श्री शिव पुराण माहात्म्य
अध्याय – 1 – शौनक जी के साधन विषय प्रश्न करने पर सूत जी का उन्हें शिव पुराण की उत्कृष्ट महिमा सुनाना
श्रीशौनकजी ने पुछा – महाज्ञानी सूतजी! आप सम्पूर्ण सिद्धान्तों के ज्ञाता हैं। प्रभो ! मुझसे पुराणों की कथाओं के सार तत्व का विशेष रूप से वर्णन कीजिये ।
ज्ञान और वैराग्य सहित भक्ति से प्राप्त होने वाले विवेक की वृद्धि कैसे होती है? तथा साधु पुरुष किस प्रकार अपने काम-क्रोध आदि मानसिक विकारों का निवारण करते हैं? इस घोर कलिकाल में जीव प्रायः आसुर स्वभाव के हो गये हैं, उस जीव समुदाय को शुध्द (दैवी सम्पत्ति से युक्त) बनाने के लिये सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है ?
आप इस समय मुझे ऐसा कोई शास्वत साधन बताइये, जो कल्याणकारी वस्तुओं में भी सबसे उत्कृष्ट एवं परम मंगलकारी हो तथा पवित्र करने वाले उपायों में भी सर्वोत्तम पवित्र कारक उपाय हो।
तात ! वह साधन ऐसा हो, जिसके अनुष्ठान से शीघ्र ही अन्त:करण की विशेष शुद्धि हो जाय तथा उससे निर्मल चित्त वाले पुरुष कों सदा के लिए शिव की प्राप्ति हो जाय।
श्री सूत जी ने कहा – मुनिश्नेष्ठ शौनक ! तुम धन्य हो; क्योंकि तुम्हारे हृदय में पुराण-कथा सुनने का विशेष प्रेम एवं लालसा है। इसलिये मैं शुद्ध बुध्दि से विचार कर तुमसे परम उत्तम शात्र का वर्णन करता हूँ। वत्स ! सह सम्पूर्ण शास्त्रों के सिद्धांत से सम्पन्न, भक्ति आदि को बढ़ाने वाला तथा भगवान् शिव को संतुष्ट करने वाला है, कानों के लिये रसायन अमृतस्वरूप तथा दिव्य है, तुम उसे श्रवण करो। मुने ! वह परम उत्तम शास्त्र है -शिवपुराण, जिसका पूर्वकाल में भगवान् शिव ने ही प्रवचन किया था। यह कालरूपी सर्प से प्राप्त होने वाले महान त्रास का विनाश करने वाला उत्तम साधन है। गुरुदेव व्यास ने सनत्कुमार मुनि का उपदेश पाकर बड़े आदर से संक्षेप में ही इस पुराण का प्रतिपादन किया है।
इस पुराण के प्रणयन का उदेश्य है – कलियुग में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों के परम हित का साधन।
यह शिवपुराण परम उत्तम शास्त्र है। इसे भूतल पर भगवान् शिव का वांग्मय स्वरूप समझना चाहिये और सब प्रकार से इसका सेवन करना चाहिये। इसका पठन और श्रवन सर्व साधन रूप है। इससे दिव्य-भक्ति पाकर श्रेष्ठतम स्थिति में पहुँचा हुआ. मनुष्य शीघ्र ही शिवपद को प्राप्त कर लेता है। इसलिए ये सम्पूर्ण यत्न करके मनुष्यों ने इस पुराण को पढ़ने की इच्छा की है अथवा इसके अध्ययन को अभीष्ट साथन मानता है।
इसी तरह इसका प्रेमपूर्वक श्रवण भी सम्पूर्ण मनोवाच्छित फलों को देने वाला है। भगवान् शिव के इस पुराण को सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है तथा इस जीवन में बड़े-बड़े उत्कृष्ट भोगों का उपभोग करके अन्त में शिवलोक को प्राप्त कर लेता है।
यह शिवपुराण नामक ग्रन्थ चौबीस हजार श्लोको से युक्त है। इसकी सात संहिताएँ हैं। मनुष्य को चाहिये कि वह भक्ति, ज्ञान और वैराग्य से संपन्न हो, बढ़े आदर से इसका श्रवण करे। सात संहिताओं से युक्त यह दिव्य शिवपुराण परब्रह्म परमात्मा के समान विराजमान है, और सबसे उत्कृष्ट गति प्रदान करने वाला है।
जो निरन्तर अनुसंथान पूर्वक इस शिवपुराण को बांचता है अधवा नित्य प्रेमपूर्वक इसका पाठमात्र करता है, वह पुण्यात्मा है। इसमें संशय नहीं है । जो उत्तम बुद्धिबाला पुरुष अन्तकाल में भक्तिपूर्वक इस पुराण को सुनता है, उस पर अत्यन्त प्रसन्न हुए भगवान् महेश्वर उसे अपना पद (धाम) प्रदान करते हैं। जो प्रतिदिन आदरपूर्वक इस शिवपुराण का पूजन करता है, यह इस संसार में सम्पूर्ण भोगों कों भोगकर अंत में भगवान् शिव के पद को प्राप्त कर लेता है।
जो अतिदिन आलस्य रहित हो रेशमी वस्त्र आदि के वेष्ठन से इस शिवपुराण का सत्कार करता है, यह सदा सुखी होता है। यह शिवपुराण निर्मल तथा भगवान शिव का सर्वस्व है। जो इहलोक और परलोक में भी सुख चाहता हो, उसे आदर के साथ प्रयत्न पूर्वक इसका सेवन करना चाहिए। यह निर्मल एवं उत्तम शिव पुराण धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप चारों पुरुषार्थो को देने वाला है। अतः सदा प्रेमपूर्वक इसका श्रवण और विशेष पाठ करना चाहिए।
— अध्याय – 1 समाप्त —
अध्याय – 2-3 – शिवपुराण के श्रवण से देवराज को शिवलोक की प्राप्ति तथा चंचुलता का पाप से भय और संसार से वैराग्य
श्री शौनक जी कहा – महाभाग – सूत जी ! आप धन्य है, परमार्थ-तत्व के ज्ञाता है, आपने कृपा करके हम लोगो को यह बड़ी अद्रभुत एवं दिव्य कथा सुनाई है। भूतल पर इस कथा के समान कल्याण का सर्वश्रेष्ठ साधन दूसरा कोई नहीं है, यह बात हमने आज आपकी कृपा से निश्चय-पूर्वक समझ ली।
सूतजी ! कलियुग में इस कथा के द्वारा कौन कौन से पापी शुद्ध होते है? उन्हें कृपापूर्वक बताइये और इस जगत को कृतार्थ कीजिये।
सूतजी बोले – मुने ! जो मनुष्य पापी, दुराचारी, खल तथा काम-क्रोध आदि में निरन्तर डूबे रहने वाले हैं, ये भी इस पुराण के श्रवण-पठन से अवश्य ही शुद्ध हो जाते हैं। इसी विषय में जानकार मुनि इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जिसके श्रवण-मात्र से पापों का पूर्णतया नाश हो जाता है।
पहले की बात है, कहीं किरातों के नगर में एक ब्राह्मण रहता था, जो ज्ञान में अत्यन्त दुर्बल, दरिद्र, रस बेचने वाला तथा वैदिक धर्म से विमुख था। वह स्नान-संध्या आदि कर्मों से भ्रष्ट हों गया था और वैश्यवृत्ति में तत्पर रहता था। उसका नाम था देवराज।
वह अपने ऊपर विश्वास करने वाले लोगों को ठगा करता था। उसने ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शुद्रो तथा दूसरो को भी अनेक बहानों से मारकर उनका धन हड़प लिया था। परन्तु उस पापी का धोड़ा-सा भी मन कभी घर्म के काम में नहीं लगा था। वह वैश्यागामी तथा सब प्रकार से आचारण भ्रष्ट था। एक दिन घूमता-घामता वह दैव्योग से प्रतिष्ठानपुर (**झूसी-प्रयाग) में जा पहुँचा।
(**आज भी झूँसी (Jhunsi) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के प्रयागराज ज़िले के पूर्व में अंधेरनगरी और प्रतिष्ठानपुर ( Pratishthan Pur) नाम से ही जाना जाता है।)
वहाँ उसने एक शिवालय देखा, जहाँ बहुत से साधु-महात्मा एकत्र हुए थे । देवराज उस शिवालय में ठहर गया, किंतु यहाँ उस ब्राह्मण को ज्वर आ गया । उस ज्वर से उसको बड़ी पीड़ा होने लगी । वहाँ एक ब्राह्मण देवता शिवपुराण की कथा सुना रहे थे । ज्बर में पड़ा हुआ देवराज ब्राह्मण के मुखारविन्द से निकली हुईं उस शिवकथा को निरन्तर सुनता रहा। एक मास के बाद वह ज्वर से अत्यंत पीड़ित होकर चल वसा। यमराज के दूत आये और उसे पाशों से बाँधकर बल पूर्वक यमपुरी में ले गयें। इतने में ही शिवलोक से भगवान् शिव के पार्षदगण आ गये । उनके गौर अंग कर्पूर के समान उज्ज्वल थे, हाथ त्रिशूल से सुशोभित हो रहे थे, उनके सम्पूर्ण अंग भस्म से उद्धभाषित हो रहे थे और रुद्राक्ष की मालाएँ उनके शरीर की शोभा बढ़ा रही थीं। सब-के-सब क्रोध-पूर्वक यमपुरी में गये और यमराज के दूतों को मार-पीटकर, बारंबार धमकाकर उन्होंने देवराज कों उनके चंगुल से छुड़ा लिया और अत्यन्त अद्भुत विमान पर बैठाकर जब वे शिवदूत कैलाश जाने को उद्यत हुए, उस समय यमपुरी में बड़ा भारी कोलाहल मच गया। उस कोलाहल को सुनकर धर्मराज अपने भवन से बाहर आये। साक्षात् दूसरे रुद्रों के समान प्रतीत होने वाले उन चारों दूतों को देखकर धर्मज्ञ थर्मराज ने उनका विधिपूर्वक पूजन किया और ज्ञानदृष्टि से देखकर सारा वृत्तान्त जान लिया। उन्होंने भय के कारण भगवान शिव के उन महात्मा दूतों से कोई बात नहीं पूछी, उलटे उन सबकी पूजा एवं प्रार्थना की। तत्पश्चात् वे शिवदूत कैलाश को चले गये और यहाँ पहुँचकर उन्होंने उस ब्राह्मण को दयासागर साम्ब-शिव के हाथॉ में दे दिया।
शौनक जी ने कहा – महाभाग सूतजी ! आप सर्वज्ञ हैं। महामते! आपके कृपाप्रसाद से मैं बारंबार कृतार्थ हुआ। इस इतिहास कों सुनकर मेरा मन अत्यन्त आनन्द में निमग्र हो रहा है। अतः: अब भगवान् शिव में प्रेम बढ़ाने बाली शिव-सम्बन्धिनी दूसरी कथा को भी कहिये।
श्रीसूतजी बोले – शौनक ! सुनो, मैं तुम्हारे सामने गोपनीय कथावस्तु का भी वर्णन करूँगा; क्योंकि तुम शिव-भक्तों में अग्रगण्य तथा बेदबेत्ताओं में श्रेष्ठ हो।
समुद्र के निकटवर्ती प्रदेश में एक बाष्कल नामक ग्राम है, जहाँ वैदिक धर्म से विमुख महापापी द्विज निवास करते हैं। वे सब-के-सब बड़े दुष्ट हैं, उनका मन दूषित विषय-भोगों में ही लगा रहता है। वे न देवताओं पर विश्वास करते हैं न भाग्य पर; वे सभी कुटिल बुद्धि बाले हैं। किसानी करते और भाँति-भाँति के घातक अस्त्र-शस्त्र रखते हैं। वे व्यभिचारि और खल हैं। ज्ञान, वैराग्य तथा सद्धर्म का सेवन ही मनुष्य के लिए परम पुरुषार्थ है, – इस बात को वे बिल्कुल नहीं जानते है। वे सभी पशुवुद्धि वाले है। (जहाँ के द्विज ऐसे हों, वहाँ के अन्य वर्णों के बिषय में क्या कहा जाय।) अन्य वर्णों के लोग भी उन्हीं की भाँति कुत्सित विचार रखने वाले स्वधर्म-विमुख एवं खल हैं; वे सदा कुकर्म में लगे रहते और नित्य विषय भोगों में ही डूबे रहते हैं। वहाँ की सब स्त्रियाँ भी कुटिल स्वभाव की,स्वेच्छाचारिणी, पापासक्त, कुत्सित विचारवाली और व्यभचारिणी है, वे सदव्यवहार तथा सदाचार से सर्वथा शून्य हैं। इस प्रकार वहाँ दुष्टों का ही निवास है।
उस बाष्कल नामक ग्राम में किसी समय एक बिन्दुग नामधारी ब्राह्मण रहता था, वह बड़ा अधम था। दुरात्मा और महापापी था। यद्यपि उसकी स्त्री बड़ी सुन्दरी थी, तो भी वह कुमार्ग पर ही चलता था । उसकी पत्नी का नाम चाँचुन्लता था; बह सदा उत्तम धर्म के पालन में लगी रहती थी, तो भी उसे छोड़कर यह दुष्ट ब्राह्मण वैश्यागामी हो गया था। इस तरह कुकर्म में लगे हुए उस बिन्दुग के बहुत वर्ष व्यतीत हो गये । उसकी स्त्री चञ्चुलता काम से पीड़ित होने पर भी स्वधर्मनाश के भय से क्लेश सहकर भी दीर्घकाल तक धर्म से भ्रष्ट नहीं हुई । परन्तु दुराचारी पति के आचरण से प्रभावित हो आगे चलकर वह स्त्री भी दुराचारिणी हो गयी।
इस तरह दुराचार में डूबे हुए उन मूढ़ चित्त वाले पति-पत्नी का बहुत सा समय व्यर्थ बीत गया । तदनंतर शूद्र जातीय वैश्या का पति बना हुआ वह दूषित बुद्धि वाला दुष्ट ब्राह्मण बिन्दुग समयानुसार मृत्यु को प्राप्त हो नरक में जा पढ़ा। बहुत दिनों तक नरक के दुःख भोगकर वह मूढ़ बुद्धि पापी विन्ध्यपर्वत पर भयंकर पिशाच हुआ । इधर, उस दुराचारी पति बिन्दुग के मर जाने पर वह मूढ़ दया चंचुला बहुत समय तक पुत्रों के साथ अपने घर में ही रही।
एक दिन दैवयोग से किसी पुण्य पर्व के आने पर वह स्त्री भाई-बन्धुओं के साथ गोकर्ण क्षेत्र में गयी । तीर्थ यात्रियों के संग से उसने भी उस समय जाकर किसी तीर्थ के जल में स्नान किया । फिर वह साधारणतया (मेला देखने की दृष्टि से) बन्धुजनो के साथ यत्र-तत्र घूमने लगी । घूमती-घामती किसी देव मंदिर में गयी और यहाँ उसने एक दैवज्ञ ब्राह्मण के मुख से भगवान शिव की परम पवित्र एवं मंगलकारी उत्तम पौराणिक कथा सुनी।
कथा वाचक ब्राह्मण कह रहे थे कि ‘जो स्त्रियाँ परपुरुषो के साथ व्यभिचार करती है, वे मरने के बाद जब यमलोक में जाती हैं, तब यमराज के दूत उनकी योनि में तपे हुए लोहे का परिघ डालते हैं।
पौराणिक ब्राह्मण के मुख से यह वैराग्य बढ़ाने वाली कथा सुनकर चञ्चुला भय से व्याकुल हो वहाँ काँपने लगी । जब कथा समाप्त हुई और सुनने वाले सब लोग वहाँ से बाहर चले गये, तब यह भयभीत नारी एकान्त में शिवपुराण की कथा वांचने वाले उन ब्राह्मण देवता से बोली।
चञ्चुला ने कहा – ब्रह्मन! मैं अपने धर्म कों नहीं जानती थी । इसलिए मेरे द्वारा बड़ा दुराचार हुआ है । स्वामिन ! मेरे ऊपर अनुपम कृपा करके आप मेरा उद्धार कीजिये। आज आपके वैराग्य-रस से ओतत्रोत इस प्रवचन को सुनकर मुझे बड़ा भय लग रहा है। मैं काँप उठी हूं और मुझे इस संसार से वैराग्य हो गया है। मुझ मूढ़ चित्तवाली पापिनी को धिक्कार है। मैं सर्वथा निन्दा के योग्य हूँ। कुत्सित विषयों फँसी हुई हूँ, और अपने धर्म से विमुख हो गयी हूँ।
हाय ! न जाने किस-किस घोर कष्टदायक दुर्गति में मुझे पड़ना पढ़ेंगा और यहाँ कौन बुद्धिमान पुरूष कुमार्ग में मन लगाने वाली मुझ पापिनी का साथ देगा।
मृत्युकाल में उन भयंकर यमदूतों को मैं कैसे देखूगी? जब वे बलपूर्वक मेरे गले में फंदे डालकर मुझे बाँधेंगे, तव मैं कैसे धीरज धारण कर सकुँगी । नरक में जब मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े किये जायेंगे, उस समय विशेष दुःख देने वाली उस महा यातना को मैं वहाँ कैसे सहूंगी?
हाय ! मैं मारी गयी ! मैं जल गयी ! मेरा हृदय विदीर्ण हो गया और मैं सब प्रकार से नष्ट हो गयी; क्योंकि मैं हर तरह से पाप में ही डूबी रही हैं। ब्रह्मन ! आप ही मेरे गुरु, आप ही माता और आप ही पिता हैं। आपकी शरण में आयी हुयी, मुझ दीन अबला का आप ही उद्धार कीजिये ।
सूतजी कहते हैं – शौनक ! इस प्रकार खेद और वैराग्य से युक्त हुई चांचुलता ब्राह्मण-देवता के दोनों चरणों में गिर पड़ी । तब उन बुद्धिमान् ब्राह्मण ने कृपापूर्वक उसे उठाया और इस प्रकार कहा ।
— अध्याय 2-3 समाप्त —
अध्याय – ४ – चञ्चुला की प्रार्थना से ब्राह्मण का उसे पूरा शिवपुराण सुनाना और समयानुसार शरीर छोड़कर में जा, चंचुला का पार्वती जी की सखी एवं सुखी होना।
ब्राह्मण बोले – नारी ! सौभाग्य की बात है कि भगवान् शंकर की कृपा से शिवपुराण की इस वैराग्य युक्त कथा कों सुनकर तुम्हें समय पर चेत हो गया है।
ब्राह्मण पत्नी! तुम डरो मत। भगवान् शिव की शरण में जाओ। शिव की कृपा से सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाता है । मैं तुमसे भगवान् शिव की कीर्ति कथा से युक्त उस
परम वस्तु का वर्णन करूँगा, जिससे तुम्हें सदा सुख देने वाली उत्तम गति प्राप्त होगी।
शिव की उत्तम कथा सुनने से ही तुम्हारी बुद्धि इस तरह पश्चात्ताप से युक्त एवं शुद्ध हो गयी है। साथ ही तुम्हारे मन में विषयों के प्रति वैराग्य हो गया है। पश्चात्ताप ही पाप
करने वाले पापियों के लिये सबसे बड़ा प्रायश्चित हैं। सत्पुरुषों ने सबके लिए पश्चाताप को ही समस्त पापों का शोधक बताया है, पश्चाताप से ही पापों की शुद्धि होती है। जो पश्चाताप करता है, वही वास्तव में पापों का प्रायश्चित करता है।
क्योंकि सत्पुरुषों ने समस्त पापों की शुद्धि के लिये जैसे प्रायश्चित का उपदेश किया है, वह सब पश्चाताप से सम्पन्न हो जाता है। जो पुरुष विधिपूर्वक प्रायश्चित्त करके निर्भय हो जाता है, पर अपने कुकर्म के लिये पश्चात्ताप नहीं करता, उसे प्राय: उत्तम गति नहीं प्राप्त होती। परंतु जिसे अपने कुकृत्य पर हार्दिक पश्चात्ताप होता है, वह अवश्य उत्तम गति का भागी होता हैं, इसमें संशय नहीं।
इस शिवपुराण की कथा सुनने से जैसी चित्त-शुद्धि होती है, वैसी दूसरे उपायों से नहीं होती। जैसे दर्पण साफ करने पर निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार इस शिवपुराण की कथा से चित्त अत्यंत शुध्द हो जाता है। इसमें संशय नहीं है। मनुष्यों के शुद्धचित्त में जगदम्बा पार्वती-सहित भगवान शिव विराजमान रहते हैं। इससे वह विशुद्धात्मा पुरुष श्रीसाम्ब सदाशिव के पद को प्राप्त होता है। इस उत्तम कथा का श्रवण समस्त मनुष्यों के लिए कल्याण का बीज है। अतः यथोचित (शास्त्रोक्त) मार्ग से इसकी आराधना अथवा सेवा करनी चाहिये। यह भव-बन्धन रूपी रोग का नाश करने बाली है। भगवान् शिव जी कथा को सुनकर फिर अपने हृदय में उसका मनन एवं निदिध्यासन ‘करना चाहिये । इससे पूर्णतया चित्तशुद्धि हो जाती है। चित्तशुद्धि होने से महेश्वर की भक्ति अपने दोनों पुत्रों (ज्ञान और वैराग्य) के साथ निश्चय ही प्रकट होती है। तत्पश्चात् महेश्वर के अनुग्रह से दिव्य मुक्ति प्राप्त होती है, इसमें संशय नहीं है। जो मुक्ति से वंचित है, उसे पशु समझना चाहिये; क्योंकि उसका चित्त माया के बंधन में आसक्त है। वह निश्चय ही संसार बन्धन से युक्त नहीं हो पाता।
ब्राह्मणपत्नी! इसलिये तुम विषयों से मन को हटा लो और भक्ति भाव से भगवान् शंकर की इस परम पावन कथा को सुनो।
परमात्मा शंकर की इस कथा को सुनने से तुम्हारे चित्त की शुद्धि होगी और इससे तुम्हें मोक्ष की प्राप्ति हो जायगी। जो निर्मल चित्त से भगवान् शिव के चरणारविन्दों का चिन्तन करता हैं, उसकी एक ही जन्म में मुक्ति हो जाती है। यह मैं तुमसे सत्य-सत्य कहता हूँ।
सूतजी कहते हैं – शौनक ! इतना कहकर वे श्रेष्ठ शिव भक्त ब्राह्मण चुप हो गये। उनका ह्रदय करुणा से आर्द्र हो गया था। वे शुद्धचित्त महात्मा भगवान् शिव के ध्यान में मग्न हो गये। तदनन्तर बिन्दुग की पत्नी चंचुला मन ही मन प्रसन्न हो उठी। ब्राह्मण का उक्त उपदेश सुनकर उसके नेत्रो में आनंद के आँसू छलक आये थे। वह
ब्राह्मण पत्नी चंचुला हर्ष भरे हृदय से उन श्रेष्ठ ब्राद्मण के दोनों चरणों में गिर पढ़ी और हाथ जोड़कर बोली – ‘में कृतार्थ हो गयी।‘
तत्पश्चात उठकर वैराग्य युक्त उत्तम बुद्धिवाली वह स्त्री, जो अपने पापों के कारण आतंकित थी, उन महान् शिव-भक्त ब्राह्मण से हाथ जोड़कर गदगद वाणी में बोली।
चंचुला ने कहा – ब्रह्मन् ! शिवभक्तों में श्रेष्ठ ! स्वामिन् ! आप अत्य हैं, पारमर्थदर्शी हैं और सदा परोपकार में लगे रहते हैं। इसलिये श्रेष्ठ साधू पुरुषों में प्रशंसा के योग्य हैं।
साधो ! मैं नरक के समुद्र में गिर रही हूँ। आप मेरा उद्धार कीजिये, उद्धार कीजिये । पौराणिक अर्थ-तत्व से सम्पन्न जिस सुन्दर ‘शिवपुराण की कथा को सुनकर मेरे मन में
स्म्म्पूर्ण विषयों से वैराग्य उत्पन्न हो गया, उसी शिवपुराण को सुनने के लिए इस समय मेरे मन में बड़ी श्रद्धा हो रही है।
सूत जी कहते हैं – ऐसा कहकर हाथ जोड़ उनका अनुप्रह पाकर चंचुला उस शिव पुराण की कथा को सुनने की इच्छा मन में लिये उन ब्राह्मण देवता की सेवा में तत्पर हो वहाँ रहने लगी। तदनन्तर शिवभक्तों में श्रेष्ठ और शुद्ध बुद्धि वाले उन ब्राह्मण देव ने उसी स्थान पर उस स्त्री कों शिवपुराण की उत्तम कथा सुनायी। इस प्रकार उस गोकर्ण नामक महाक्षेत्र में उन्हीं श्रेष्ठ ब्राह्मण से उसने शिवपुराण की वह परम उत्तम कथा सुनी, जो भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को बढ़ाने बाली तथा मुक्ति देने वाली है। उस परम उत्तम कथा को सुनकर वह ब्राह्मण पत्नी अत्यन्त कृतार्थ हो गयी । उसका चित्त शीघ ही शुद्ध हो गया। फिर भगवान् शिव के अनुग्रह से उसके हृदय में शिव के सगुणरूप का चिन्तन होने लगा। इस प्रकार उसने भगवान शिव में लगी रहने वाली उत्तम बुद्धि पाकर शिव के सच्चिदानन्दमय स्वरूप का बाारंबार चिन्तन
आरम्भ किया। तत्पश्चात् समय के पूरे होने पर भक्ति, ज्ञान और वैराग्य से युक्त हुई चच्चुला ने अपने शरीर को बिना किसी कष्ट के त्याग दिया।
इतने में ही त्रिपुरशत्रु भगवान् शिव का भेजा हुआ एक दिव्य विमान तेज गति से वहाँ पहुँचा, जो उनके अपने गणों से संयुक्त और भाँति-भाँति के शोभा-साथनों से सम्पन्न था। चंचुला उस विमान पर आरूढ़ हुई और भगवान शिव के श्रेष्ठ पार्षदों ने उसे तत्काल शिवपुरी में पहुँचा दिया। उसके सारे मल धुल गये थे। वह दिव्यरूपधारिणी दिव्यागना हो गयी थी । उसके दिव्य अवयव उसकी शोभा बढ़ाते थे। मस्तक पर अर्धचन्द्र का मुकुट धारण किये वह गौरांगी देवी शोभाशाली दिव्य आभूषणों से विभूषित थी।
शिवपुरी में पहुँचकर उसने सनातन देवता त्रिनेत्रधारी महादेव जी को देखा। सभी मुख्य-मुख्य देवता उनकी सेवा में खड़े थे। गणेश, भृंगी, नंदीश्वर, तथा वीरभद्रेश्वर आदि, उनकी सेवा में उत्तम भक्तिभाव से उपस्थित थे। उनकी अंगकान्ति करोड़ो सूर्यो के समान प्रकाशित हो रही थी | कण्ठ में नील चिन्ह शोभा पाता था। पाँच मुख और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र थे। मस्तक पर अर्द्ध चन्द्राकार मुकुट शोभा देता था। उन्होंने अपने वाम भाग में गौरी देवी को बिठा रखा था, जो विद्युत् पुंज के समान प्रकाशित थी। गौरीपति महादेवजी की कान्ति कपूर के समान गौर थी। उनका सारा शरीर स्वेत भष्म से भासित था। शरीर पर श्वेत वस्त्र झोभा पा रहे थे।
इस प्रकार परम उज्जवल भगवान् शंकर का दर्शन करके वह ब्राह्मण पत्नी चंचुला अति प्रसन्न हुयी। अत्यंत प्रीतियुक्त होकर उसने बड़ी उतावली के साथ भगवान् को बारम्बार प्रणाम किया। फिर हाथ जोड़कर वह बड़े प्रेम, आनन्द और संतोष से युक्त हो विनीतभाव से खड़ी हो गयी । उसके नेत्रों से आनन्दाश्रुओं की अविरल धारा बहने लगी तथा सम्पूर्ण शरीर में रोमांच हो गया। उस समय भगवती पार्वती और भगवान् शंकर ने उसे बड़ी करूणा के साथ अपने पास बुलाया और सौम्य दृष्टि से उसकी ओर देखा।
पार्वतीजी ने तो दिव्यरूपधारिणी बिन्दुग प्रिया चंचुला को प्रेमपूर्वक अपनी सखी बना लिया। बह उस परमानन्दघन ज्योतिःस्वरूप सनातन-धाम में अविचल निवास पाकर दिव्य सुख से सम्पन्न हो अक्षय सुख का अनुभव करने लगी ।
— अध्याय 4 समाप्त —
अध्याय 5 — चंचुला के प्रयत्न से पार्वती जी की आज्ञा पाकर तुम्बुरु का विंध्य पर्वत पर शिवपुराण की कथा सुनाकर बिन्दुग का पिशाच योनि से उद्दार करना तथा उन दोनों दम्पति का शिवधाम में सुखी होना
सुतजी बोले – शौनक ! एक दिन परमानन्द में निमग्न हुई चंचुला ने उमा देवी के पास जाकर प्रणाम किया और दोनों हाथ जोड़कर वह उनकी स्तुति करने लगी।
चंचुला बोली – गिरिराजनन्दिनी ! स्कन्दमाता उमे! मनुष्यों ने सदा आपका सेवन किया है। समस्त सूखों को देने वाली शम्भुप्रिये ! आप ब्रह्मस्वरूपिणी हैं। विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओ द्वारा सेव्य हैं।
आप ही सगुणा और निर्गुणा हैं तथा आप ही सूक्ष्मा सचिदानन्दस्वरूपिणी आद्या प्रकृति हैं। आप ही संसार की सृष्टि, पालन और संहार करने वाली हैं। तीनों गुणों का
आश्रय भी आप ही हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर – इन तीनों देवताओं का आवास स्थान ताथा उनको उत्तम अति प्रतिष्ठा करने वाली पराशक्ति आप ही हैं।
सूत जी कहते हैं – शौनक ! जिसे सदगति प्राप्त हो चुकी थी, वह चंचुला इस प्रकार महेश्वरपत्नी उमा की स्तुति करके सिर झुकाये चुप हो गयी । उसके नेत्रो में प्रेम के
आँसू उमड़ आयें थे । तब करुणा सें भरी हुई शंकरप्रिया भक्तवतस्ला पार्वती देवी ने चंचुला को सम्बोधित करके बड़े प्रेम से उससे इस प्रकार कहा।
पार्वती बोली – सखी. चंचुले ! सुन्दरि ! मैं तुम्हारी की हुईं इस स्तुति से बहुत प्रसन्न हूँ। बोलो, क्या वर माँगती हो ? तुम्हारे लिये मुझे कुछ भी अदेय नहीं है।
चंचुला बोली – निष्पाप गिरिराज कुमारी ! मेरे पति बिन्दुग इस समय कहाँ हैं, उनकी कैसी गति हुई है। यह मैं नहीं जानती।
कल्याणमयी दीनवत्सले ! मैं अपने उन पतिदेव से जिस प्रकार संयुक्त हो सकूँ , वैसा ही उपाय कीजिये । महेश्वरि! महादेवी! मेरे पति एक शूद्रजातीय वैश्या के प्रति आशक्त थे, और पाप में ही डूबे रहने थे | उनकी मृत्यु मुझसे पहले ही हो गयी थी। न जाने से किस गति कों प्राप्त हुए।
गिरिजा बोली – बेटी ! तुम्हारा बिन्दुग, नाम वाला पति यड़ा पापी था। उसका अंतकरण बड़ा ही दूषित था | वैश्या का उपभोग करने वाला वह महामूड मरने के बाद नरक में पड़ा, अगणित वर्षो तक नरक में नाना प्रकार के दुःख भोगकर वह पापात्मा अपने शेष पाप को भोगने के लिये विन्ध्यपर्वत पर पिसाच हुआ है। इस समय यह पिश्चाच अवस्था में ही है और नाना प्रकार के क्लेश उठा रहा है। वह दुष्ट वही वायु पीकर रहता और सदा सब प्रकार के कष्ट सहता है।
सूत जी कहते हैं – शौनक ! गौरीदेवी की यह बात सुनकर उत्तम व्रत का पालन करने वाली चंचुला उस समय पति के महान् दुःख से दुःखी हो गयी । फिर मन कों स्थिर करके उस ब्राह्मण पत्नी ने व्यथित हृदय से महेश्वरी को प्रणाम करके पुन: पूछा।
चंचुला बोली – महेश्वरि ! महादेवी ! मुझ पर कृपा कीजिये और दूषित कर्म करने वाले मेरे उस दुष्ट पति का अब उद्धार कर दीजिये। देवि ! कुत्सित बुद्धि वाले मेरे उस पापात्मा पति कों किस उपाय से उत्तम गति प्राप्त हो सकती है?, यह शीघ्र बताइये। आपको नमस्कार है।
पार्वती ने कहा – तुम्हारा पति यदि शिवपुराण की पुण्यमयी उत्तम कथा सुने तो सारी दुर्गति को पार करके वह उत्तम गति का भागी हो सकता है। अमृत के समान मधुर वचनों से युक्त गौरी देवी का यह वचन आदर पूर्वक सुनकर चंचुला ने हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर उन्हें बारम्बार प्रणाम किया और अपने पति के समस्त पापों की सुद्धि तथा उत्तम गति की प्राप्ति के लिये पार्वती देवी से यह प्रार्थना की कि मेरे पति कों शिवपुराण सुनाने की व्यवस्था होनी चाहिए। उस ब्राह्मण पत्नी के बारम्बार प्रार्थना करने पर शिवप्रिया गौरी देवी को बड़ी दया आयी। उन भक्तवत्सला महेश्वरी गिरिराजकुमारी ने भगवान् शिव की उत्तम कीर्ति का गान करने वाले गन्धर्वराज तुम्बुरु कों बुलाकर उनसे प्रसन्नतापूर्वक इस प्रकार कहा –
तुम्बरो ! तुम्हारी भगवान शिव में प्रीति है। तुम मेरे मन की बातों को जानकार मेरे अभीष्ट कार्य को सिद्ध करने वाले हो । इसलिये मैं तुमसे एक बात कहती हूँ । तुम्हारा कल्याण हो। तुम मेरी इस सखी के साथ शीघ्र ही विंध्यपर्वत पर जाओ। वहाँ एक महाघोर और भयंकर पिशाच रहता है। उसका वृतांत तुम आराम्भ से ही सुनो। मैं तुमसे प्रसन्नतापूर्वक सब बताती हूँ।
पूर्व जन्म में वह पिशाच, बिन्दुग नामक ब्राह्मण था। मेरी इस सखी चंचुला का पति था। परन्तु वह दुष्ट वैश्यागामी हो गया। स्नान-संध्या आदि नित्य कर्म छोड़कर अपवित्र रहने लगा । क्रोध के कारण उसकी बुद्धि पर मूढ़ता छा गयी थी। वह कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेक नहीं कर पाता था। अभक्ष्य भक्षण, सज्जनों से द्वेष और दूषित वस्तुओं का दान लेना, यही उसका स्वाभाविक कर्म बन गया था। वह अस्त्र शस्त्र लेकर हिंसा करता, बाएं हाथ से खाता, दीनों को सताता और क्रूरतापूर्वक पराये घरों में आग लगा देता था । चाण्डालो से प्रेम करता और प्रतिदिन वैश्या के सम्पर्क में रहता था । वह बड़ा दुष्टः था । वह पापी अपनी पत्नी का परित्याग करके दुष्टों के संग में ही आनन्द मानता था। वह मृत्युपर्यन्त दुराचार में ही फ़सा रहा। फिर अन्तकाल आने पर उसकी मृत्यु हो गयी । वह पापियो कि भोगस्थान घोर यमपुर में गया और वहाँ बहुत से नरको का उपभोग करके वह दुष्टात्मा जीव इस समय विन्थ्य-पर्वत पर पिशाच बना हुआ है। वहीं वह दुष्ट पिशाच अपने पापों का फल भोग रहा है।
तुम उसके आगे यत्न पूर्वक शिव पुराण की उस दिव्य कथा का प्रवचन करो, जो परम पुण्यमयी तथा समस्त पापों का नाश करने वाली है । शिवपुराण की कथा का श्रवण सबसे उत्कृष्ट पुण्य कर्म है। उससे उसका ह्रदय शीघ्र ही समस्त पापों से शुद्ध हो जायेगा और वह प्रेतयोनि का परित्याग कर देगा । उस दुर्गति से मुक्त होने पर बिन्दुग नामक पिशाच को मेंरी आज्ञा से विमान पर बिठाकर तुम भगवान शिव के समीप ले आओ।
सूतजी कहते है – शौनिक ! महेश्वरी उमा के इस प्रकार आदेश देने पर गन्धर्वराज तम्बुरु मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने भाग्य की सराहना की । तत्पश्चात उस पिशाच की सती-साध्वी पत्नी चंचुला के साथ विमान पर बैठकर नारद के प्रिय मित्र तुम्बुरू वेगपूर्वक विन्ध्याचल पर्वत पर गये, जहाँ वह पिशाच रहता था । वहाँ उन्होंने इस पिशाच को देखा । उसका शरीर विशाल था । ठोढ़ी बहुत बड़ी थी । वह कभी हँसता, कभी रोता और कभी उछलता था। उसकी आकृति बड़ी विकराल थी। भगवान् शिव् की उत्तम कीर्ति का गान करने वाले महाबली तुंबरू ने उस अत्यन्त भयंकर पिसाच कों पाशों द्वारा बाँध लिया । तदनंतर तुम्बुरु ने शिव पुराण की कथा बाँचने का निश्चय करके महोत्सव युक्त स्थान और मंडप आदि की रचना की। इतने में सम्पूर्ण लोकों में बड़े वेग से ये प्रचार हो गया कि देवी पार्वती की आज्ञा से एक पिसाच का उद्दार करने के उदेश्य से शिव पुराण की उत्तम कथा सुनाने के लिए तुंबरू विंध्यपर्वत पर गये हैं ।
फिर तो उस कथा को सुनने के लोभ से बहुत से देवर्षि भी शीघ्र ही वहां जा पहुँचे । आदर पूर्वक शिवपुराण सुनने के लिये आये हुए लोगों का उस पर्वत पर बड़ा अद्भुत कल्याण कारी समाज जुट गया। फिर तुम्बुरु ने उस पिसाच कों पाशो से बांधकर आसन पर बिठाया और हाथ में वीणा लेकर गौरी पति की कथा का गान आरम्भ किया ।
पहली अर्थात विन्धेश्वरसंहिता से लेकर सातवी वायुसंहिता तक माहात्म्य सहित शिवपुराण की कथा का उन्होंने स्पष्ट बर्णन किया । सातो संहिताओ सहित शिवपुराण का आदर-पूर्वक श्रवण करके वे सभी श्रोता पूर्णत: कृतार्थ हो गए उस पिशाच ने अपने सारे पापो को धोकर उस पैशाचिक शरीर को त्याग दिया।
फिर तो शीघ्र ही उसका रूप दिव्य हो गया । अंगकान्ति गौरवर्ण की हो गयी । शरीर पर श्वेत वस्त्र तथा सब प्रकार के पुरुषोचित आभूषण उसके अंगो कों उद्भाषित करने
लगे। वह त्रिनेत्रधारी चन्दशेखर रूप हो गया । इस प्रकार दिव्य देहधारी होकर श्रीमान विन्दुग अपनी प्राणवल्लभा चंचुला के साथ स्वयं भी पार्वतीवल्लभ भगवान् शिव का गुणगान करने लगा।
उसकी स्तिथि को इस प्रकार दिव्य रूप से सुशोभित देख वे सभी देवर्षि बड़े विस्मित हुए। उनका चित्त परमानन्द से परिपूर्ण हो गया । भगवान् महेश्वर का यह अद्रभुत चरित्र सुनकर वे सभी श्रोता परम कृतार्थ हो प्रेमपूर्वक श्रीशिव् का यशोगान करते हुए अपने-अपने धाम कों चले गये । दिव्यरूप धारी श्रीमान बिन्दुग भी सुन्दर विमान पर
अपनी प्रियतमा के साथ बैठकर सुख-पूर्वक आकाश में स्थित हो, बड़ी शोभा पाने लगा।
तदनन्तर महेश्वर के सुन्दर एवं मनोहर गु्णों का गान करता हुआ, वह अपनी प्रियतमा तथा तुम्बुरु के साथ शीघ्र ही शिवधाम में जा पहुँचा । वहाँ भगवान् महेश्वर
तथा पार्वती देवी ने प्रसन्नतापूर्वक बिन्दुग का बड़ा सत्कार किया और उसे अपना पार्षद बना लिया। उसकी पत्नी चंचुला भी पार्वती जी की सखी हो ही गयी थी। वे ज्योतिस्वरूप परमानन्द धाम में अविचल निवास पाकर वे दोनों दम्पति परम सुखी हो गए।
— अध्याय 5 समाप्त —
स्रोत – श्रीशिवमहापुराण
दंडवत आभार – श्रीगीता प्रेस – संक्षिप्त श्रीशिवमहापुराण – शिवमहापुराण माहात्म्य
( पेज संख्या 1 से लेकर 12 तक )
FAQs –
शिव पुराण कब शुरू करना चाहिए?
सावन के महीने में शिव पुराण को पढना और सुनना बहुत ही पुण्यदायी होता है
क्या शिवपुराण घर में रख सकते हैं?
बिल्कुल, बल्कि सभी लोगो को Shiva Purana (शिव पुराण) घर में रखना भी चाहिए और इसका पूजन भी करना चाहिए, क्युकी इसे साक्षात् शिव का स्वरुप बताया गया है।
शिव पुराण के रचयिता कौन है?
हर कल्प में अलग अलग श्री विष्णु के अंशावतार व्यास जी अवतार लेते है, और वे स्वयं ब्रह्मा जी के मुख से सुनकर फिर इसे मानव कल्याण के लिए इसकी रचना करते है।