क्या कभी आपके मन में प्रश्न आया है की क्या हर पत्थर में भगवान् होता है? क्या हर पत्थर पूजा जाता है? नहीं ऐसा संभव नहीं है। हर पत्थर पूजने योग्य नहीं होता, अपितु हर मूर्ति भी नहीं पूजी जाती।
उदाहरण के लिए बाजार में गणेशोत्सव या नवमी के दौरान बिकती हुयी मूर्तियों को कभी न पूजा जाना। ये तभी संभव होता है जब किसी भी मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा पूरे श्रद्धा और विश्वाश के साथ की जाती है। अगर आप पत्थर को पत्थर ही मानते है तो उसे आपको पूजने या मानने की आवशयकता नहीं क्युकी बिना विश्वास और श्रध्दा के दोस्त तक नहीं मिलते तो भगवान् कैसे मिलेंगे।
इसे आप ऐसे समझ सकते है। मान लीजिये आपके पास कोई कोरा कागज है, तो आप उसको कैसे भी इस्तेमाल कर सकते है जैसे की टिश्यू पेपर, सफाई इत्यादि। लेकिन उसी पेपर पर आपके माता पिता की फोटो प्रिंट कर ली जाए तो क्या तब भी आप उस कागज का वैसा ही इस्तेमाल करेंगे? नहीं न?
आप कहेगे की माता पिता को तो मेने देखा है। इसलिए मानते है उन्हें। फिर तो आपको ये भी सोचना चाहिए आपने अपने दादा जी से आगे की पीढ़ी को नहीं देखा तो फिर क्या उन्हें नहीं मानते?
इसी प्रकार सनातन धर्म में भी मूर्ति (जो की कोरे कागज के समान है) पूजा नहीं होती, लेकिन विग्रह की पूजा अवश्य होती है।
मूर्ति और विग्रह में क्या अंतर है?
मूर्ति का अर्थ पुतला या छायाचित्र से समझ सकते है। इसलिए पुतला आप किसी भी व्यक्ति, या जैसा सोचते है वैसा बना सकते है। मूर्ति को कोई भी, किसी भी धर्म का नास्तिक या आस्तिक कलाकार बना सकता है।
यहाँ विग्रह का अर्थ होता है उस शक्ति का निवास स्थान जिसे आवाहन करके बुलाया जाता है। आव्हाहन करने का तरीका श्लोक मन्त्र, प्रार्थना, आरती, हवन, आपातकाल में पुकार या याद करना मात्र इत्यादि. जिस मूर्ति, प्रतिमा या चित्र की विग्रह स्थापना नहीं होती वह पत्थर या मिटटी का टुकड़ा मात्र है।
विग्रह की स्थापना सिर्फ भगवान् का भक्त कर सकता है। जैसे भक्त प्रह्लाद ने खम्बे की तरफ इशारा करके बोला – हे पिता जी ! मेरे भगवान् श्री हरि इस खम्बे में भी है। इधर श्री हरि विष्णु भी अपने भक्त के इशारा मात्र से उसी खम्बे में से श्री नरसिंह रूप में प्रकट भी हो गए थे।
कर्मकांड की आवश्यकता –
जिस प्रकार हम सामान्य जीवन में किसी का सम्मान करते है और सम्मान के अलग अलग तरीके होते है। ठीक उसी प्रकार से हमें कर्मकांड में ब्रह्म और उनकी शक्तियों का अलग अलग तरीके से सम्मान करने की विधि बताई गयी है। कर्मकांड में शामिल इन तरह-तरह की विधियों को पूजा, आरती, स्तवन, चालीसा, आराधना इत्यादि नाम देते है।
कर्मकांड का सही से पालन करने के लिए भक्त ब्राहम्णो की शरण में जाते है। लेकिन अगर आप भगवान् से प्रेम करते है तब आपका भगवान के साथ आपका सीधा योग होता है। फिर आप कर्मकांड करे या न करे कोई फर्क नहीं पड़ता।
इसके बारे में स्वयं श्रीमद भगवद गीता में बताया गया है जो की ईश्वर की साक्षात् वाणी है। जो की वेदो का अमृत है। सम्पूर्ण सत्य है। आप श्रीमद भगवदगीता का ये श्लोक एक बार ध्यान से पढ़े। यहाँ अलग अलग संतो के इस श्लोक का अनुवाद भी दिए है उन्हें भी आप समझे –
मूल श्लोकः
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।।7.21।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
जो-जो भक्त जिस-जिस देवताका श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है, उस-उस देवताके प्रति मैं (श्री कृष्ण) उसकी श्रद्धा को दृढ़ कर देता हूँ।
Hindi Translation By Swami Tejomayananda
जो-जो (सकामी) भक्त जिस-जिस (देवता के) रूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस (भक्त) की मैं (श्री कृष्ण) उस ही देवता के प्रति श्रद्धा को स्थिर करता हूँ।।
English Translation Shri Purohit Swami
But whatever the form of worship, if the devotee has faith, then upon his faith in that worship do I set My own seal – Shri Krishna
Source – www.gitasupersite.iitk.ac.in IIT Khadagpur
इसलिए हर पत्थर को पूजना उचित नहीं होता। जब तक की श्रद्धा भाव से ईश्वर का आवाह्न न किया जाए उसमे विराजमान होने के लिए। क्युकी आप और हम जिस भी ईश्वर को जानते है या मानते है क्या उसमे इतनी भी शक्ति नहीं की वो हमारे पुकारने पर हमारे साथ किसी न किसी रूप में साक्षात् रह सके?
लेकिन किसी भी मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा और उसको पूजने से पहले आपको एक बात अवश्य सोच लेनी चाहिए की आप उस शक्ति को पूज रहे है जिसे प्राप्त करना चाहते है। इसे भी भगवान् श्री कृष्ण ने श्रीमदभगवद गीता के द्वारा बताया है –
यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्॥- (गीता अध्याय 9 श्लोक 25)
भावार्थ : देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरा (परमेश्वर का) पूजन करने वाले भक्त मुझको (परमेश्वर को) ही प्राप्त होते हैं इसीलिए मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता॥
उदाहरण के लिए –
अगर आप किसी भी मज़ार, किसी भी बाबा, किसी भी गुरु, किसी भी वृक्ष, किसी भी पर्वत, किसी भी नदी, भूत, प्रेत, राक्षस, शक्ति आदि को पूजते है तो आप उसी को प्राप्त होते है। यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है की – हाथ जोड़कर या मस्तक झुका कर किसी का भी सम्मान करना मानव धर्म है और प्रकृति या गुरुजनो का सम्मान करना भी चाहिए, पर निरंतर पूजा करना या सिर्फ उसी विशेष को ही मानना या सिर्फ उसी विशेष की विधिवत उपासना करने पर आप निश्चित ही भगवान् श्री कृष्ण के अनुसार उसी को प्राप्त होंगे।
इसलिए मनुष्य को सम्मान हर धर्म, व्यक्ति, प्रकृति में विध्यमान प्रत्येक तत्व का उसके गुणों के अनुसार करना चाहिए, मनुष्य जीवन में सुख के लिए आप अलग अलग देवताओं और देवियो को श्रद्धा और भक्ति से प्रसन्न करके अपने जीवन को सुखमय बना सकते है।
महाभारत में वनवास के दौरान अर्जुन ने भगवान् शिव की मूर्ति अपने हाथो से बनाकर , उसमे प्राण प्रतिष्ठा करके शिव जी की आराधना की थी जैसे ही उन्होंने पुष्प का हार मूर्ति के गले में डाला। भगवान शिव किरात का रूप धारण करके आये, वो माला उनके गले में सुशोभित होने लगी।
लेकिन मोक्ष की प्राप्ति श्री हरि के चरणों में ही संभव है। इसके लिए आप श्री कृष्ण का विश्वरूप को ध्यान से देखे या उस रूप के बारे में पढ़े, अपने घर या गुरुजनो से पूछे, सत्य अपने आप आपके सामने प्रकट हो जायेगा।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।
ॐ परब्रह्म परमात्मने नमः।
FAQs –
वेदों के अनुसार मूर्ति पूजा क्या है?
चारों वेद में एक भी ऐसा मंत्र नहीं है जिससे मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की जा सके। लेकिन पृथ्वी और प्रकृति के अलग अलग तत्वों की स्तुति अवश्य की गयी है। और स्तुति के कई तरीके बताये गए है।
क्या मूर्ति पूजा करना गलत है?
जो लोग तत्व ज्ञान या ब्रह्म ज्ञान के अनुसार ईश्वर को खोजते है वे मूर्ति पूजा को गलत बताते है। लेकिन जो लोग गृहस्थी में रहते हुए भी ब्रह्म की उपासना या ध्येय करना चाहते है यह उनके लिए एक विकल्प के समान है। वेदो में विग्रह पूजा न तो करने को बोला गया है और न ही मना किया गया है। साकार ब्रह्म को धेय्य करने के लिए धाता के पास एक विकल्प के समान है तब उसका ध्यान केंद्रित होता है। लेकिन जिस व्यक्ति को “तत्त्वं असि” महावाक्य का ज्ञान होता है तब तक वह विग्रह पूजा से अपने आप आगे निकल जाता है।
मूर्ति पूजा का अर्थ क्या है?
मूर्ति पूजा का कोई अर्थ नहीं है। इस शब्द का निर्माण विधर्मियो द्वारा किया गया है। जैसे हिन्दू शब्द बनाया है।
मूर्ति पूजा की शुरुआत कब हुई?
मूर्ति पूजा का कोई अस्तित्व न था और न है और न रहेगा। ये भक्त और ईश्वर का प्रेम है। जिसे जो भक्त चाहे वैसे मान सकता है। जैसे जिन लोगो को माता पिता से अत्यधिक प्रेम होता है वो उनकी मूर्ति, फोटो इत्यादि अपने पास रखते है। कुछ दिखावे के लिए रखते है तो कुछ उसे प्रथा मानकर।
सनातन धर्म व्यक्ति को ईश्वर, प्रकृति और प्रभु की सृष्टि से प्रेम करना सीखाता है किसी भी प्रकार से विवश करना नहीं।
वेद पुराणों पुराणों में छिपा है सनातन सत्य, इसे पूर्णतः किसने देखा, और समझा।
वरुण के हैं नयन हज़ार , इन्द्र के है सौ, आपके और मेरे केवल दो।
अर्थात
सूर्य के पास है सहस्त्र दिव्य दृष्टि, देवताओं के पास है गरुड़ दृष्टि और मनुष्य के पास केवल सर्प दृष्टि