बासुदेव बोले- (सूर्य के) नैमित्तिक पूजन को जो विशेषकर सप्तमी तिथि ग्रहण के समय एवं संक्रान्ति के दिनों में हीं किया जाता है संक्षेप में बता रहा हूँ सुनो ! ।1।
शुक्लपक्ष की सप्तमी के एूर्व षष्ठी में एक बार दिन में हविष्यान्न का भोजन करके संध्या समय में आचमन, सूर्य को नमस्कार एवं इन्द्रिय संयम पूर्वक कुशासन पर स्थित हो ध्यान करते हुए वहीं नीचे शयन भी करके रात व्यतीत करने के पश्चात् प्रात: काल उठकर स्नान संध्योपासन करके पूर्वोक्त मनु मंत्र के जप एवं वह्लि का सूर्य और अग्नि की कल्पनाकर उसमें हवन करे ।2-4।
उपरांत सूर्याग्नि करण संक्षेप में एवं तर्पण भी बता रहा हूँ। पूजन करने के मंदिर को चित्रविचित्र मूर्तियों की कारीगरियों से सुशोभित करके (कुशकंडिका ) करने के उपरान्त हवन करना चाहिए।5।
(हवन कुंड के चारों ओर) कुश विछाकर क्रमशः पात्रादि (प्रोक्षणीपात्र एवं प्रणीतापात्र के आचमनपूर्वक कुश के दो दलों से बने हुए पवित्रक को लेकर जिसमें अग्रभाग हो तथा वह प्रादेश मात्र का हो उसी द्वारा (यज्ञ) पात्रों का प्रोक्षण, संशोधन और (पिघलाये हुए घी का ) निरीक्षण करके उत्तर की ओर किये हुए पात्र (आज्यस्थाली ) में रखे । पश्चात् जलती हुई एक समिधा से उसे प्रज्वलित करे ।6-7।
उपरान्त अग्नि का आज्यस्थाली द्वारा एक प्रदक्षिणा कर व्यस्त हाथ के अंगूठे और कनिष्ठा क॑ द्वारा घी का तीन बार उत्प्लावन (उपर को धीरे से उछालना ) स्पक्रिया करके अनन्तर सूर्य के (मूल, मध्य और अंत भाग को ) कुशाओं द्वारा संमार्ज़न एवं संप्रोक्षण करने के उपरांत उन कुशाओं को अग्नि में डाल देना चाहिए । हे यदुशार्दूल ! फिर पूर्व की भाँति सूर्य की पूजा करनी चाहिए । जिसके विधान में भूमि और अन्तरिक्ष से पृथक् किसी अन्य आधार पर स्थित पात्र में उसके लिए आसन प्रदान पूर्वक आवाहन एवं पूजन सुसम्पन्न कर समस्त क्रियाओं को समाप्त करना विद्वानों ने बताया है। जो पहले कही गयी है।9-10।
अत: पुन: सूर्य से आरम्भ कर (देवों ) एवं संज्ञा के लिए भी मौन होकर आहुति डालें । माघ मास की सप्तमी में वरुण नामक सूर्य की पूजा करनी चाहिए जिरामें उनके लिए सौ आहुति डालने का विधान कहा गया है। पश्चात् ब्राह्मणों को मधुर भोजन कराकर यथा शक्ति दक्षिणा देने से अभिलषित फलों की प्राप्ति होती है।11-12।
इसी प्रकार फाल्गुन मास में सूर्य, चैत्र में ब्वेतांशु, वैशाख में धाता, ज्येष्ठ में इन्द्र, आषाढ़ में रवि, सावन में नभ, भादों में यम, आशिन में पर्जन्य, कार्तिक में त्वष्टा, मार्गशीर्ष (अगहन ) में मित्र और पौष में विष्णु नामक सूर्य की पूजा करनी चाहिए इस प्रकार व्रत विधान द्वारा श्रद्धा भक्ति पूर्वक वर्ष के समस्त सूर्यों की पूजा सुसम्पन्न करने से प्रति दिन के सौभाग्य तथा बताये हुए सभी फलों की प्राप्ति होती है ।13-15।
इस भाँति वर्ष की समाप्ति में सुवर्ण का रथ, जिसमें भाँति-भाँति के रत्नों से सुशोभित सात घोड़े जुते हों, बनाके उसके मध्य भाग में शुद्ध सुवर्ण की बनायी गयी सूर्य की प्रतिमा जो सौन्दर्य पूर्ण रत्नों से अलंकृत एवं सुवर्ण के कमल पर स्थित स्थापित करके उस रथ के अग्रभाग पर सारथी की भी स्थापना करे। इसी प्रकार बारह मास के अधिपति रूप में बारह ब्राह्मणों की जिसके मध्य में आचार्य स्थित हों वस्त्र एवं रत्नों द्वारा पूजा करके उन्हें तथा आचार्य को वे प्रेतिमाएँ आदि समर्पित करे । रथ, छत्र, ग्राम, गायें और भूमि का दान आचार्य को तथा उन मासों के अधीन ब्राह्मणों को घोड़े प्रदात करे । और भक्तिपूर्वक सुवर्ण और रत्नों के आभूषण भी देकर एवं उन्हें नग्स्कार करते हुए पूर्ण वर्ष के ब्रत दो पूर्ण होने का निवेदन भी करे । पश्चात् यदि ब्रत न भी करे तो कोई दोष नहीं होता है ।16-22।
पुनः नमस्कार के उपरान्त ब्राह्मण समेत आचार्य उसको ‘एवमस्तु’ कहकर स्वीकार करे और भाँति-भाँति के आशीर्वाद देते हुए प्रसन्न रहे ।23।
और जिसे मनोरथ के लिए तुमने आदित्यं की आराधना की है वे उसे सफल करते हुए ब्रत को पूर्ण करे | यजमान से यह भी कहे ।24।
क्योंकि आचार्य में ब्राह्मण रूप से सूर्य स्वयं प्रवेश कर तुम्हें समस्त फल देंगे ऐसा सूर्य ने स्वयं कहा है ।25।
इस भाँति ब्रतानुष्ठान में गुणवान् एवं निर्धन ब्राह्मणों तथा विशेषकर दीन हीन अंधे एवं निःसहाय व्यक्तियों को शक्त्यनुसार दान-दक्षिणा तथा भोजन कराकर वह ब्रत समाप्त करना चाहिए ।26।
इस प्रकार पूर्ण वर्ष की सप्तमी के ब्रत विधान सुसम्पन्न करने से वह राजा धार्मिक होता है यदि ब्रतानुष्ठान करने वाली स्त्री होतो वह राजा की परम प्रेयसी रानी होती है 27।
और सौ योजन का लम्बा चौड़ा राज्य शत्रु रहित एवं निष्कण्टक राज्य मंडल प्राप्त कर सौ वर्ष तक उसका उपभोग करते हुए सुखी जीवन प्राप्त करता है ।28।
यदि कोई निर्धन (व्यक्ति) भी भक्ति पूर्वक ताँबे का रथ बनवा कर विधि पूर्वक व्रत की समाप्ति में दान करता है तो उसे असी योजन के भूमण्डल का राज्य प्राप्त होता है, दीर्घायु, आरोग्य समेत सुखी जीवन प्राप्त होता है तथा अन्त में एक कल्प तक सूर्य का निवास भी प्राप्त होता है ।29-30।
इस प्रकार जो मनुष्य भक्ति पूर्वक दत्तचित्त होकर सूर्य की केवल मानसिक पूजा करता है तो उसे भी सभी अवस्थाओं में स्वस्थ जीवन प्राप्त हो जाता है।31।
और सूर्य को नीहार (कुहरा ) की भांति आपत्तियाँ उसे छू तक नहीं सकती । और जो इस विधान को जानदे हुए भक्ति पूर्वक फलसिद्धि के लिए सविधि ब्रत करते हुए मंत्रों से रक्षित रहते हैं उन्हें क्या कहा जा सकता है (अर्थात् उन्हें असंख्य सुख साधन की प्राप्ति होती है) ।32-33।
हे साम्ब ! पहले कल्प में कल्याणमय इस कल्प को सूर्य ने मुझसे कहा था और मैंने भी इसे सदैव गुप्त ही रखा था ।34।
हे वत्स ! इसलिए यदि उत्तम फल की कामना हो तो शुद्ध हृदय से इसी विधान द्वारा सूर्य की आराधना करे । ।35।
इन्हीं की प्रसत्षता वश मुझे हजारों पुत्रों की प्राप्ति, असुरों पर विजय एवं सभी देवगण मेरी अधीनता स्वीकार करते है।36।
अतः तू भी सूर्य-प्रिय इस कल्प को गुप्त रखना, क्योंकि इस कल्प की प्रसन्नता वश सूर्य सदैव भेरे चक्र के समीप ही रहते हैं जिसके. द्वारा सुर असुर, मनुष्य और साँपों आदि का पराजय किया है। 37।
वे (सूर्य) यदि अपनी किरणों समेत इस चक्र में सबन्निहित न रहते तो इसमें इतनी कान्ति एवं हनन की शक्ति कहाँ से होती ।38।
इसीलिए नित्य इनका पूजन, जप और यथाशक्ति ध्यान करता हूँ और इन्हीं की आराधना करने के नाते मनुष्यादि के सभी मनोरथ में तेज के द्वारा श्रेष्ठ और पूज्य हैं।39।
तू भी मन वाणी एवं कर्म द्वारा अपने मनो रथ की सफलता के लिए इसी विधान से इनकी भक्ति करो।40।
हे पुत्र! जो पुरुष-भक्तिपूर्वक इसे सुनता है, यह विधि पूर्वक सप्तमी का ब्रत करता है उसे सभी प्रकार की सफलता आरोग्य, विजय और पूर्व लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, तथा कालान्तर में सूर्य के भवन को प्राप्ति होती है ।41-42
श्री भविष्य महापुराण में ब्राह्म पर्व के सप्तमी कल्प में सप्तमी माहत्म्य वर्णन, पचासवाँ अध्याय समाप्त ।५०।
सप्तमी तिथि से जुडी हुयी कुछ अन्य जानकारियाँ –
सप्तमी तिथि का पुराणों में महत्व है. क्युकी सप्तमी तिथि भद्र तिथियों में आती है. यहाँ सप्तमी तिथि के कुछ प्रमुख व्रत और त्योहार है –
रथ सप्तमी तिथि –
माघ महीने की सप्तमी तिथि को मनाई जाती है. मान्यता है कि इस दिन भगवान सूर्य की पहली किरण पृथ्वी पर आई थी. इस दिन सूर्यदेव की पूजा करने से पापों से मुक्ति मिलती है. जल्दी ही हम रथ सप्तमी तिथि का शास्त्रीय प्रमाण देने की कोशिश करेंगे।
अचला सप्तमी तिथि –
माघ महीने के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को मनाई जाती है. यह व्रत गुप्त नवरात्रि के दौरान होता है. इस व्रत को करने से हर तरह के संकट से छुटकारा मिलता है. जल्दी ही हम अचला सप्तमी तिथि का शास्त्रीय प्रमाण देने की कोशिश करेंगे।
संतान सप्तमी तिथि –
भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को मनाई जाती है. यह व्रत विवाहित महिलाएं अपने बच्चों की भलाई के लिए रखती हैं. इस दिन भगवान सूर्य और लड्डू गोपाल की पूजा की जाती है. जल्दी ही हम संतान सप्तमी तिथि का शास्त्रीय प्रमाण देने की कोशिश करेंगे।
गंगा सप्तमी तिथि –
वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को मनाई जाती है. मान्यता है कि इस दिन मां गंगा धरती पर अवतरित हुई थीं. इस दिन मां गंगा की पूजा करने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है. जल्दी ही हम गंगा सप्तमी तिथि का शास्त्रीय प्रमाण देने की कोशिश करेंगे।
अगर सप्तमी तिथि बुधवार को होती है तो सिद्धा कहलाती है. ऐसे समय कार्य सिद्धि की प्राप्ति होती है. लेकिन अगर सप्तमी तिथि शुक्रवार को पड़ती है तो क्रकच योग बनाता है, जो अशुभ होता है.