वृटासुर के धर्मोपदेश से चकित हुए परीक्षित जी ने शुकदेव जी से पूछा था कि ऐसे भयंकर इन्द्रशत्रु के मुंह से इतनी उच्च ज्ञान और धर्म की बातें कैसे निकलीं ? ऐसी निर्मल भक्ति तो उन देवताओं में भी नहीं दिखाई देती जो प्रभु के चरणकमलों तक भी पहुँच जाते हैं – वे भी भौतिक सुखों की मांग में प्रभु मिलन के दिव्य सुख को भूले जाते हैं, तब यह तो एक असुर था ? तब शुकदेव जी ने चित्रकेतु का पुत्रमोह और वृटासुर के पूर्वजन्म की कथा कहना शुरू किया

शुकदेव जी  – हे राजन!! आपको एक कथा सुनाता हूँ। सूरसेन नामक प्रदेश में चित्रकेतु नामक राजा थे। वे धर्मानुसार राज्य काज करते थे और उनकी प्रजा सुखी रहती थी। उनकी अनेक रानियां थीं , किन्तु संतानसुख न था, जिसके कारण वे उदास रहते। थे एक बार श्री संत अंगिरा जी उनके यहाँ पधारे। राजा ने पूरी विनम्रता से उनका स्वागत किया और वे प्रसन्न हुए। उनके चरणों में बैठे राजा से

उन्होंने पूछे – हे राजन। आपके राज्य में प्रजा सुखी है , किन्तु जो राजा अपने मन को न बाँध सके वह राज्य को कैसे सम्हालेगा ? आपका मन अशांत लगता है – इसका क्या कारण है ?

राजा चित्रकेतु ने उनसे निवेदन किया – महर्षि पुत्र हीन हूँ , इतना राज्य कौन सम्भालेगा। कृपा करो एक पुत्र मिल जाए, एक पुत्र हो जाए । ऋषि बहुत देर तक टालते रहे ।

अंगिरा जी – राजन् ! पुत्र वाले भी उतने ही दुखी हैं जितने पुत्रहीन । पुत्र मोह बहुत प्रबल है। जो भी हो रहा है वो प्रभु की इच्छा है, जो भी होता है वो भी इच्छा है। लेकिन फिर भी यदि तुम भाग्य बदलना चाहते हो तो कोशिश कर लो। ऐसा होगा नहीं। बल्कि जो भी क्षणिक सुख मिलेगा वह दुःख जरूर देगा। वो दुःख आपके क्षणिक सुख से ज्यादा भी हो सकता है।

राजा चित्रकेतु ने कहा महाराज में पुत्र के लिए कितने भी दुःख झेलने को तैयार हूँ, मुझे पर कृपा करे।

ऋषि ने कहा – ठीक है, परमेश्वर कृपा करेंगे तेरे ऊपर , पुत्र पैदा होगा। ऋषिवर ने राजा को एक दिव्य पेय दिया जिसे राजा ने अपनी प्रियतमा पत्नी कृतद्युति को दिया। ऋषिवर लौट गए। राजा के सौभाग्य और ऋषिवर के आशीर्वाद से शीघ्र ही वे एक पुत्र की माता बनीं।

राजा चित्रकेतु की प्रसन्नता का ठिकाना न था। वे अपने पुत्र में ऐसे खो गए कि अपने अन्य कर्तव्य भूलने लगे। वे सदा अपने पुत्र के साथ उसकी माता के कक्ष में समय बिताना पसंद करते.

जिससे अन्य रानियों को उनका एक रानी के साथ अधिक प्रेम देख कर ईर्ष्या होने लगी। ईर्ष्या से उनकी बुद्धि का नाश हुआ और एक दिन सब रानियों ने मिल कर बालक राजकुमार को जहर दे दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। जब सोता हुआ राजकुमार बहुत देर तक न जाएगा तो माँ को चिंता हुई और उसने सेविका को बालक को लाने भेजा। यह जान कर कि बालक मृत है, माँ सुधबुध खो बैठी। राजा रानी और पूरा राज्य शोक विषाद में डूब गया। जिन रानियों ने यह किया था वे भी खूब रोतीं और दुखी होने का आभास करातीं, जबकि वे भली प्रकार जानती थीं कि सच क्या है।

कुछ समय बाद महर्षि अंगिरा जी ने जान लिया कि राजा शोक से मृत्यु के निकट हैं तो वे श्री देवर्षि नारद जी सहित फिर से वहां आये।

देवऋषि – तेरा पुत्र जहाँ चला गया है वहाँ से लौट कर नहीं आ सकता। शोक रहित हो जा। तेरे शोक करने से तेरी सुनवाई नहीं होने वाली। (बहुत समझा रहे हैं राजा को, लेकिन राजा फूट फूट कर रो रहा है।)

ऐसे समय में राजा को एक ही शिकायत थी उनकी कि – यदि लेना ही था तो दिया क्यों ?

(लेकिन यह तो आदमी भूल जाता है कि किस प्रकार से आदमी माँग कर लेता है। मन्नतें माँग कर, इधर जा उधर जा, कुलदेवता, राक्षस आदि से माँग माँग कर लिया है पुत्र को लेकिन आज उन्हें ही उलाहना दे रहा है। )

देवर्षि नारद राजा को समझाते हैं कि पुत्र चार प्रकार के होते हैं ।

  1. पिछले जन्म का वैरी, अपना वैर चुकाने के लिए पैदा होता है, उसे शत्रु पुत्र कहा जाता है।
  2. पिछले जन्म का ऋण दाता। अपना ऋण वसूल करने आया है। हिसाब किताब पूरा होता है , जीवनभर का दुख दे कर चला जाता है। यह दूसरी तरह का पुत्र।
  3. तीसरे तरह के पुत्र उदासीन पुत्र । विवाह से पहले माँ बाप के । विवाह होते ही माँ बाप से अलग हो जाते हैं । अब मेरी और आपकी निभ नहीं सकती। पशुवत पुत्र बन जाते हैं।
  4. चौथे प्रकार के पुत्र सेवक पुत्र होते हैं। माता पिता में परमात्मा को देखने वाले, सेवक पुत्र। सेवा करने वाले। उनके लिए , माता पिता की सेवा, परमात्मा की सेवा। माता पिता की सेवा हर एक की क़िस्मत में नहीं है। कोई कोई भाग्यवान है जिसको यह सेवा मिलती है। उसकी साधना की यात्रा बहुत तेज गति से आगे चलती है। घर बैठे भगवान की उपासना करता है।

राजन तेरा पुत्र शत्रु पुत्र था । शत्रुता निभाने आया था, चला गया। महर्षि अंगीरा इसी अनहोनी को टाल रहे थे। पर तू न माना ।
समझाने के बावजूद भी राजा रोए जा रहा है। माने शोक से बाहर नहीं निकल पा रहा।

राजा को तब नारद जी ने समझाया। नारद जी ने अपनी शक्ति से उस जीवात्मा का आह्वान किया जो पुत्र बन कर आया था।

नारद जी बोले – हे शुभ जीव-आत्मन, आपकी जय हो। जरा अपने माता और पिता को देखिये, जो आपके बिना कितने शोकसंतप्त हैं।आप अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए हैं, आपका जीवन काल अभी शेष है। आप इस देह में पुनः प्रवेश करें और उस जीवन काल तक इन्हे सुख दें।

लेकिन ये क्या!

पुत्र / आत्मा पहचानने से इन्कार कर रहा है। कौन पिता किसका पिता? देवर्षि क्या कह रहे हो आप ? न जाने मेरे कितने जन्म हो चुके हैं । कितने पिता ! मैं नहीं पहचानता यह कौन है! किस किस के पहचानूँ ? मेरे आज तक कितने माई बाप हो चुके हुए हैं । किसको किसकी पहचान रहती है? मैं इस समय विशुद्ध आत्मा हूँ । मेरा माई बाप कोई नहीं । मेरा माई बाप परमात्मा है। तो शरीर के सम्बंध टूट गए । कितनी लाख योनियाँ आदमी भुगत चुका है, उतने ही माँ बाप । कभी चिड़िया में मा बाप , कभी कौआ में मा बाप , कभी हिरण में कभी पेड़ पौधों में इत्यादि इत्यादि ।

देवर्षि नारद – सुन लिया राजन ।

राजा चित्रकेतु – हाँ देवर्षि! यह अपने आप बोल रहा है। जिसके लिए मैं रो रहा हूँ , जिसके लिए मैं बिलख रहा हूँ वह मुझे पहचानने से इंकार कर रहा है। जो पहला आघात था, उससे बाहर निकला। जिस शोक सागर में पहले डूबा हुआ था तो परमात्मा ने उसे दूसरे शोक सागर में डाल कर पहले से बाहर निकाला । अब समझा कि पुत्र मोह केवल मन का भ्रम है। सत्य सनातन तो केवल परमात्मा है।

जो माता पिता अपने पुत्र को पुत्री को इस जन्म में सुसंस्कारी नहीं बनाते, उन्हें मानव जन्म का महत्व नहीं समझाते, उनको संसारी बना कर उनके शत्रु समान व्यवहार करते हैं, तो अगले जन्म में उनके बच्चे शत्रु व वैरी पुत्र पैदा होते हैं उनके घर ।

अत: संतान का सुख भी अपने ही कर्मों के अनुसार मिलता है

आत्मा की बात सुनकर चित्रकेतु का मोहभंग हुआ. नारदजी ने राजा को नारायण मन्त्र की दीक्षा दी. चित्रकेतु ने मंत्र का अखंड जप करके नारायण को प्रसन्न किया. भगवान ने दर्शन देकर एक दिव्य विमान दिया. चित्रकेतु भगवद् दर्शन से चैतन्य होकर सिद्धलोक आदि में भी विचरण करते रहते.

राजा चित्रकेतु को माता पार्वती से श्राप और उस श्राप से राजा चित्रकेतु का असुर कुल में जन्म लेना

एक बार वह दिव्य विमान में बैठकर कैलाश के ऊपर से गुजर रहे थे कि उनकी नज़र शिवजी पर पड़ी. महादेव सिद्ध आत्माओं को उपदेश दे रहे थे. पार्वतीजी उनकी गोद में बैठी थीं. यह देख चित्रकेतु हंसे और कहा- सिद्धों की सभा में महादेव स्त्री का आलिंगन किए बैठे हैं! आश्चर्य है कि इन ज्ञानियों ने भी इन्हें ऐसे अमर्यादित कार्य से नहीं रोका!

महादेव ने तो अनदेखी कर दी लेकिन पार्वतीजी को क्रोध हो आया. उन्होंने चित्रकेतु को शाप दिया- जिसकी निंदा की योग्यता स्वयं श्रीहरि में नहीं तुम उसकी निंदा करते हो. तुम असुर कुल में चले जाओ.

चित्रकेतु पार्वतीजी के पास आए और प्रणाम कर कहा– माता मैंने मूर्खता में आपका अपमान किया. इसका दंड मिलना ही चाहिए. मैं इस शाप को भी श्रीहरि की कृपा की तरह लेता हूं.

महादेव ने पार्वतीजी से कहा– यह हरिभक्त है. किसी भी जीवन से उन्हें भय नहीं होता. नारायण भक्तों के हृदय में निवास करते हैं.

शुकदेवजी परीक्षित से बोले– हे राजन। चित्रकेतु में इतनी शक्ति थी कि वह इस शाप पर क्रोधित होकर माता को शापित कर सकते थे किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया. वही चित्रकेतु जगदंबा के शाप के कारण वृटासुर हुए थे. नारायण नाम को धारण करने के कारण उनमें पूर्वजन्म का ज्ञान शेष था. इंद्र के साथ शत्रुता भी वह नारायण का आदेश समझकर निभा रहे थे.

हरे कृष्ण ! हरे राम, हे नाथ ! मैं आपको न भूलूँ।

Source – श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 15


 

FAQs –

राजा चित्रकेतु कौन है?

सूरसेन नामक प्रदेश में चित्रकेतु नामक राजा थे।

राजा चित्रकेतु की कितनी पत्नियां थी?

राजा चित्रकेतु की अनेक रानियां थीं।

चित्रकेतु और उनकी पत्नी अपने पुत्र के मोह से कैसे मुक्त हो सकते थे?

देवर्षि नारद ने उनके पुत्र को आत्मारूप में बुलाया और राजा को सत्य से अवगत कराया। पुत्र / आत्मा ने पहचानने से इन्कार कर दिया कि कौन पिता, किसका पिता?

राजा चित्रकेतु को शांत करने के लिए कौन सा ऋषि आया था जब उसने अपने पुत्र को खो दिया था?

महर्षि अंगिरा जी ने जान लिया कि राजा शोक से मृत्यु के निकट हैं तो वे श्री देवर्षि नारद जी सहित फिर से वहां आये

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Last Update: दिसम्बर 30, 2023

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