री रघुनाथजी भक्ति के विशेष अनुकूल रहते हैं। इसी से माया उससे अत्यंत डरती रहती है। जिसके हृदय में उपमारहित और उपाधिरहित (विशुद्ध) रामभक्ति सदा बिना किसी बाधा (रोक-टोक) के बसती है। उसे देखकर माया सकुचा जाती है। उस पर वह अपनी प्रभुता कुछ भी नहीं कर (चला) सकती। ऐसा विचार कर ही जो विज्ञानी मुनि हैं, वे भी सब सुखों की खानि भक्ति की ही याचना करते हैं। श्री रघुनाथजी का यह रहस्य (गुप्त मर्म) जल्दी कोई भी नहीं जान पाता। श्री रघुनाथजी की कृपा से जो इसे जान जाता है, उसे स्वप्न में भी मोह नहीं होता।
हे सुचतुर गरुड़जी! ज्ञान और भक्ति का और भी भेद सुनिए, जिसके सुनने से श्री रामजी के चरणों में सदा अविच्छिन्न (एकतार) प्रेम हो जाता है।
हे तात! यह अकथनीय कहानी (वार्ता) सुनिए। यह समझते ही बनती है, कही नहीं जा सकती। जीव ईश्वर का अंश है। (अतएव) वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है।
हे गोसाईं ! वह माया के वशीभूत होकर तोते और वानर की भाँति अपने आप ही बँध गया। इस प्रकार जड़ और चेतन में ग्रंथि (गाँठ) पड़ गई। यद्यपि वह ग्रंथि मिथ्या ही है, तथापि उसके छूटने में कठिनता है। तभी से जीव संसारी (जन्मने-मरने वाला) हो गया। अब न तो गाँठ छूटती है और न वह सुखी होता है। वेदों और पुराणों ने बहुत से उपाय बतलाए हैं, पर वह (ग्रंथि) छूटती नहीं वरन अधिकाधिक उलझती ही जाती है। जीव के हृदय में अज्ञान रूपी अंधकार विशेष रूप से छा रहा है, इससे गाँठ देख ही नहीं पड़ती, छूटे तो कैसे? जब कभी ईश्वर ऐसा संयोग (जैसा आगे कहा जाता है) उपस्थित कर देते हैं तब भी कदाचित् ही वह (ग्रंथि) छूट पाती है।
श्री हरि की कृपा से यदि सात्विकी श्रद्धा रूपी सुंदर गो हृदय रूपी घर में आकर बस जाए, असंख्य जप, तप व्रत यम और नियमादि शुभ धर्म और आचार (आचरण), जो श्रुतियों ने कहे हैं। उन्हीं (धर्माचार रूपी) हरे तृणों (घास) को जब वह गो चरे और आस्तिक भाव रूपी छोटे बछड़े को पाकर वह पेन्हावे। निवृत्ति (सांसारिक विषयों से और प्रपंच से हटना) नोई (गो के दुहते समय पिछले पैर बाँधने की रस्सी) है, विश्वास (दूध दुहने का) बरतन है, निर्मल (निष्पाप) मन जो स्वयं अपना दास है। (अपने वश में है), दुहने वाला अहीर है।
हे भाई, इस प्रकार (धर्माचार में प्रवृत्त सात्विकी श्रद्धा रूपी गो से भाव, निवृत्ति और वश में किए हुए निर्मल मन की सहायता से) परम धर्ममय दूध दुहकर उसे निष्काम भाव रूपी अग्नि पर भली-भाँति औटावें। फिर क्षमा और संतोष रूपी हवा से उसे ठंडा करें और धैर्य तथा शम (मन का निग्रह) रूपी जामन देकर उसे जमावें।
तब मुदिता (प्रसन्नता) रूपी कमोरी में तत्व विचार रूपी मथानी से दम (इंद्रिय दमन) के आधार पर (दम रूपी खंभे आदि के सहारे) सत्य और सुंदर वाणी रूपी रस्सी लगाकर उसे मथें और मथकर तब उसमें से निर्मल, सुंदर और अत्यंत पवित्र वैराग्य रूपी मक्खन निकाल लें। तब योग रूपी अग्नि प्रकट करके उसमें समस्त शुभाशुभ कर्म रूपी ईंधन लगा दें (सब कर्मों को योग रूपी अग्नि में भस्म कर दें)। जब (वैराग्य रूपी मक्खन का) ममता रूपी मल, जल जाए, तब (बचे हुए) ज्ञान रूपी घी को (निश्चयात्मिका) बुद्धि से ठंडा करें। तब विज्ञान रूपिणी बुद्धि उस (ज्ञान रूपी) निर्मल घी को पाकर उससे चित्त रूपी दीए को भरकर, समता की दीवट बनाकर, उस पर उसे दृढ़तापूर्वक (जमाकर) रखें।
(जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति) तीनों अवस्थाएँ और (सत्त्व, रज और तम) तीनों गुण रूपी कपास से तुरीयावस्था रूपी रूई को निकालकर और फिर उसे सँवारकर उसकी सुंदर कड़ी बत्ती बनाएँ। इस प्रकार तेज की राशि विज्ञानमय दीपक को जलावें, जिसके समीप जाते ही मद आदि सब पतंगे जल जाएँ। ‘सोऽहमस्मि’ (वह ब्रह्म मैं हूँ) यह जो अखंड (तैलधारावत् कभी न टूटने वाली) वृत्ति है, वही (उस ज्ञानदीपक की) परम प्रचंड दीपशिखा (लौ) है। (इस प्रकार) जब आत्मानुभव के सुख का सुंदर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है और महान् बलवती अविद्या के परिवार मोह आदि का अपार अंधकार मिट जाता है। तब वही (विज्ञानरूपिणी) बुद्धि (आत्मानुभव रूप) प्रकाश को पाकर हृदय रूपी घर में बैठकर उस जड़ चेतन की गाँठ को खोलती है। यदि वह (विज्ञान रूपिणी बुद्धि) उस गाँठ को खोलने पावे, तब यह जीव कृतार्थ हो, परंतु हे पक्षीराज गरुड़जी! गाँठ खोलते हुए जानकर माया फिर अनेकों विघ्न करती है।
हे भाई! वह बहुत सी ऋद्धि-सिद्धियों को भेजती है, जो आकर बुद्धि को लोभ दिखाती हैं और वे ऋद्धि-सिद्धियाँ कल (कला), बल और छल करके समीप जाती और आँचल की वायु से उस ज्ञान रूपी दीपक को बुझा देती हैं। यदि बुद्धि बहुत ही सयानी हुई, तो वह उन (ऋद्धि-सिद्धियों) को अहितकर (हानिकर) समझकर उनकी ओर ताकती नहीं। इस प्रकार यदि माया के विघ्नों से बुद्धि को बाधा न हुई, तो फिर देवता उपाधि (विघ्न) करते हैं। इंद्रियों के द्वार हृदय रूपी घर के अनेकों झरोखे हैं। वहाँ-वहाँ (प्रत्येक झरोखे पर) देवता थाना किए (अड्डा जमाकर) बैठे हैं। ज्यों ही वे विषय रूपी हवा को आते देखते हैं, त्यों ही हठपूर्वक किवाड़ खोल देते हैं। सज्यों ही वह तेज हवा हृदय रूपी घर में जाती है, त्यों ही वह विज्ञान रूपी दीपक बुझ जाता है। गाँठ भी नहीं छूटी और वह (आत्मानुभव रूप) प्रकाश भी मिट गया। विषय रूपी हवा से बुद्धि व्याकुल हो गई (सारा किया-कराया चौपट हो गया)। इंद्रियों और उनके देवताओं को ज्ञान (स्वाभाविक ही) नहीं सुहाता, क्योंकि उनकी विषय-भोगों में सदा ही प्रीति रहती है और बुद्धि को भी विषय रूपी हवा ने बावली बना दिया। तब फिर (दोबारा) उस ज्ञान दीप को उसी प्रकार से कौन जलावे?
(इस प्रकार ज्ञान दीपक के बुझ जाने पर) तब फिर जीव अनेकों प्रकार से संसृति (जन्म-मरणादि) के क्लेश पाता है।
हे पक्षीराज! हरि की माया अत्यंत दुस्तर है, वह सहज ही में तरी नहीं जा सकती। ज्ञान कहने (समझाने) में कठिन, समझने में कठिन और साधने में भी कठिन है। यदि घुणाक्षर न्याय से (संयोगवश) कदाचित् यह ज्ञान हो भी जाए, तो फिर (उसे बचाए रखने में) अनेकों विघ्न हैं। ज्ञान का मार्ग कृपाण (दोधारी तलवार) की धार के समान है।
हे पक्षीराज! इस मार्ग से गिरते देर नहीं लगती। जो इस मार्ग को निर्विघ्न निबाह ले जाता है, वही कैवल्य (मोक्ष) रूप परमपद को प्राप्त करता है। संत, पुराण, वेद और (तंत्र आदि) शास्त्र (सब) यह कहते हैं कि कैवल्य रूप परमपद अत्यंत दुर्लभ है, किंतु हे गोसाईं! वही (अत्यंत दुर्लभ) मुक्ति श्री रामजी को भजने से बिना इच्छा किए भी जबर्दस्ती आ जाती है। जैसे स्थल के बिना जल नहीं रह सकता, चाहे कोई करोड़ों प्रकार के उपाय क्यों न करे। वैसे ही, हे पक्षीराज! सुनिए, मोक्षसुख भी श्री हरि की भक्ति को छोड़कर नहीं रह सकता। ऐसा विचार कर बुद्धिमान् हरि भक्त भक्ति पर लुभाए रहकर मुक्ति का तिरस्कार कर देते हैं। भक्ति करने से संसृति (जन्म-मृत्यु रूप संसार) की जड़ अविद्या बिना ही यंत्र और परिश्रम के (अपने आप) वैसे ही नष्ट हो जाती है। जैसे भोजन किया तो जाता है तृप्ति के लिए और उस भोजन को जठराग्नि अपने आप (बिना हमारी चेष्टा के) पचा डालती है, ऐसी सुगम और परम सुख देने वाली हरि भक्ति जिसे न सुहावे, ऐसा मूढ़ कौन होगा?
हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! मैं सेवक हूँ और भगवान् मेरे सेव्य (स्वामी) हैं, इस भाव के बिना संसार रूपी समुद्र से तरना नहीं हो सकता। ऐसा सिद्धांत विचारकर श्री रामचंद्रजी के चरण कमलों का भजन कीजिए जो चेतन को जड़ कर देता है और जड़ को चेतन कर देता है, ऐसे समर्थ श्री रघुनाथजी को जो जीव भजते हैं, वे धन्य हैं। मैंने ज्ञान का सिद्धांत समझाकर कहा। अब भक्ति रूपी मणि की प्रभुता (महिमा) सुनिए। श्री रामजी की भक्ति सुंदर चिंतामणि है।
हे गरुड़जी! यह जिसके हृदय के अंदर बसती है। वह दिन-रात (अपने आप ही) परम प्रकाश रूप रहता है। उसको दीपक, घी और बत्ती कुछ भी नहीं चाहिए। (इस प्रकार मणि का एक तो स्वाभाविक प्रकाश रहता है) फिर मोह रूपी दरिद्रता समीप नहीं आती (क्योंकि मणि स्वयं धनरूप है) और (तीसरे) लोभ रूपी हवा उस मणिमय दीप को बुझा नहीं सकती (क्योंकि मणि स्वयं प्रकाश रूप है, वह किसी दूसरे की सहायता से प्रकाश नहीं करती। (उसके प्रकाश से) अविद्या का प्रबल अंधकार मिट जाता है। मदादि पतंगों का सारा समूह हार जाता है। जिसके हृदय में भक्ति बसती है, काम, क्रोध और लोभ आदि दुष्ट तो उसके पास भी नहीं जाते। उसके लिए विष अमृत के समान और शत्रु मित्र हो जाता है। उस मणि के बिना कोई सुख नहीं पाता। बड़े-बड़े मानस रोग, जिनके वश होकर सब जीव दुःखी हो रहे हैं, उसको नहीं व्यापते।
श्री रामभक्ति रूपी मणि जिसके हृदय में बसती है, उसे स्वप्न में भी लेशमात्र दुःख नहीं होता। जगत में वे ही मनुष्य चतुरों के शिरोमणि हैं जो उस भक्ति रूपी मणि के लिए भली-भाँति यत्न करते हैं। यद्यपि वह मणि जगत् में प्रकट (प्रत्यक्ष) है, पर बिना श्री रामजी की कृपा के उसे कोई पा नहीं सकता। उसके पाने के उपाय भी सुगम ही हैं, पर अभागे मनुष्य उन्हें ठुकरा देते हैं। वेद-पुराण पवित्र पर्वत हैं। श्री रामजी की नाना प्रकार की कथाएँ उन पर्वतों में सुंदर खानें हैं। संत पुरुष (उनकी इन खानों के रहस्य को जानने वाले) मर्मी हैं और सुंदर बुद्धि (खोदने वाली) कुदाल है।
हे गरुड़जी! ज्ञान और वैराग्य ये दो उनके नेत्र हैं। जो प्राणी उसे प्रेम के साथ खोजता है, वह सब सुखों की खान इस भक्ति रूपी मणि को पा जाता है।
हे प्रभो! मेरे मन में तो ऐसा विश्वास है कि श्री रामजी के दास श्री रामजी से भी बढ़कर हैं। श्री रामचंद्रजी समुद्र हैं तो धीर संत पुरुष मेघ हैं। श्री हरि चंदन के वृक्ष हैं तो संत पवन हैं। सब साधनों का फल सुंदर हरि भक्ति ही है। उसे संत के बिना किसी ने नहीं पाया। ऐसा विचार कर जो भी संतों का संग करता है, हे गरुड़जी उसके लिए श्री रामजी की भक्ति सुलभ हो जाती है। ब्रह्म (वेद) समुद्र है, ज्ञान मंदराचल है और संत देवता हैं, जो उस समुद्र को मथकर कथा रूपी अमृत निकालते हैं, जिसमें भक्ति रूपी मधुरता बसी रहती है। वैराग्य रूपी ढाल से अपने को बचाते हुए और ज्ञान रूपी तलवार से मद, लोभ और मोह रूपी वैरियों को मारकर जो विजय प्राप्त करती है, वह हरि भक्ति ही है।
हे पक्षीराज! इसे विचार कर देखिए।
पक्षीराज गरुड़जी फिर प्रेम सहित बोले- हे कृपालु! यदि मुझ पर आपका प्रेम है, तो हे नाथ! मुझे अपना सेवक जानकर मेरे सात प्रश्नों के उत्तर बखान कर कहिए।
हे नाथ! हे धीर बुद्धि! पहले तो यह बताइए कि –
- सबसे दुर्लभ कौन सा शरीर है?
- फिर सबसे बड़ा दुःख कौन है?
- और सबसे बड़ा सुख कौन है, यह भी विचार कर संक्षेप में ही कहिए।
- संत और असंत का मर्म (भेद) आप जानते हैं, उनके सहज स्वभाव का वर्णन कीजिए?
- फिर कहिए कि श्रुतियों में प्रसिद्ध सबसे महान् पुण्य कौन सा है?
- और सबसे महा भयंकर पाप कौन है?
- फिर मानस रोगों को समझाकर कहिए। आप सर्वज्ञ हैं और मुझ पर आपकी कृपा भी बहुत है।
स्रोत – श्रीतुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस, उत्तरकाण्ड
दंडवत आभार – श्रीगीताप्रेस गोरखपुर, श्रीरामचरितमानस