नारदजी ने पूछा – महादेव ! पक्षवर्धिनी तिथि / पक्षवर्धिनी एकादशी कैसी होती है?, जिसका ब्रत करने से, मनुष्य महान् पाप से छुटकारा पा जाता है ?
श्रीमहादेव जी बोले – यदि अमावास्या अथवा पूर्णिमा साठ दण्डकी होकर दिन-रात अविकल रूप से रहे और दूसरे दिन प्रतिपद में भी उसका कुछ अंश चला गया हो तो वह ‘पक्षवर्धिनी’ मानी जाती है। उस पक्ष की एकादशी का भी यही नाम है, वह दस हजार अश्वमेध यज्ञो के समान फल देने वाली होती है। अब उस दिन की जाने वाली पूजाविधि का वर्णन करता हूँ, जिससे भगवान् लक्ष्मीपति को संतोष प्राप्त होता है।
पक्षवर्धिनी एकादशी पूजाविधि –
सबसे पहले जल से भरे हुए कलश की स्थापना करनी चाहिये। कलश नवीन हो–फूटा-दूटा न हो और चन्दन से चर्चित किया गया हो । उसके भीतर पंचरत्न डाले गये हों तथा वह कला फूलकी मालाओं से आवृत हो । उसके ऊपर एक ताँवे का पात्र रखकर उसमें गेहूँ भर देना चाहिये। उस पात्र में भगवान् के सुवर्णमय विग्रह की स्थापना करें। जिस मास में पक्षवर्धिनी तिथि पड़ी हो, उसी का नाम भगवद्विग्रह का भी नाम समझना चाहिये | जगत के स्वामी देवेश्वर जगन्नाथ का स्वरूप अत्यन्त मनोहर बनवाना चाहिये | फिर विधि-पूर्वक पश्चामृत से भगवान् कों नहलाना तथा कुकुन्दम, अरगजा और चन्दन से अनुलेप करना चाहिये | फिर दो वस्त्र अर्पण करने चाहिये; उनके साथ छत्र और जूते भी हों। इसके बाद कलश पर विराजमान देवेश्वर श्रीहरि की पूजा आरम्भ करें।
फिर पद्मनाभायनमः कहकर दोनों चरणों की, विश्वमूर्तये नमः बोलकर दोनों घुटनों की, ज्ञानगष्याय नमः से दोनों जाँघों की, ज्ञानप्रदाय नमः से कटिभाग की, विश्वनाथाय नमः से उदर की, श्रीधराय नमः से हृदय की, कौस्तुभ-कण्ठाय नमः से कण्ठकी, क्षत्रान्तकारिणे नम: से दोनों बाँहों की, व्योममुंधे नमः से ललाट की तथा, सर्वरूपिणे नमः से सिर की पूजा करनी चाहिये। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न अस्त्रों का भी उनके नाम मन्त्र द्वारा पूजन करना उचित है। अंत में दिव्यरूपिणे नमः कहकर भगवान के सम्पूर्ण अंगो की पूजा करनी चाहिये ।
इस तरह विधिवत् पूजन करके विद्वान् पुरुष सुन्दर नारियल के द्वारा चक्रधारी देवदेव श्रीहरि को अर्घ्य प्रदान करे । इस अर्घ्यदान से ही व्रत पूर्ण होता है | अर्घ्यदान का मन्त्र इस प्रकार है –
संसारार्णवमग्रं भो मामुद्धर जगत्पते ।
ल्वमीशः सर्वलोकानां त्वं साक्षाश् जगत्पति: ॥
गृहाणारघयम मया दत्तं पदम् नाभ नमोSस्तुते।
(३८ । १४-१५)
जगदीश्वर ! मैं संसार सागर में डूब रहा हूँ, मेरा उद्धार कीजिये। आप सम्पूर्ण लोकों के ईश्वर तथा साक्षात् जगत्पति परमेश्वर हैं। पद्मनाभ ! आपको नमस्कार है। मेरा दिया हुआ अर्घ्य स्वीकार कीजिये । तत्पश्चात् भगवान् केशव को भक्तिपूर्वक भाँति-भाँति के नैवेद्य अर्पण करें, जो मन को अत्यत्त प्रिय लगने वाले और मधुर आदि छहों रसों से युक्त हों। इसके बाद भगवान को भक्ति के साथ कर्पूरयुक्त ताम्बूल निवेदन करे। घी अथवा तिल के तेल से दीपक जलाकर रखे। यह सब करने के पश्चात् गुरु की पूजा करे। उन्हें वस्त्र, पगड़ी तथा जामा दे। अपनी शक्ति के अनुसार दक्षिणा भी दे। फिर भोजन और ताम्बूल निवेदन करके आचार्य को संतुष्ट करे। निर्धन पुरुषों कों भी यथाशक्ति प्रयत्नपूर्वक पक्षवर्धिनी एकाद’शी का व्रत करना चाहिये ।
तदनन्तर गीत, नृत्य, पुराण-पाठ तथा हर्ष के साथ रात्रि में जागरण करें।
जो मनीषी पुरुष पक्षवर्धिनी एकादशी का माहात्म्य श्रवण करते हैं, उनके द्वारा सम्पूर्ण ब्रत का अनुष्ठान हो जाता है। पञ्चाङ्गिसेवन तथा तीथॉ में साधना करने से जो पुण्य होता है, वह श्रीविष्णु के समीप जागरण करने से ही प्राप्त हो जाता है। पक्षवर्धिनी एकादशी परम पुण्यमयी तथा सब पापों का नाश करने वाली है। ब्रहमन! यह उपवास करने वाले मनुष्यों की करोड़ों हत्याओं का भी विनाश कर डालती है। मुने ! पूर्वकाल में महर्षि वसिष्ठ, भरद्वाज, धुब तथा राजा अम्बरीश ने भी इसका ब्रत किया था। यह तिथि श्रीविष्णु को अत्यन्त प्रिय है। यह काशी तथा द्वारकापुरी के समान पवित्र है। भक्त पुरुष के उपबास करने पर यह उसे मनोवांछित फल प्रदान करती है।
जैसे सूर्योदय होने पर तत्काल अन्धकार का नाश हो जाता है, उसी प्रकार पक्षवर्धिनी का ब्रत करनेसे पापराशि नष्ट हो जाती है।
पक्षवर्धिनी एकादशी की रात में जागरण का माहात्य –
नारद ! अब मैं एकादशी की रात में जागरण करने का माहात्य बतलाऊँगा, ध्यान देकर सुनो। भक्त पुरुष को चाहिये कि एकादशी तिथि को रात्रि के समय भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णु का पूजन करके वैष्णवॉ के साथ उनके सामने जागरण करे। जो गीत, वाद्य, नृत्य, पुराण-पाठ, धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प, चन्दनानुलेप, फल, अर्थ्य, श्रद्धा, दान, इन्द्रिय-संयम, सत्यभाषण तथा शुभकर्म के अनुष्ठानपूर्वक प्रसन्नता के साथ श्रीहरि के समक्ष जागरण करता है, यह सब पापों से मुक्त हो भगवान का प्रिय होता है। जो विद्वान् मनुष्य भगवान् विष्णु के समीप जागरण करते, श्रीकृष्ण की भावना करते हुए कभी नींद नहीं लेते तथा मन-ही-मन बारम्बार श्रीकृष्ण का नामोच्चारण करते हैं, उन्हें परम धन्य समझना चाहिये। विशेषतः एकादशी की रात में जागने पर तो वे और भी धन्यवाद के पात्र हैं। जागरण के समय एक क्षण गोविन्द का नाम लेने से व्रत का चौगुना फल होता है, एक पहर तक नामोच्चारण से कोटिगुना फल मिलता है और चार पहर तक नामकीर्तन करने से असीम फल की प्राप्ति होती है। श्रीविष्णु के आगे आधे निमेष भी जागने पर कोटिगुना फल होता है, उसकी संख्या नहीं है । जो नरश्रेष्ठ भगवान् केशव के आगे नृत्य करता है, उसके पुण्य का ‘फल जन्म से लेकर मृत्युकाल तक कभी क्षीण नहीं होता ।
महाभाग ! प्रत्येक प्रहर में विस्मय और उत्साह से युक्त हो पाप तथा आलस्य आदि छोड़कर निर्वेदशून्य हृदय से श्रीहरि के समक्ष नमस्कार और नीराजना से युक्त आरती उतारनी चाहिये। जो मनुष्य एकादशी को भक्तिपूर्वक अनेक गुणों से युक्त जागरण करता है, वह फिर इस पृथ्वी पर जन्म नहीं लेता। जो धन की कंजूसी छोड़कर पूर्वोक्त प्रकार से एकादशी की भक्तिसहित जागरण करता है, वह परमात्मा में लीन होता है। जो भगवान् विष्णु के लिए जागरण का अवसर प्राप्त होने पर उसका उपहास करता है, वह साठ हजार वर्षो तक विष्ठा का कीड़ा होता है। प्रतिदिन वेद-शास्न्र में परायण तथा यज्ञॉ का अनुष्ठान करने वाला ही क्यों न हो, यदि एकादशी की रात में जागरण का समय आने पर उसकी निन्दा करता है तो उसका अधःपतन होता है। जो मेरी (शिव् की) पूजा करते हुए विष्णु की निंदा में तत्पर रहता है, बह अपनी इक्कीस पीढ़ियों के साथ नरक में पड़ता है।
विष्णु ही शिव हैं और शिव ही विष्णु हैं। दोनों एक ही मूर्ति की दो झाँकियों के समान स्थित हैं, अतः किसी प्रकार भी इनकी निन्दा नहीं करनी चाहिये। यदि जागरण के समय पुराण की कथा बाँचने वाला कोई न हो तो नाच-गान कराना चाहिये। यदि कथाबाचक मौजूद हों तो पहले पुराण का ही पाठ होना चाहिये |
बत्स ! श्रीविष्णु के लिये जागरण करने पर एक हजार अश्वमेध तथा दस हजार वाजपेय यज्ञों से भी करोड़गुना पुण्य प्राप्त होता है। श्रीहरि की प्रसन्नता के लिए जागरण करके मनुष्य पिता, माता, तथा पत्नी, तीनों के कुलों का उद्धार कर देता है।
यदि एकादशी के दिन दशमी से विध्द हो तो श्रीहरि का पूजन, जागरण और दान आदि सब व्यर्थ होता है, ठीक उसी तरह, जैसे कृतघ्न मनुष्यों के साथ किया हुआ नेकी का बर्ताव व्यर्थ हो जाता है। जो वेधरहित एकादशी को जागरण करते हैं, उनके बीच में साक्षात् श्रीहरि संतुष्ट होकर नृल्य करते हैं। जो श्रीहरि के लिए नृत्य, गीत और जागरण करता है, उसके लिये ब्रह्माजी का लोक, मेरा कैलास-धाम तथा भगवान् श्रीविष्णु का वैकुण्ठधाम–सब-के-सब निश्चय ही सुलभ हैं। जो स्वयं श्रीहरि के लिये जागरण करते हुए और लोगो को भी जगाये रखता है, वह विष्णुभक्त पुरूष अपने पितरों के साथ बैकुण्ठलोक में निवास करता है। जो श्रीहरि के लिये जागरण करने की लोगो को सलाह देता है, यह मनुष्य साठ हजार वर्षो तक श्वेतद्वीप में निवास करता है।
नारद ! मनुष्य करोड़ों जन्मों में जो पाप संचित करता है, वह सब श्रीहरि के लिये एक रात जागरण करने पर नष्ट हो जाता है। जो शालग्राम शिला के समक्ष जागरण करते हैं, उन्हें एक-एक पहर में कोटि-कोटि तीर्थो के सेवन का फल प्राप्त होता है। जागरण के लिए भगवान के मंदिर में जाते समय मनुष्य जितने पग चलता है, वे सभी अश्वमेध यज्ञ के समान फल देने वाले होते हैं।
पृथ्वी पर चलते समय दोनों चरणॉ पर जितने धुल के कण गिरते हैं, उतने हजार वर्षो तक जागरण करने वाला पुरुष दिव्यलोक में निवास करता है।
इसलिये प्रत्येक द्वादशी को जागरण के लिये अपने घर से भगवान् विष्णु के मन्दिर में जाना चाहिये। इससे कलिमल का विनाश होता है। दूसरों की निंदा में संलग्न होना, मन का प्रसन्न न रहना, शास्त्र चर्चा का न होना, संगीत का अभाव, दीपक न जलाना, शक्ति के अनुसार पूजा के उपचारों का न होना, उदासीनता, निंदा तथा कलह। इन दोषों से युक्त नौ प्रकार का जागरण अधम माना गया है। जिस जागरण में शास्त्र की चर्चा, सात्विक नृत्य, संगीत, वाद्य, ताल, तैलयुक्त दीपक, कीर्तन, भक्तिभावना, प्रसन्नता, संतोषजनकता, समुदाय की उपस्थिति तथा लोगो के मनोरंजन का सात्त्विक साधन हो, यह उक्त बारह गुणों से युक्त जागरण भगवान कों बहुत प्रिय है। शुक्र और कृष्ण दोनों ही पक्षों की एकादशी को प्रयत्न-पूर्वक जागरण करना चाहिये |
नारद ! परदेश में जाने पर मार्ग का थका-माँदा होने पर भी जो द्वादशी कों भगवान् वासुदेव के निम्मित किये जाने वाले जागरण का नियम नहीं छोड़ता, वह मुझे विशेष प्रिय है। जो एकादशी के दिन भोजन कर लेता है, उसे पशु से भी गया-बीता समझना चाहिये; वह न तो शिव का उपासक है न सूर्यका, न देवीका भक्त है और न गणेशजी का । जो एकादशी को जागरण करते हैं, उनका बाहर-भीतर यदि करोड़ों पापों से घिरा हो तो भी वे मुक्त हो जाते हैं।
वेघरहित द्वादशी का व्रत और श्रीविष्णु के लिए किया जाने वाला जागरण यमदूतों का मानमर्दन करने वाला है।
मुनिश्रेष्ठ ! एकादशी को जागरण करने वाले मनुष्य अवश्य मुक्त हो जाते हैं।
जो रात को भगवान् वासुदेव के समक्ष जागरण में प्रवृत्त होने पर प्रसन्नचित्त हो ताली बजाते हुए नृत्य करता, नाना प्रकार के कौतुक दिखाते हुए मुख से गीत गाता, यैष्णवजनों का मनोरंजन करते हुए श्रीकृष्ण-चरित का पाठ करता, रोमांचित होकर मुख से बाजा बजाता तथा स्वेच्छानुसार धार्मिक आलाप करते हुए भाँति-भाँति के नृत्य का प्रदर्शन करता है, वह भगवान् का प्रिय है। इन भावो के साथ जो श्रीहरि के लिये जागरण करता है, उसे नैमिष तथा कोटितीर्थ का फल प्राप्त होता है। जो शांतचित्त से श्रीहरि को घृप-आरती दिखाते हुए, रात में जागरण करता है, वह सात द्वीपोंका अधिपति होता है।
ब्रह्महत्या के समान भी जो कोई पाप हों, वे सब श्रीकृष्ण की प्रीति के लिये जागरण करने पर नष्ट हो जाते हैं। एक ओर उत्तम दक्षिणा के साथ समाप्त होने वाले सम्पूर्ण यज्ञ और दूसरी ओर देबाधिदेव श्रीकृष्ण को प्रिय लगने वाला एकादशी का जागरण,–दोनों समान हैं।
जहाँ भगवान् के लिए जागरण किया जाता है वहाँ काशी, पुष्कर, प्रयाग, नैमिषारण्य, शालग्राम नामक महाक्षेत्र, अर्बुदारण्य (आबू) , शूकर क्षेत्र (सोरों), मथुरा तथा सम्पूर्ण तीर्थ निवास करते हैं । समस्त यज्ञ और चारों वेद भी श्रीहरि के निमित्त किये जाने वाले जागरण के स्थान पर उपस्थित होते हैं । गंगा, सरस्वती, तापी, यमुना, शतद्रु (सतलरूज) , चन्द्रभागा तथा वितस्ता आदि सम्पूर्ण नदियाँ भी बहाँ जाती हैं ।
द्विजश्रेष्ठ ! सरोबर, कुण्ड और समस्त समुद्र भी एकादशी कों जागरण स्थान पर जाते हैं। जो मनष्य श्रीकृष्ण प्रीति के लिए होने वाले जागरण के समय वीणा आदि बाजों से हर्ष में भरकर नृत्य करते और पद गाते हैं, वे देवताओं के लिये भी आदरणीय होते हैं। इस प्रकार जागरण करके श्रीमहाविष्णु की पूजा करे और द्वादशी को अपनी शक्ति के अनुसार कुछ वैष्णव पुरुषों को निमन्त्रित करके उनके साथ बैठकर पारण करे।
द्वादशी कों सदा पवित्र और मोक्षदायिनी समझना चाहिये। उस दिन प्रातः स्नान करके श्रीहरि की पूजा करे और उन्हें निम्नाकिंत मन्त्र पढ़कर अपना ब्रत समर्पण करे –
अज्ञानतिमिरान्धस्य व्रतेनानेन केशव ।
प्रसीद सुमुखों भूत्वा ज्ञानदृष्टिप्रदों भव ॥
(३९। ८६-८२)
केशव ! मैं अज्ञानरूपी रतौंधी से अंधा हो रहा हूँ, आप इस व्रत से प्रसन्न हों और प्रसन्न होकर मुझे ज्ञानदृष्टि प्रदान करें ।
इसके याद यथासम्भव पारण करना चाहिये | पारण समाप्त होने पर, इच्छानुसार विहित कर्मो का अनुष्ठान करे ।
नारद ! यदि दिन में पारण के समय थोड़ी भी द्वादशी न हो तो मुक्तिकामी पुरुष को रात कों ही (पिछले पहर में] पारण कर लेना चाहिये। ऐसे समय में रात्रि कों भोजन करने का दोष नहीं लगता। रात्रि के पहले और पिछले पहर में दिन की भाँति कर्म करने चाहिये। यदि पारण के दिन बहुत थोड़ी द्वादशी हो तो उषःकाल में ही प्रात:काल तथा मध्याह्काल की भी संध्या कर लेनी चाहिये। इस पृथ्वी पर जिस मनुष्य ने द्वादशी-ब्रत कों सिद्ध कर लिया है, उसका पुण्य-फल बताने में भी समर्थ नहीं हूँ।
एकादशी देवी सब पुण्यों से अधिक है तथा यह सर्वदा मोक्ष देने वाली है। यह द्वादशी नामक व्रत महान् पुण्यदायक है। जो इसका साधन कर लेते हैं, वे महापुरुष समस्त कामनाओं को प्राप्त कर लेते हैं।
अम्बरीष आदि सभी भक्त, जो इस भूमण्डल में विख्यात हैं, द्वादशी व्रत का साधन करके ही विष्णुधाम को प्राप्त हुए हैं। यह माहात्म्य, जो मैंने तुम्हें बताया है, सत्य है ! सत्य है !! सत्य है!!!
श्रीविष्णु के समान कोई देवता नहीं है और द्वादशी के समान कोई तिथि नहीं है। इस तिथि को जो कुछ दान किया जाता, भोगा जाता तथा पूजन आदि किया जाता है, वह सब भगवान् माधव के पूजित होने पर पूर्णता को प्राप्त होता है। अधिक क्या कहा जाय, भक्तवल्लभ श्रीहरि द्वादशी-व्रत करने वाले पुरुषों की कामना कल्पान्ततक पूर्ण करते रहते हैं। द्वादशी को किया हुआ सारा दान सफल होता है।
स्रोत – श्री पद्म पुराण – उत्तरखंड – पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरण का माहात्म्य
दंडवत आभार – श्री गीताप्रेस, गोरखपुर – श्रीपद्मपुराण (संक्षिप्त) – पक्षवर्धिनी एकादशी /पेज संख्या – ६३९ से ६४२ तक
FAQs –
पक्षवर्धिनी महाद्वादशी क्या है?
जब एकादशी आगे की द्वादशी तक बढ़ जाती है तो इसे पक्षवर्धिनी कहा जाता है।
पक्षवर्धिनी महाद्वादशी का माहात्म्य किस पुराण या शास्त्र में है?
पक्षवर्धिनी महाद्वादशी का माहात्म्य को आप श्री पद्मपुराण खण्ड 5, अध्याय 159 में देख सकते है।