नोट – इससे पहले आपने जाना कि जब श्रीकाकभुशुण्डि ने श्रीराम को साधारण बच्चा समझा?
अब आगे – जब बाल श्रीराम ने श्रीकाकभुशुण्डि जी को वरदान दिया? When Bal Shri Ram gave a boon to Shri Kakabhushundi Ji
हे धीर बुद्धि गरुड़जी! सुनिए, उनके हँसते ही मैं मुँह से बाहर आ गया।
श्री रामचंद्रजी मेरे साथ फिर वही लड़कपन करने लगे। मैं करोड़ों (असंख्य) प्रकार से मन को समझाता था, पर वह शांति नहीं पाता था। यह (बाल) चरित्र देखकर और पेट के अंदर (देखी हुई) उस प्रभुता का स्मरण कर मैं शरीर की सुध भूल गया और हे आर्तजनों के रक्षक! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए, पुकारता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। मुख से बात नहीं निकलती थी!।
तदनन्तर प्रभु ने मुझे प्रेमविह्वल देखकर अपनी माया की प्रभुता (प्रभाव) को रोक लिया। प्रभु ने अपना करकमल मेरे सिर पर रखा। दीनदयालु ने मेरा संपूर्ण दुःख हर लिया। सेवकों को सुख देने वाले, कृपा के समूह (कृपामय) श्री रामजी ने मुझे मोह से सर्वथा रहित कर दिया।
उनकी पहले वाली प्रभुता को विचार-विचारकर (याद कर-करके) मेरे मन में बड़ा भारी हर्ष हुआ। प्रभु की भक्तवत्सलता देखकर मेरे हृदय में बहुत ही प्रेम उत्पन्न हुआ। फिर मैंने (आनंद से) नेत्रों में जल भरकर, पुलकित होकर और हाथ जोड़कर बहुत प्रकार से विनती की।
मेरी प्रेमयुक्त वाणी सुनकर और अपने दास को दीन देखकर रमानिवास श्री रामजी सुखदायक, गंभीर और कोमल वचन बोले –
हे काकभुशुण्डि! तू मुझे अत्यंत प्रसन्न जानकर वर माँग। अणिमा आदि अष्ट सिद्धियाँ, दूसरी ऋद्धियाँ तथा संपूर्ण सुखों की खान मोक्ष, ज्ञान, विवेक, वैराग्य, विज्ञान, (तत्त्वज्ञान) और वे अनेकों गुण जो जगत् में मुनियों के लिए भी दुर्लभ हैं, ये सब मैं आज तुझे दूँगा, इसमें संदेह नहीं। जो तेरे मन भावे, सो माँग ले।
प्रभु के वचन सुनकर मैं बहुत ही प्रेम में भर गया। तब मन में अनुमान करने लगा कि प्रभु ने सब सुखों के देने की बात कही, यह तो सत्य है, पर अपनी भक्ति देने की बात नहीं कही। भक्ति से रहित सब गुण और सब सुख वैसे ही (फीके) हैं जैसे नमक के बिना बहुत प्रकार के भोजन के पदार्थ। भजन से रहित सुख किस काम के? हे पक्षीराज! ऐसा विचार कर मैं बोला-
हे प्रभो! यदि आप प्रसन्न होकर मुझे वर देते हैं और मुझ पर कृपा और स्नेह करते हैं, तो हे स्वामी! मैं अपना मनभाया वर माँगता हूँ। आप उदार हैं और हृदय के भीतर की जानने वाले हैं। आपकी जिस अविरल (प्रगाढ़) एवं विशुद्ध (अनन्य निष्काम) भक्ति को श्रुति और पुराण गाते हैं, जिसे योगीश्वर मुनि खोजते हैं और प्रभु की कृपा से कोई विरला ही जिसे पाता है। हे भक्तों के (मन इच्छित फल देने वाले) कल्पवृक्ष! हे शरणागत के हितकारी! हे कृपासागर! हे सुखधान श्री रामजी! दया करके मुझे अपनी वही भक्ति दीजिए।
‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) कहकर रघुवंश के स्वामी परम सुख देने वाले वचन बोले-
हे काक! सुन, तू स्वभाव से ही बुद्धिमान् है। ऐसा वरदान कैसे न माँगता?। तूने सब सुखों की खान भक्ति माँग ली, जगत् में तेरे समान बड़भागी कोई नहीं है। वे मुनि जो जप और योग की अग्नि से शरीर जलाते रहते हैं, करोड़ों यत्न करके भी जिसको (जिस भक्ति को) नहीं पाते। वही भक्ति तूने माँगी। तेरी चतुरता देखकर मैं रीझ गया। यह चतुरता मुझे बहुत ही अच्छी लगी।
हे पक्षी! सुन, मेरी कृपा से अब समस्त शुभ गुण तेरे हृदय में बसेंगे। भक्ति, ज्ञान, विज्ञान, वैराग्य, योग, मेरी लीलाएँ और उनके रहस्य तथा विभाग- इन सबके भेद को तू मेरी कृपा से ही जान जाएगा। तुझे साधन का कष्ट नहीं होगा। माया से उत्पन्न सब भ्रम अब तुझको नहीं व्यापेंगे। मुझे अनादि, अजन्मा, अगुण (प्रकृति के गुणों से रहित) और (गुणातीत दिव्य) गुणों की खान ब्रह्म जानना।
हे काक! सुन, मुझे भक्त निरंतर प्रिय हैं, ऐसा विचार कर शरीर, वचन और मन से मेरे चरणों में अटल प्रेम करना। अब मेरी सत्य, सुगम, वेदादि के द्वारा वर्णित परम निर्मल वाणी सुन। मैं तुझको यह ‘निज सिद्धांत’ सुनाता हूँ।
सुनकर मन में धारण कर और सब तजकर मेरा भजन कर।
यह सारा संसार मेरी माया से उत्पन्न है। (इसमें) अनेकों प्रकार के चराचर जीव हैं। वे सभी मुझे प्रिय हैं, क्योंकि सभी मेरे उत्पन्न किए हुए हैं। (किंतु) मनुष्य मुझको सबसे अधिक अच्छे लगते हैं। उन मनुष्यों में द्विज, द्विजों में भी वेदों को (कंठ में) धारण करने वाले, उनमें भी वेदोक्त धर्म पर चलने वाले, उनमें भी विरक्त (वैराग्यवान्) मुझे प्रिय हैं। वैराग्यवानों में फिर ज्ञानी और ज्ञानियों से भी अत्यंत प्रिय विज्ञानी हैं। विज्ञानियों से भी प्रिय मुझे अपना दास है, जिसे मेरी ही गति (आश्रय) है, कोई दूसरी आशा नहीं है। मैं तुझसे बार-बार सत्य (‘निज सिद्धांत’) कहता हूँ कि मुझे अपने सेवक के समान प्रिय कोई भी नहीं है। भक्तिहीन ब्रह्मा ही क्यों न हो, वह मुझे सब जीवों के समान ही प्रिय है, परंतु भक्तिमान् अत्यंत नीच भी प्राणी मुझे प्राणों के समान प्रिय है, यह मेरी घोषणा है। पवित्र, सुशील और सुंदर बुद्धि वाला सेवक, बता, किसको प्यारा नहीं लगता? वेद और पुराण ऐसी ही नीति कहते हैं।
हे काक! सावधान होकर सुन।
एक पिता के बहुत से पुत्र पृथक-पृथक् गुण, स्वभाव और आचरण वाले होते हैं। कोई पंडित होता है, कोई तपस्वी, कोई ज्ञानी, कोई धनी, कोई शूरवीर, कोई दानी कोई सर्वज्ञ और कोई धर्मपरायण होता है। पिता का प्रेम इन सभी पर समान होता है, परंतु इनमें से यदि कोई मन, वचन और कर्म से पिता का ही भक्त होता है, स्वप्न में भी दूसरा धर्म नहीं जानता। वह पुत्र पिता को प्राणों के समान प्रिय होता है, यद्यपि (चाहे) वह सब प्रकार से अज्ञान (मूर्ख) ही हो। इस प्रकार तिर्यक् (पशु-पक्षी), देव, मनुष्य और असुरों समेत जितने भी चेतन और जड़ जीव हैं। (उनसे भरा हुआ) यह संपूर्ण विश्व मेरा ही पैदा किया हुआ है।
अतः सब पर मेरी बराबर दया है, परंतु इनमें से जो मद और माया छोड़कर मन, वचन और शरीर से मुझको भजता है। वह पुरुष हो, नपुंसक हो, स्त्री हो अथवा चर-अचर कोई भी जीव हो, कपट छोड़कर जो भी सर्वभाव से मुझे भजता है, वही मुझे परम प्रिय है।
हे पक्षी! मैं तुझसे सत्य कहता हूँ, पवित्र (अनन्य एवं निष्काम) सेवक मुझे प्राणों के समान प्यारा है। ऐसा विचारकर सब आशा-भरोसा छोड़कर मुझी को भज।
तुझे काल कभी नहीं व्यापेगा। निरंतर मेरा स्मरण और भजन करते रहना। प्रभु के वचनामृत सुनकर मैं तृप्त नहीं होता था। मेरा शरीर पुलकित था और मन में मैं अत्यंत ही हर्षित हो रहा था।
वह सुख मन और कान ही जानते हैं। जीभ से उसका बखान नहीं किया जा सकता। प्रभु की शोभा का वह सुख नेत्र ही जानते हैं। पर वे कह कैसे सकते हैं। उनके वाणी तो है नहीं। मुझे बहुत प्रकार से भलीभाँति समझकर और सुख देकर प्रभु फिर वही बालकों के खेल करने लगे।
नेत्रों में जल भरकर और मुख को कुछ रूखा (सा) बनाकर उन्होंने माता की ओर देखा- (और मुखाकृति तथा चितवन से माता को समझा दिया कि) बहुत भूख लगी है। यह देखकर माता तुरंत उठ दौड़ीं और कोमल वचन कहकर उन्होंने श्री रामजी को छाती से लगा लिया। वे गोद में लेकर उन्हें दूध पिलाने लगीं और श्री रघुनाथजी (उन्हीं) की ललित लीलाएँ गाने लगीं।
जिस सुख के लिए (सबको) सुख देने वाले कल्याण रूप त्रिपुरारि शिवजी ने अशुभ वेष धारण किया, उस सुख में अवधपुरी के नर-नारी निरंतर निमग्न रहते हैं। उस सुख का लवलेशमात्र जिन्होंने एक बार स्वप्न में भी प्राप्त कर लिया, हे पक्षीराज! वे सुंदर बुद्धि वाले सज्जन पुरुष उसके सामने ब्रह्मसुख को भी कुछ नहीं गिनते। मैं और कुछ समय तक अवधपुरी में रहा और मैंने श्री रामजी की रसीली बाल लीलाएँ देखीं। श्री रामजी की कृपा से मैंने भक्ति का वरदान पाया।
तदनन्तर प्रभु के चरणों की वंदना करके मैं अपने आश्रम पर लौट आया। इस प्रकार जब से श्री रघुनाथजी ने मुझको अपनाया, तब से मुझे माया कभी नहीं व्यापी। श्री हरि की माया ने मुझे जैसे नचाया, वह सब गुप्त चरित्र मैंने कहा।
स्रोत – श्रीतुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस, उत्तरकाण्ड
दंडवत आभार – श्रीगीताप्रेस गोरखपुर, श्रीरामचरितमानस