सम्पूर्ण रामायण पॉडकास्ट 1 में आपने जाना – कि शिव जी और माता सती ऋषि अगस्त्य मुनि के आश्रम में गए, वहां उन्होंने श्री राम की कथा सुनी, श्रीहरि की भक्ति का रहस्य उन्होंने ऋषि को बताया और फिर वे वापस अपने घर कैलाश के लिए निकल पड़े अब आगे सती का भ्रम

श्रीरघुनाथजी के गुणों की कथाएँ कहते-सुनते कुछ दिनों तक शिवजी वहाँ रहे। फिर मुनि से विदा माँगकर शिव जी दक्षकुमारी सती जी के साथ घर ( कैलास ) को चले।

उन्हीं दिनों पृथ्वी का भार उतारने के लिये श्रीहरि ने रघुवंश में अवतार लिया था। वे अविनाशी भगवान्‌ उस समय पिता के वचन से राज्य का त्याग करके तपस्वी या साधुवेश में दण्डकवन में विचर रहे थे। शिवजी हृदय में विचारते जा रहे थे कि भगवान्‌ के दर्शन मुझे किस प्रकार हों। प्रभु ने गुप्तरूप से अवतार लिया है, मेरे जाने से सब लोग जान जायँगे। श्रीशड्डरजी के हृदय में इस बात को लेकर बड़ी खलबली उत्पन्न हो गयी, परन्तु सती जी इस भेद को नहीं जानती थीं। शिवजी के मन में भेद खुलने का डर था, परन्तु दर्शन के लोभ से उनके नेत्र ललचा रहे थे।

रावण ने ब्रह्माजी से अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से माँगी थी। ब्रह्माजी के वचनों को प्रभु सत्य करना चाहते हैं। मैं जो पास नहीं जाता हूँ तो बड़ा पछतावा रह जायगा। इस प्रकार शिव जी विचार करते थे, परन्तु कोई भी युक्ति ठीक नहीं बैठती थी। इस प्रकार महादेव जी चिन्ता के वश हो गये। उसी समय नीच राबण ने जाकर मारीच को साथ लिया और वह मारीच तुरंत कपटमृग बन गया। मूर्ख रावण ने छल करके सीताजी को हर लिया। उसे श्रीरामचन्द्र जी के वास्तविक प्रभाव का कुछ भी पता न था। मृग को मारकर भाई लक्ष्मण सहित श्री हरि आश्रम में आये और उसे खाली देखकर अर्थात्‌ वहाँ सीताजी को न पाकर उनके नेत्रों में आँसू भर आये। श्रीरघुनाथ जी मनुष्यों की भाँति विरह से व्याकुल हैं और दोनों भाई वन में सीता को खोजते हुए फिर रहे हैं। जिनके कभी कोई संयोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरह का दुःख देखा गया।

श्रीरघुनाथ जी का चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं। जो मन्दबुद्द्धि हैं, वे तो विशेष रूप से मोह के वश होकर हृदय में कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते हैं।

श्री शिवजी ने उसी अवसर पर श्रीरामजी को देखा और उनके हृदय में बहुत भारी आनन्द उत्पन्न हुआ। उन शोभा के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी को शिवजी ने नेत्र भरकर देखा, परन्तु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया। “जगत्‌ को पवित्र करने वाले सच्चिदानंद की जय हो”, इस प्रकार कहकर कामदेव का नाश करने वाले श्री शिवजी चल पड़े। कृपानिधान शिवजी बार-बार आनन्द से पुलकित होते हुए सतीजी के साथ चले जा रहे थे।

श्री शिवमहापुराण में वर्णित –

तीनों लोकों में विचरण करने वाले, लीला विशारद भगवान्‌ रुद्र सती के | साथ वृषभपर आरूढ़ हो पृथ्वीपर भ्रमण कर रहे थे। सागर और आकाश में घूमते-घूमते दण्डकारण्यों में आकर सत्य प्रतिज्ञा वाले वे प्रभु सती को वहाँ की शोभा दिखाने लगे। वहाँ उन्होंने लक्ष्मण सहित श्रीराम को देखा, जो रावण द्वारा बलपूर्वक हरी गयी अपनी प्रिया पत्नी सीता की खोज कर रहे थे।

वे ‘हा सीते!’

इस प्रकार उच्च स्वर से पुकार रहे थे, जहाँ तहाँ देख रहे थे और बार-बार रो रहे थे, उनके मन में विरह का आवेश छा गया था। वे उनकी प्राप्ति की इच्छा कर रहे थे, मन में उनकी दशा का विचार कर रहे थे, वृक्ष आदि से उनके विषयों पूछ रहे थे, उनकी बुद्धि नष्ट हो गयी थी, वे लज्जा से रहित हो गये थे और शोक से ‘विह्लल थे। वे सूर्य वंश में उत्पन्न, वीर, भूपाल, दशरथ नन्दन भरताग्रज थे। आनन्द्रहित होने के कारण उनकी
कान्ति फीकी पड़ गयी थी।

उस समय उदार चेता भगवान्‌ शंकर ने लक्ष्मण के साथ वन में घूमते हुए माता कैकेयी के वरों के अधीन उन राम को बड़ी प्रसन्नता के साथ प्रणाम किया और जय-जयकार कर चल दिये।

मोह में डालने वाली भगवान्‌ शिव की ऐसी लीला कों देखकर सती को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे उनकी माया से मोहित हो उनसे इस प्रकार कहने लगीं –

सती बोलीं – हे देवदेव! हे परब्रह्म! हे सर्वेश ! हे परमेश्वर ! ब्रह्मा, विष्णु आदि सब देवता आपकी ही सेवा सदा करते रहते हैं । आप ही सबके द्वारा प्रणाम करने योग्य हैं। सबको आपका ही सर्वदा सेवन और ध्यान करना चाहिये। वेदान्त शास्त्र के द्वारा यत्नपूर्वक जानने-योग्य निर्विकार तथा परमप्रभु आप ही हैं।

हे नाथ! ये दोनों पुरुष कौन हैं?

ये आकृति विरह-व्यथा से तो व्याकुल दिखायी पड़ रही है। ये दोनों धनुर्धर वीर वन में विचरण करते हुए दुःख के भागी और दीन हो रहे हैं। उन दोनों में नीलकमल के समान ज्येष्ठ पुरुष को देखकर किस कारण से आप आनन्दविभोर हो उठे और भक्त की भाँति अत्यन्त प्रसन्न चित्त हो गये?

हे स्वामिन्‌! हे शंकर! आप मेरे संशय को दूर कीजिये। हे प्रभो! एक स्वामी अपने सेवक को प्रणाम करे – यह उचित नहीं जान पड़ता?

ब्रह्मा जी नारद जी से कहते है कि – कल्याणमयी परमेश्वरी आदि शक्ति सती देवी ने शिव की माया के वशीभूत होकर जब भगवान‌ शिव से इस प्रकार पूछा। तब सती की यह बात सुनकर लीला करने में प्रवीण परमेश्वर शंकर जी हँसकर सती से कहने लगे –

परमेश्वर बोले – हे देवि! हे सति! सुनो, मैं प्रसन्नतापूर्वक सत्य बात कह रहा हूँ। इसमें किसी प्रकार का छल नहीं है। वरदान के प्रभाव से ही मैंने इन्हें आदरपूर्वक प्रणाम किया है। हे देवि! ये दोनों भाई वीरों द्वारा सम्मानित हैं, इनके नाम श्रीराम और लक्ष्मण हैं, ये सूर्यवंश में उत्पन्न परम बुद्धिमान हैं और राजा दशरथ के पुत्र हैं। इनमें जो गौरवर्ण के छोटे भाई हैं, वे शेष के अंश हैं, उनका नाम लक्ष्मण है। इनमें ज्येष्ठ भाई का नाम श्रीराम है। ये भगवान‌ विष्णु के पूर्ण अंश तथा उपद्रव रहित हैं। ये साधु पुरुषों की रक्षा और हम लोगों के कल्याण के लिये इस पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं। इतना कहकर सृष्टि करने वाले भगवान‌ शम्भु चुप हो गये।

इस प्रकार शिव का वचन सुनकर भी विश्वास नहीं हुआ; क्योंकि शिव की माया, वही तीनों लोकॉ को मोहित किये रहती है। सती के मन में मेरी बात पर विश्वास नहीं है, ऐसा जानकर लीला विशारद सनातन, प्रभु ये वचन कहने लगे –

शिवजी बोले – है देवी! मेरी बात सुने, यदि तुम्हारे मन को मेरे कथन पर विश्वास नहीं होता है, तो तुम वहाँ जाकर अपनी ही बुद्धि से श्रीराम की परीक्षा स्वयं कर लो ।

हे सति ! हे प्रिये ! जिस प्रकार तुम्हारा भ्रम दूर हो, वैसा ही तुम करो । तुम वहाँ जाकर परीक्षा करो, तब तक मैं इस वट्वृक्ष के नीचे बैठा हूँ।

भगवान्‌ शिव की आज्ञा से ईश्वरी सती वहाँ जाकर सोचने लगीं कि मैं वनचारी राम की कैसे परीक्षा करूँ। मैं सीता का रूप धारण करके राम के पास चलूँ। यदि राम साक्षात विष्णु हैं, तो सब कुछ जान लेंगे, अन्यथा वे मुझे नहीं पहचानेंगे।

इस प्रकार विचार करके मोह में पड़ी हुई वे सती सीता का रूप धारणकर श्रीराम के पास उनकी परीक्षा लेने के लिये गयीं। सती को सीता के रूप में देखकर शिव-नाम का जप करते हुए रघुकुल श्रेष्ठ श्रीराम सब कुछ जानकर उन्हें प्रणाम करके हँसकर कहने लगे-

श्रीराम बोले – हे सति! आपकों नमस्कार है, आप प्रेम पूर्वक बताइये कि शिवजी कहाँ गये हैं, आप पति के बिना अकेली ही इस वन में क्यों आयी हैं?

हे सति! आपने अपना रूप त्यागकर किसलिये यह रूप धारण किया है?

हे देवि! मुझ पर कृपा करके इसका कारण बताइये?

रामजी की यह बात सुनकर सती उस समय आश्चर्यचकित हो गयीं । वे शिवजी की कहीं हुई बात का स्मरण करके और उसे सत्य समझकर बहुत लज्जित हुईं । श्रीराम को साक्षात्‌ विष्णु जानकर अपना रूप धारण करके मन-ही-मन शिव कें चरणों का चिन्तन कर प्रसन्नचित्त हुई सती ने उनसे इस प्रकार कहा —

हे रघुनन्दन ! स्वतन्त्र परमेश्वर प्रभु शिव मेरे तथा अपने पार्षदों के साथ पृथिवी पर भ्रमण करतें हुए इस वन में आये हुए हैं।

यहाँ उन्होंने सीता की खोज में लगे हुए, उनके विरह से युक्त और दुखी चित्त वाले आपको लक्ष्मण सहित देखा। वे आपको प्रणाम करके चले गये और आपकी वैष्णवी महिमा की प्रशंसा करते हुए अत्यन्त आनन्द के साथ वटवृक्ष के नीचे बैठे हैं।

वे आपके चतुर्भुज विष्णुरूप को देखे बिना ही आनन्दविभोर हो गये। इस निर्मल रूप को देखते हुए उन्हें बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ। शम्भु के वचन को सुनकर मेरे मन में भ्रान्ति उत्पन्न हो गयी। अत: हे राघव ! मैंने उनकी आज्ञा लेकर आपकी परीक्षा की है।

हे श्रीराम! अब मुझे ज्ञात हो गया कि आप साक्षात्‌ विष्णु हैं । मैंने आपकी सम्पूर्ण प्रभुता देख ली है। अब मेरा संशय दूर हो गया है, तो भी महामते! आप मेरी बात सुनें।

मेरे सामने यह सच-सच बतायें कि आप उन शिव के वन्दनीय कैसे हो गये ?

आप मुझे संशय रहित कीजिये और शीघ्र ही मुझे शान्ति प्रदान कीजिये।

ब्रह्मा जी नारद जी से कहते है कि – उनकी यह बात सुनकर श्रीराम के नेत्र प्रफुल्लित हो उठे। उन्होंने अपने प्रभु शिव का स्मरण किया। इससे उनके हृदय में अत्यधिक प्रेम उत्पन्न हो गया।

हे मुने! शिव की आज्ञा के बिना वे राघव सती के साथ भगवान् शिव के समीप नहीं गए। तथा मन ही मन उनकी महिमा का वर्णन करके सती से कहने लगे कि

श्री राम बोले – हे देवी ! प्राचीन काल में एक समय परम श्रष्टा भगवान् शम्भू ने अपने परम धाम में विश्वकर्मा को बुलाकर उनके द्वारा अपनी गौशाला में एक विस्तृत तथा रमणीय भवन बनवाया और उसे एक श्रेष्ठ सिंहासन का भी निर्माण कराया॥ उस सिंहासन पर भगवान्‌ शंकर ने विघ्न निवारण के लिए विश्वकर्मा द्वारा एक छत्र बनवाया, जो बहुत ही दिव्य, सदा के लिये अद्भुत और परम उत्तम था।

उसके बाद उन्होंने इन्द्र आदि देवगणों, सिद्ध, गन्थर्वों, नागों तथा सम्पूर्ण उपदेवो को भी शीघ्र वहाँ बुलवाया। समस्त वेदों, आगमों, ब्रह्माजी के पुत्र मुनियों तथा अप्सराओ सहित अनेक प्रकार की वस्तुओं से युक्त समस्त देवियों को भी आमन्त्रित किया।

इनके अतिरिक्त देवताओं, ऋषियों, सिद्धों और नागों की मंगलकारिणी सोलह-सोलह कन्याओं को भी बुलवाया।
हे मुने ! उन्होंने वीणा, मृदंग आदि नाना प्रकार के वाद्यों को बजवाकर सुन्दर गीतों द्वारा महान उत्सव कराया।

सम्पूर्ण औषधियों के साथ राज्याभिषेक के योग्य द्रव्य, प्रत्यक्ष तीर्थों के जलों से भरे हुए पाँच कलश तथा बहुत-सी दिव्य सामग्रियों को भगवांन शंकर ने अपने पार्षदों द्वारा मंगवाया और वहाँ उच्च स्वर से वेदमन्त्रिं का घोष करवाया।

है देवि! भगवान्‌ विष्णु की पूर्ण भक्ति से महादेव सदा प्रसन्न रहते हैं। इसलिये प्रसन्न-चित्त होकर वैकुण्ट धाम से श्रीहरि को बुलाकर शुभ मुहूर्त में उन्हें श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठाकर महादेव जी ने स्वयं ही प्रैमपूर्वक उन्हें सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित किया।

उनके मस्तक पर मनोहर मुकुट बाँधकर और उत्सव-मंगलाचार करके महेश्वर ने स्वयं ब्रह्माण्ड मण्डप में श्रीहरि का अभिषेक किया और उन्हें अपना वह सारा ऐश्वर्य प्रदान किया, जो वे दूसरों को नहीं देते थे।

तदनन्तर भक्त वत्सल शम्भु ने श्रीहरि का स्तवन किया। तत्पश्चात्‌ अपनी भक्तपरवशता को सर्व्र प्रसिद्ध करते हुए लोककर्ता ब्रह्माजी सें कहा –

महेश्वर बोले – लोकेश! आज से मेरी आज्ञा के अनुसार ये विष्णु हरि स्वयं मेरे वन्दनीय हो गये, इस बात को सभी सुन लें ।
हे तात! आप सम्पूर्ण देव आदि के साथ इन श्रीहरि को प्रणाम कीजिये और ये वेद मेरी आज्ञा से मेरी ही तरह इन श्रीहरि का वर्णन करें।

श्रीराम बोले – विष्णु की भक्ति से प्रसन्नचित्त हुए वरदायक भक्तवत्सल रुद्रदेव ने ऐसा कहकर स्वयं ही गरुडध्वज श्रीहरिको प्रणाम किया । तदनन्तर ब्रह्मा आदि देवताओं, अन्य सभी देवों, मुनियों और सिद्धों आदि ने भी उस समय श्रीहरि की वन्दना की।

इसके बाद अत्यन्त प्रसन्न हुए भक्तवत्सल महेश्वर ने देवताओं के समक्ष श्रीहरि को महान्‌ वर प्रदान किये।

महेश्वर बोले – हे हरे! आप मेरी आज्ञा से सम्पूर्ण लोकों के कर्ता, पालक, संहारक, धर्म-अर्थ-काम के दाता तथा अन्याय करने वालों को दण्ड देने वाले होंगे। आप महान्‌ बल-पराक्रम से सम्पन्न, जगत्पूज्य, जगदीश्वर होंगे और कहीं-कहीं मुझ से भी अजेय होंगे।

आप मुझ से मेरी दी हुई तीन प्रकार की ये शक्तियाँ ग्रहण करें –

  • इच्छा आदिकी सिद्धि
  • अनेक प्रकार की लीलाओ को प्रकट करने की शक्ति
  • और तीनों लोकों में नित्य स्वतन्त्र रहने की शक्ति।

हे हरे! आपसे द्वेष करने वाले निश्चय ही मेरे द्वारा प्रयत्नपूर्वक दण्डनीय होंगे।
है विष्णो ! मैं आपके भक्तों को उत्तम मोक्ष प्रदान करूँगा।
आप इस माया को भी ग्रहण करें, जिसका निवारण करना देवता आदि के लिये भी कठिन है और जिससे मोहित होने पर यह विश्व जड़रूप हो जायगा।

हरे! आप मेरी बायीं भुजा हैं और विधाता दाहिनी भुजा हैं। आप इन विधाता के भी उत्पादक और पालक होंगे। मेरे हदय रूप जो रुद्र हैं, वही मैं हूँ, इसमें संशय नहीं है। वे रुद्र आपके और ब्रह्मा आदि देवताओं के भी निश्चय ही पूज्य हैं। आप यहाँ रहकर अनेक प्रकार की लीलाएँ करने वाले अपने विभिन्‍न अवतारें द्वारा विशेष रूप से सम्पूर्ण जगत्‌ का पालन करें। मेरे लोक में आपका यह परम वैभव शाली और अत्यन्त उज्ज्वल स्थान गोलोक नाम से विख्यात होगा॥

हे हरे! भूतल पर जो आपके अवतार होंगे वे सबके रक्षक और मेरे भक्त होंगे। मैं उनका आदर करूँगा। वे मेरे वर से सदा प्रसन्न रहेंगे।

श्रीरामजी बोले – इस प्रकार श्रीहरि को अपना अखण्ड ऐश्वर्य प्रदान कर उमापति भगवान्‌ हर स्वयं कैलास पर्वत पर रहते हुए अपने पार्षदों के साथ स्वच्छ क्रीड़ा करने लगे । तभी से भगवान्‌ लक्ष्मीपति ने गोपवेश धारण कर लिया और वे गोप-गोपी तथा गौओं के अधिपतति होकर बड़ी प्रसननता के साथ वहाँ रहने लगे।

वे विष्णु भी प्रसन्नचित्त होकर समस्त जगत की रक्षा करने लगे। वे शिवजी की आज्ञा से नाना प्रकार के अवतार धारण करके जगत्‌ का पालन करने लगे। इस समय वे श्रीहरि भगवान्‌ शंकर की आज्ञा से चार रूपों में अवतीर्ण हुए हैं। उनमें एक मैं राम हूँ और भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हैं।

हे देवि! हे सती! मैं पिता की आज्ञा से सीता और लक्ष्मण के साथ वन में आया हूँ और भाग्यवश इस समय मैं दुखी हूँ। यहाँ किसी निशाचर ने मेरी पत्नी का हरण कर लिया है और मैं विरही होकर भाई के साथ वन में अपनी प्रिया की खोज कर रहा हूँ

हे सती! हे मात: ! जब आपका दर्शन प्राप्त हो गया, तब आपकी कृपा से सर्वथा मेरा कुशल ही होगा, इसमें सन्देह नहीं है। हे देवी! आपका दर्शन मेरे लिये सीता-प्राप्ति का वरस्वरूप होगा, आपकी कृपा से उस दुःख देने वाले पापी राक्षस कों मारकर मैं सीता को प्राप्त कर लूँगा, इसमें सन्देह नहीं है।

आज मेरा महान्‌ सौभाग्य है, जो आप दोनों ने मुझ पर कृपा की । जिस पर आप दोनों दयामय हो जायें, वह पुरुष धन्य और श्रेष्ठ है। इस प्रकार बहुत-सी बातें कहकर कल्याण मयी सती देवी को प्रणाम करके रघुकुल शिरोमणि श्रीराम उनकी आज्ञा से उस वन में विचरने लगे। पवित्र हदय वालें राम की शिव-भक्तिपरायण तथा शिव प्रशंसापरक बातें सुनकर सती मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुईं।

तदनन्तर अपने कर्म को याद करके उनके में बड़ा शोक हुआ। उनकी अंगकान्ति फीकी पड़ गयी और वे उदास होकर शिवजी के पास लौट आयी।

अगले भाग में – –

अगली सम्पूर्ण रामायण पॉडकास्ट 2 – माता सती का दक्ष यज्ञ में शरीर त्याग करना, माता पार्वती का जन्म और कामदेव का भष्म होना।


स्रोत

  1. श्रीतुलसीदासजी विरचित श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड (हिंदी अनुवाद), पेज संख्या 48-51
  2. श्री शिव महापुराण, रूद्रसंहिता (सतीखंड) – पेज संख्या 418 से 423 तक

दंडवत आभार – श्रीगीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा मुद्रित।


 

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Last Update: January 14, 2025