• ये पितरगण कौन हैं? कहाँ निवास करते हैं?
  • इनके श्रद्धादि की विधियाँ क्‍या हैं?
  • ये किसके पुत्र है, और किस कारण वंश पितर नाम से विख्यात है?
  • ये लोग कैसे उत्पन्न हुए ? किसके पुत्र हैं? कैसा इनका स्वरूप है?
  • स्वर्ग में जो पितर निवास करते हैं, वे देवताओं के भी देवता ( पूज्य ) कहे जाते हैं, वे कौन हैं ?

इन सब पितरों की सृष्टि (उत्पत्ति ) सम्बन्धी कल्याण दायनी उत्तम बातें हम लोग सुनना चाहते हैं। हम लोग श्रद्धा एवं विधि पूर्वक उन पितरों को जो कुछ अर्पित करते हैं, वह वस्तुएँ उन्हें (पितरों) प्रसन्न एवं सन्तुष्ट रखती हैं। वे लोग दृष्टिगोचर नहीं होते।

  • इसका क्‍या कारण प्रसिद्ध है? कौन से पितर गण स्वर्ग में निवास करने वाले हैं और कौन से नरक में?
  • पिता को, पिता के पिता को, पिता के पितामह को तीनों पिण्डदानों में नामोच्चारण पूर्वक विधिसमेत कौन-कौन से श्राद्ध देने चाहिये?, अर्थात्‌ किन-किन श्राद्धों में पितामह तथा प्रपितामह का नाम लेकर तीन पिण्ड द्वान किये जाते हैं।
  • ये श्रद्धादि में दी गई वस्तुएँ पितरों को किस प्रकार प्राप्त होती हैं? और जो स्वयमेव नरक में निवास करते हैं, वे किस प्रकार फलप्रदान में समर्थ हो सकते हैं ? ये पितर नामधारी कौन हैं? किन की हम पूजा करें?

हम ऐसा सुना है कि स्वर्ग लोग में देवगण भी पितरों की पूजा तथा श्रद्धादि किया करते हैं? ऋषियों की ऐसी बातें सुन तत्वार्थदर्शी सून ऋषियों के प्रश्नगत एवं मनोगत जिज्ञासाओं को शान्ति करते हुए बोले।

सूत जी ने कहा — ऋषिवृन्द ! आप लोगों की पूछी हुई बातों का उत्तर अपनी बुद्धि एवं श्रुति के आधार पर दे रहा हूँ ।

प्रत्येक मन्वन्तरों में ये क्रमशः ज्येष्ठ और कनिष्ठ रूप में प्रादुर्भाव होते है। व्यतीत मन्वन्तरों के जो पितरगण, देवताओं के साथ उत्पन्न हुए थे और अतीत हो चुके, उन्हें तथा सम्प्रति जो पितरगण विद्यमान हैं, उन दोनों को निश्चय पूर्वक बतला रहा हूँ। मनुष्यों द्वारा श्रद्धापूवंक दी गई वस्तुएँ ही श्राद्ध कही जाती हैं । पूर्वकाल में ब्रह्मा ने देवताओं की सृष्टि की तो उन लोगों ने पूजा आदि कुछ भी नहीं किया और उनको छोड़कर स्वार्थ में लिप्त हो अपने ही सृष्टि विस्तार में लग गये । तब ब्रह्मा ने उन्हें शाप दिया कि मूढ़ों ! तुम्हारी चेतना नष्ट हो जायगी, तुम लोग कुछ भी नहीं जानते। ब्रह्मा के ऐसे शाप दे देने के उपरान्त समस्त लोक मोहवश हो गया । वे सब पुनः विनम्र हुए और पितामह से याचना करने लगे ।

प्रभु ब्रह्मा ने लोक पर अनुग्रह करने की. भावना से उन देवताओं से पुनः कहा । तुम लोगों ने महान्‌ पाप एवं अत्याचार किया है, उसका प्रायश्चित्त करो और उसका विधान अपने-अपने पुत्रों से पूछों । तब तुम लोगों को ज्ञान-प्राप्ति होगी। तब प्रायश्चित्त करने को इच्छुक उन देवताओं ने आत्मा को स्ववश रख अपने पुत्रों से प्रायश्चित्त की विधियाँ बारम्बार पूछी। धर्मज्ञ एवं जितेन्द्रिय देवपुत्रों ने उन देवताओं को मनसा, वाचा, कर्मणा सम्पन्न होने वाले अनेक प्रकार के प्रायश्चितों का विधान बतलाया। पुत्रों द्वारा प्रायश्चितों की शिक्षा प्राप्त कर उन देवताओं को पुनः चेतना प्राप्त हुई और उन्होंने अपने पुत्रों से निवेदन किया कि तुम लोग ही हम सबों के पिता हो, क्योंकि तुम्हारे द्वारा हमें ज्ञान एवं चेतना की प्राप्ति हुई । तुम लोगों को धर्म, ज्ञान एवं काम। किस वस्तु का वरदान हम लोग दें, बतलाओ ?

देवताओं के ऐसे मनोभावों को देखकर ब्रह्मा ने पुनः उनसे कहा, तुम लोग सत्यवादी द्वो अतः जो कुछ तुम्हारे मुख से निकला है वह सब कुछ घटित होगा, कुछ भी अन्यथा न होगा। अतः तुम लोगों ने स्वयं अपने पुत्रों को अपना पिता कहा है, अतः वे तुम्हारे पिता हो – यही वर उन्हें दो। परमेष्ठी पितामह की उसी बात से वे देवपुत्र गण पितृकोटि में आ गये और उनके पितृगण पुत्र कोटि में आ गये। इसी कारण वश वे पितरगण पुत्र (देवपुत्र) कहे जाते हैं, ओर उनमें पुत्र होने पर भी पितृत्व कहा जाता है। इस प्रकार पितरों को पुत्र रूप में और पुत्रों को-पितररूप में स्मरण कर पितामह ब्रह्मा ने अपने वंश की वृद्धि के लिये पुनः पितरों से कहा – श्राद्ध कर्म में जो पितरों की पूजा बिना किये ही किसी अन्य क्रिया का अनुष्ठान करता है, उसकी उस क्रिया का फल राक्षस तथा दानवों को प्राप्त होता है। श्राद्धों द्वारा संतुष्ट किये गये पितरगण अव्यय सोम को संतुष्ट करते हैं । तुम लोगों से सन्तुष्ट प्राप्त कर वे सदा तुम्हें बढ़ायेंगे । श्राद्धादि कमों में इस प्रकार पितरों द्वारा संतुष्ट किया गया सोम समस्त, पव॑त, वन, व चराचर जगत्‌ सब को सन्तुष्ट करेगा। जो मनुष्य लोक के पोषण की दृष्टि से श्रद्धादि करेंगे, उन्हें पितरगण सर्वदा पुष्टि एवं सन्तति देंगे। श्राद्धकर्म में अपने प्रपितामह तक नाम एवं गोत्र का उच्चारण कर जिन पितरों को कुछ दे दिया जायगा वे पितरगण उस श्राद्धवान से अति सन्तुष्ट होकर देने वाले की सन्ततियों को स्तुष्ट रखेंगे । परमेष्ठी ब्रह्मा ने इस प्रकार की आज्ञा पूर्वकाल में दी है। उन्हीं पितरों की कृपा से दान, अध्ययन, तपस्था–सबसे सिद्धि प्राप्त होती है।

इसमें तनिक भी सन्देह नहीं हैं कि वे पितरगण ही हम सब को ज्ञान प्रदान करने वाले हैं।

इस प्रकार पितरगण देवता हैं, और देवगण पितर हैं, और परस्पर एक दूसरे के पितर और देवता दोनों हैं। आत्मज्ञानी सूत की ऐसी बातें सुनने के उपरान्त मुनियो ने उनसे शेष प्रश्न के बारे में पुनः पूछा –

ऋषियों ने पूछा — सूत जी ! पितरों के समूह कितने हैं ? देवताओं के परमपूज्य, एवं चन्द्रमा के पुष्टिकर्ता वे पितरगण किस समय वर्तमान रहते हैं?

सूत जी ने कहा — ऋषिवृन्द ! “मैं आप लोगों से पितरों के उस श्रेष्ठ वंश के विवरण को बता रहा हूँ, जिसको पूर्वकाल में शयु ने अपने पिता बृहस्पति से पूछा था। एक बार समीप में बैठे हुए तत्त्वज्ञान विशारद, सर्वज्ञ बृहस्पति से उनके पुत्र शंयु ने यह प्रश्न विनयपूर्वक पूछा था कि —

  • ये पितरगण कौन है?
  • पितृगण कितने हैं ?
  • इनके नाम क्या हैं ?
  • ये किस प्रकार उत्पन्न हुए?,
  • और पितृत्व इन्हें किस प्रकार प्राप्त हुआ ?
  • क्‍या कारण है जो यज्ञों में नित्य सर्वप्रथम पितरों की पूजा की जाती है?
  • ओर महात्मा पुरुषों की सभी क्रियाएँ पितरों के श्राद्धादि के उपरान्त सम्पन्न होती हैं। ये श्राद्धादि क्रियाएँ किसके उद्देश्य से करनी चाहिये?
  • और क्या देने से प्रचुर फल की प्राप्ति होती है?
  • किन तीर्थों अथवा नदियों में करने से श्राद्धों का फल अक्षय हो जाता है ।
  • श्रेष्ठ ब्राह्मण किन-किन प॑त क्षेत्रों में श्राद्ध का विधान सम्पन्न कर अपने सभी मनोरथों को प्राप्त करता है?
  • श्राद्ध के लिये कौन सा समय उपयुक्त है?
  • श्राद्ध की विधि क्या है ?

हे भगवान्‌ इस सब बातों को हम यथार्थरूप में विस्तारपूर्वक जानना चाहते हैं जिन-जिन बातों को मैंने निवेदित किया है, उन्हें-उन्हें क्रमशः मुझे बतलाइये । शंयु के इस प्रकार अच्छी तरह पूछने पर प्रश्न के तत्त्वों को जानने वालों में श्रेष्ठ महामति बृहस्पति ने ऋमश: उन प्रश्नो का उत्तर देना प्रारम्भ किया।

बृहस्पति ने कहा –प्रियवर ! जो बातें तुमने मुझसे पूछी हैं, उन्हें बतला रहा हूँ ! तुम्हारा यह प्रश्न विनय, न्याय, गम्भीरता, एवं श्रेष्ठता आदि सदूगुणों से पूर्ण है। हे प्रिय ! जिस समय यह आकाश अन्तरिक्ष, पृथ्वी, नक्षत्र, दिशाएं, सूर्य, चन्द्रमा, दिन, रात-ये कुछ भी नहीं थे ओर सारे जगत्‌ में अंधकार ही अन्धकार छाया हुआ था, उस समय अकेले ब्रह्मा कठोर तप में प्रवृत्त थे.

पिता बृहपति की ऐसी बात सुन कर शंयु ने ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ अपने पिता बृहस्पति से फिर पूछा-पिता जी ! ऐसी परिस्थिति में सभी भृतों के स्वामी प्रजापति ब्रह्मा किस प्रकार तपस्या में प्रवृत्त थे ?

पुत्र के ऐसा पूछने पर परम तेजस्वी बृहस्पति ने उससे कहा – पुत्र ! सब प्रकार की तपस्याओं में योग श्रेष्ठ है। उस समय भगवान्‌ ब्रह्मा ने उसी का आश्रय लेकर ध्यान मग्न हो समस्त लोकों की सृष्टि की थी । योगाभ्यासी प्रजापति ब्रह्मा ने अपनी योग दृष्टि से, सभी अतीत एवं अनागत काल में होने वाली ज्ञान राशि, समस्त लोक, एवं सम्पूर्ण वेदों की रचना उसी योग का अवलम्बन लेकर ही की है। जहाँ पर परम भास्वर (कान्तिमान्‌) सांतानिक नामक लोकों की स्थिति है उसी स्वगं लोक में वे देवताओं के भी देवता वैराज नाम से विख्यात पितर गण निवास करते हैं।

सृष्टि के आदि काल में सनातन योग एवं तपस्या में निरत रहकर भगवान पितामह ने उन देवताओं की सृष्टि की थी वे देवगण आदि देव के नाम से विख्यात हैं .  महान्‌ पराक्रम- शील.एवं परम तेजस्वी हैं, देवताओं, दानवों एवं मनुष्यों–सभी के पूज्य तथा सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाले हैं। उन त्रैलोक्य पूजित देवताओं के सात गण विख्यात हैं, जिनमें तीन गण निराकर तथा चार सुन्दर आकृति वाले हैं। वे भाव मूर्ति (निराकार) तीन देवगण सब से ऊपर निवास करते हैं, उनके नीचे वे चार गण निवास कंरते हैं, जो सूक्ष्म मूर्तियों वाले हैं । उनके वाद सामान्य देवताओं का निवास स्थल है.

उसके नीचे पृथ्वी की स्थिति है, यही लोको की स्थिति की परम्परा है । वे देव गण इसी लोक में निवास करने वाले हैं, उन्ही से बादलों की उत्पत्ति होती है। उन्हीं बांदलों से वृष्टि होती है, बृष्टि से सभी लोकों (वस्तुओं) की पुनः उत्पत्ति होती हैं । अतः वे (पितर) लोग अपने ‘योगबल से सोम एवं अन्न दोनों को सस्तुष्ट एवं प्रफुल्लित रखते हैं, अतः श्रेष्ठजन उन्हें समस्त लोकों’का पितर कहते हैं। ये पितर गण मन के समान वेगशाली स्वधा का भक्षण करनें वाले, सभी इच्छाओं एंव सुविधाओं को देने वाले, लोभ॑, मोह तथा भय से विमुक्त एवं निश्चय ही शोक विहीन हैं ।ये योगाभ्यास को छोड़कर सुन्दर दिखाई पड़ने वाले लोकों को प्राप्त हुए हैं । ये दिव्यगुण युक्त, पुंण्यशाली, महात्मा तथा निष्याप हैं एक सहस्न युग के उपरान्त ये ब्रह्मवादी हो जाते हैं, और पुनः योग की प्राप्ति कर शरीर को छोड़ मोह के अधिकारी होते हैं महान्‌ योगबल का आश्रय लेकर वे व्यक्त एवं अव्यक्त शरीर को छोड़कर आकाश में उल्का एवं क्षीण विद्युत प्रभा की तरह विनाश को प्राप्त होते हैं, महान्‌ योगबल से देह प्रभूति ऐहिक उपादानों को छोड़कर वे समुद्र में मिलने वाली सरिताओं की भाँति आंख्या (संज्ञा नाम) रहित हो जाते हैं।

वे नित्यप्रति गुरुपूजा में निरत रह योगाभ्यास में लगे रहते हैं। योगमार्ग में वे विख्यात पितर गण इस प्रकार सब को तृप्त रखते हैं । श्राद्ध के अवसर पर प्रसन्न हुये वे योगाभ्यास में निरत रहने वाले पितण गण अपने योगबल से चन्द्रमा को तृप्त करते हैं, जिससे त्रेलोक्य को जीवन प्राप्त होता है । इसलिये योग की मर्यादा जानने वालों को सर्वदा यत्नपूर्वक श्राद्धादि का दान करना चाहिये । क्योंकि पितरों का बल॑ योग है और योग बल से ही चन्द्रमा प्रवर्तित होता है।

किन ब्राह्मणों को श्राध्द में बुलाना चाहिए? –

श्राद्ध के अवसर पर आये हुए सहस्त्रो ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए, योग में निपुण एक ही ब्राह्मण सन्तुष्ट होकर उक्त सहस्त्र ब्राह्मण भोजन का फल देता है, इसको सुनिए । सहस्र सामान्य ब्राह्मण, स्नातक अथबा एक योगाचार्य–इनमें से किसी एक के द्वारा जो भोजन किया जाता है वह महान्‌ भय (नरक) से छुटकारा दिलाता है। एक सहस्र गृहस्थ सौ वानप्रस्थ अथवा एक सहस्त्र ब्रह्मचारी–इन सबों से एक योगी (योगभ्यासी) बढ़कर है ।

वह चाहे नास्तिक हो. चाहे दुष्कर्मी हो, चाहे संकीर्ण विचारों वाला हो अथवा चोर ही क्यों न हो । प्रजापति ने योगमार्ग में ऐसी व्यवस्था बतलाई है कि अन्यत्र (योगी को छोड़कर) दान नहीं करना चाहिये। जिस व्यक्ति का पुत्र अथवा पौत्र ध्यान में निमग्न रहने वाले किसी योग सन्यासी को श्राद्ध के अवसरः पर भोजन करायेगा,. उसके पितर गण अच्छी वृष्टि होने से किसानों की तरह परम संतुष्ट होंगे।

यदि श्राद्ध के अवसर पर कोइ योगाभ्यासी ध्यान परायण भिक्षु व मिले तो दो ब्रह्मचारियों को भोजन कराना चाहिये, वे भी न मिलें तो किसी – उदासीन ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिये जो सांसारिक विषयों से विरक्त हो । उसके न मिलने पर गृहस्थ को भी भोजन करा देना चाहिये |
जो व्यक्ति सौ वर्षों तक केवल एक पैर पर खड़े होकर वायु का आहार करके स्थित रहता है, उससे भी बढकर ध्यानी एव-योगी -हैं ऐसी ब्रह्म की आज्ञा है।

सिद्ध लोग ब्राह्मण का वेश धारण कर इस पृथ्वी पर भ्रमण किया करते हैं अतः किसी अतिथि के आ जाने पर मनुष्य को चाहिये कि उसकी अग॒वानी के लिये हाथ जोड़कर जाए, अर्घ पद्मादि से उसकी पूजा करे, रहने के लिये सुन्दर स्‍थान दे और भोजन की व्यवस्था करे। समुद्र प्रयन्त विस्तृत इस भूमण्डल पर ये योगेश्वर देवगण विविध रूप धारण कर धर्म पूरक प्रजावर्ग की पालना करते हुए सर्वदा विचरण किया करते हैं, अतः मनुष्य को चाहिये कि अपने द्वार पर आये हुए अतिथि ब्राह्मण को विधिपूर्वंक दानादि दे।

श्राद्ध का फल –

सहस्न अश्वमेघ, सौ राजसूय, सहस्त्र पुण्डरीक नामक यज्ञों से बढ़कर फल योगियों के मध्य में निवास स्थान बनाने से प्राप्त होता है। उस अमित तेजस्वी पितरों के साथ भणों में से यह प्रथम गण (समूह) कहा जा चुका, पितरों का यह गण सभी कालों की भावना करते हुए सर्वदा अवस्थित है। अब इसके उपरान्त मैं पुनः समस्त पितरों का वर्णन कर रहा हूँ, उनकी सन्तति, अवस्थिति एवं भावनाओं के विषय में भी क्रमशः कह रहा हूँ ।

पितृगण कौन है?

सूतजी ने कहा -ऋषिवंद ! परम बुद्धिमान पितरों के सात गण कहे गये हैं, जिनमें चार तो मू्तिमान हैं और शेष तीन अमूत हैं। जो तीन धम्मंमूर्ति परमश्रेष्ठ गण कहे गये हैं, सर्वप्रथम मैं उनके नाम एवं उनके द्वारा होनेवाली लोक सृष्टि का वर्णन संक्षेप में कर रहा हूँ । जहाँ परम कास्तिमय विरजस नाम से बिख्यात लोकों की अवस्थिति है, वहीं पर प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र अमृत पितरगण निवास करते हैं।

हे द्विजगण ! वे पितरगण विरज के निवासी हैं, अतः वैराज नाम से प्रसिद्ध हैं। वैराज नामक पितरों के इस पहिले गण को आप लोगों सुना चुका ।

स्वर्ग में विरज नामक पितरों से वे लोक शोभायमान हैं । वहाँ विद्यमान रहने वाले पितरगण सूर्य के समान कांतिमान हैं, वे अनिषवात्त नाम से विख्यात हैं । उन पितृर गणों की समस्त दानव यक्ष, राक्षस, गन्धर्व , किन्नर, भूत, सर्प़ एवं पिशाजों के गण उत्तम फल की प्राप्ति की इच्छा से पूजा करते हैं। धर्ममूर्ति इन पितरों के तीन गण कहें गए हैं। मनुष्य को इस लोक में आकर अपने धर्म अनुसार श्रद्धापूर्वक श्रद्धाधि कर्म करने चाहिए, क्युकी देवताओ से पहले पितरों को संतुष्ट करना चाहिए।

श्राद्ध कर्म कैसे करे?

बृहस्पति ने कहा – सुवर्ण, चाँदी, और तांबे के निर्मित पात्र पितरों के लिये कहे गये हैं, चाँदी अथवा चांदी से मढ़ा हुआ पात्र भी पितरों के लिये कहा गया है। चाँदी दान, अभाव में उसका दर्शन अथवा उसका नाम ले लेना भी पितरों को अनन्त अक्षय एवं स्वर्ग देनेवाला दान कहा जाता है। योग्य पुत्रगण इस चांदी के दान से अपने पितरों को तारते हैं।

हे तात ! प्राचीन काल में स्वधा देनेवाले पितरो ने चांदी के पात्र में स्वथा का दोहन किया था, यही कारण है कि उसका दान अथवा उसके बने हुये पान्न में दान करने पर अक्षय फल प्राप्ति होती है। काले मृगचर्म का सान्निध्य, दर्शन अथवा दान भी राक्षसों का विनाश करनेवाला (अथवा राक्षसों का विनाशक एवं ब्राह्मतेजका वर्धंक मंत्र) एवं ब्राह्मतेज को प्रदान करनेवाला है, पितरों के कायं में इसका वितरण करना चाहिये ।सुवर्ण निमित, चाँदी निर्मित, ताम्र निर्मित,) तिल, वस्त्र, अन्यान्य पवित्र वस्तुएं, त्रिदण्डी योग (वचन, मन एवं कर्म का योग) ये सब वस्तुएँ श्रेष्ठ कही गयी है।

श्राद्ध कर्म में यह सर्वश्रेष्ठ विधि सनातन से प्रचलित है –

यह बाह्य नियम है। इन उपर्युक्त वस्तुओं के द्वारा विधि पूर्वक किया गया श्राद्ध-विधान श्राद्ध-कर्त्ता को आयु, कीर्ति प्रजा, बुद्धि, संतति आदि सब कुछ बढ़ाने वाला है; दक्षिण और पूर्व की दिशा में, विशेषतया विदिक्‌ (कोण) में श्राद्धकम का विधान है। सर्वत्र अरत्नि (कनिष्ठिका अंगुली फैलाकर केहुनी तक की लम्बाई) मात्र परिमाण का चौकोर सुर्दर स्थान होना चाहिए ।

पितरी के कार्य में जो आदेश्न शास्त्रों के हैं उनके अनुसार स्थान के विषय में विधिवत्‌ कह रहा हूँ, जो धन देने वाला आरोग्य साधक, दीर्घायु प्रदाता तथा बल ओर वर्ण की वृद्धि करनेवाला है ।

पितरों के श्राद्धस्थल में तीन गढ़े बनाने चाहिये, जो परिमाण में रत्निमात्र (मुद्री बंधे हये हाथ का परिमाण) लम्बे और चाँदी से विभूषित हों, इसके अतिरिक्त खदिर के डंडे भी होने चाहिये, जो वित्ते भर लम्बे हों उनके चारों ओर चार अंगुल मान के वेष्ठन बने हों ।

जो पूर्व और दक्षिण के मुख्य भाग की ओर से पृथ्वी पर रखे गये, छिद्र रहित, उन डण्डों को परम पवित्र जल से नहलाये । बकरी के अथवा गाय के दूध अथवा जल से उसको पुनः शुद्ध करे, इस प्रकार विधिपूर्वक तर्पण करने से सार्वकालिक तृप्ति होती है।

अमावास्या तिथि को पृथ्वीतल पर चार अंगुल के गढ़े में श्राद्धोपयोगी वस्तुओं की स्थापना करनी चाहिये। इस प्रकार तीन बार स्वयं स्नान करके जो विधिपूर्वक मंत्रादि का उच्चारण कर भलीभौॉँति सर्वदा पितरों की पूजा करता है, वह अश्बमेध यज्ञ का फल प्राप्त करता है।

ये त्रिःसप्त यज्ञ के नाम से विख्यात हैं, इन्हीं पर त्रैलोक्य की स्थिति है। जो व्यक्ति इसका अनुष्ठान करता है, उसको पुष्टि, ऐश्वर्य, दीर्घायु, संतति, प्रचुर लक्ष्मी तथा मोक्ष की क्रमशः प्राप्ति होती है । ब्राह्मणों से सत्कार पूर्वक पूजित यह एक मंत्र समस्त पापों को दूर करने वाला, परम पवित्र तथा अश्वमेघ यज्ञ की फल प्राप्ति करानेवाला है, इस मंत्र की रचना ब्रह्मा ने की थी, यह अमृत मंत्र है –

देवताभ्य: पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च।
नमः स्वधायै स्यहायै नित्यमेव भवंतुतः

अर्थात –

समस्त देवताओं, पितरों, महायोगियों, स्वधा एवं स्वराहा–सबको हम नमस्कार करते हैं, ये सब नित्य (शास्वत ) फल प्रदान करने वाले हैं।

श्राद्ध कर्म की विधि –

सर्वदा श्राद्ध के प्रारम्भ, अवसान तथा पिण्डदान के समय इस मंत्र का सावधान चित्त होकर तीन बार पाठ करना चाहिये । इससे पितरगण शीघ्र ही वहाँ आ जाते हैं और राक्षसगण तुरत वहाँ सै पलायन कर जाते हैं

ब्राह्मणों द्वारा श्राद्ध के अवसर पर पढ़े जाने पर यह मन्त्र तीनों लोकों में पितरों का उद्धार करता है। राज्यप्राप्ति का अभिलाषी इस मन्त्र का आलस्य रहित होकर सदा पाठ करे। यह वीर्य ,पवित्रता, धन, सात्तविकबल, लक्ष्मी, दीर्घायु, बल आदि को बढ़ाने वाला मन्त्र है। जिसके नियम पूर्वक जप करने से पितरगण प्रसन्न हो जाते हैं।

बलिकर्म –

बृहस्पति जी बोले–

  • पलाश के पत्तों से बने हुए पात्र में बलिकर्म करने से ब्राह्मण तेज की प्राप्ति होती है।
  • अश्वत्थ (पीपल) के पत्तों से बने हुए पात्र में राज्य की भावना की जाती है।
  • इसी प्रकार प्लक्ष (पाकड़) के पत्तों से बने पात्र में सभी जीवों का आधिपत्य प्राप्त होना बतलाया जाता है। यह सर्वदा का नियम है ।
  • पुष्टि, बुद्धि प्रज्ञा एवं स्मरण-शक्ति की कामना से बरगद के पत्तों के पात्र में बलिकर्म करना चाहिये ।
  • काश्मीरी (सम्भारी) के पत्तों से बने हुए पात्र राक्षसों के विनाशक, एवं यशोवद्धंक कहे गये हैं ।
  • मधूक (महुए) के पत्तों से निर्मित पात्र में बलिकर्म इस लोक में उत्तम सौभाग्य प्रदान करता कहा जाता है।
  • फल्गु (कठूमर) के पत्तों से बने हुए पात्र में श्राद्ध करने से समी मनोरथ सकल होते हैं, एवं परमकान्ति तया प्रकाश की प्राप्ति श्राद्धकर्त्ता को होती है !
  • विल्व के पात्र से लक्ष्मी, धारणाशक्ति, तथा दीर्घायु की प्राप्ति होती है।
  • वेणु (वेणु) के पात्र में श्राद्ध करनेवाले के खेत, बगीचे और जलाशयों में मेघ नित्य वृष्टि करता है।

इन उपयुक्त पात्रों में जो लोग श्राद्ध के अवसर पर पितरों को एक बार भी बलि देते हैं वे सम्पूर्ण यज्ञों का फल प्राप्त करते हैं । जो व्यक्ति पितरों को भक्तिपृर्वक सुन्दर पुष्प, माला सुगन्धित द्रव्य आदि नित्य देता है वह श्री सम्पन्न होकर सूर्य के समान तेजस्वी होकर शोभा पाता है। गुग्गुल आदि से धूप द्रव्यों को मधु और घृत के समेत जो पितरों के उद्देश्य से समपित करता है, वह अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करता हैं।

पितरों के उद्देश्य से जो मनोहर सुगंधियुक्त घूप प्रदान करता है वह अपनी स्त्री में इस लोक तथा परलोक में उत्तम संतान प्राप्त करता है। अतः विना आलस्य किये नित्य पितरों को धूपदान करना चाहिये।

जो व्यक्ति प्रयत्न पूर्वक सर्वदा पितरों के उद्देश्य से दीपदान करता है। वह लोक में परम सुन्दर अनुपम नेत्र प्राप्त करता है। अपने तेज, यश, कान्ति, तथा बल से पृथ्वीतल में विख्यात होता है।

Note – कठूमर – इसके पेड़ बहुत बड़े-बड़े होते हैं । इस पर फूल नहीं आते | इसकी डालियों से फल पैदा होते हैं, इसके पत्ते गूलर के पत्तों से बड़े होते हैं । पत्तों के स्पर्श करने से हाथों में खुजली होने लगती है। पत्तों से दूध निकलता है ।

पूजन विधि –

पितरों को प्रथमतः तृप्त करके उसके बाद अपनी शक्ति के अनुसार अन्न सम्पत्ति से से ब्राह्मणों को पूजा करनी चाहिये | सर्वदा श्राद्ध के अवसर पर पितृगण वायुरूप़ घारण कर ब्राह्मणों को देखकर, उन्हीं में आविष्ट हो जाते हैं।

इसीलिये वस्त्र, अन्न, विशेषदान, भक्ष्य, पेय, गौ, अद्व तथा ग्रामादि का दान देकर उत्तम ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिये । द्विजों के सत्कृत होने पर ,पितरगण प्रसन्न होते हैं। अतः अन्न द्वारा ब्राह्मणों की विधिवत्‌ पूजा करनी चाहिये ।

विद्वान्‌ ब्राह्मण सर्वप्रथम श्राद्ध कर्म में विना आलस्य के बायें और दाहिने हाथों से उल्लेख करे ओर उसी प्रकार प्रोक्षण (सिंचन) करे। तदुपरान्त कुश, पिण्ड, विविध प्रकार के भक्ष्य, पुष्प,गन्धदान, अलंकार आदि वस्तुओं में से एक-एक का निर्वपण करे । श्राद्ध कर्म में ब्राह्मण को चाहिये कि भली तरह उपस्थित ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करके वैश्वदेव कर्म के उपरान्त अभ्यज्ञ (तैलमर्दन) कुश, एवं पिञ्जल इन तीनों से विधिवत्‌ क्रियाएँ सम्पन्न कर, फिर अपसब्य होकर पितरों के उद्देश्य से उत्तम अन्न दे, उन सब का नामोच्चारण करके वस्त्र के लिए सूत्रदान करे। देवताओं के लिए खण्डन, पेषण और उल्लेखन–इनका एक बार का विधान है, और पितरों के लिए तीन बार कहा गया है ।

हाथ से एक पवित्र लेकर सभी पितरों को अलग-अलग से वस्त्रदान के मन्त्रद्वारा पिण्डों के ऊपर देकर दर्शन करने का कल्याण प्राप्त किया जाता है ।सभी श्राद्धकार्यों में घृत, तिल-युक्त पिण्डों का निर्वपन्न भूमि पर करना चाहिए।

स्त्रोत – श्रीवायुमहापुराण – श्राद्ध कल्प – अध्याय 71/72

 

Disclaimer – कृपया इस जानकारी को केवल सामान्य जानकारी के रूप में ही देखे और जानने की उत्सुकता उत्त्पन्न हो रही है तो कृपया श्रीवायुमहापुराण में श्राद्ध कल्प को अध्याय 71/72, 73 को पढ़ना चाहिए या किसी काशी में शिक्षित ब्राह्मण देव की शरण में जाए।