Story of Holika and Prahladश्री नारद जी ने कहा – दैत्यराज हिरणकश्यपु के चार पुत्र थे इनमे प्रह्लाद सबसे छोटे पुत्र थे। लेकिन गुणों में अपने भाइयो से बड़े थे। संतसेवी, सौम्य स्वाभाव, सत्य प्रतिज्ञ, एवं जितेन्द्रिय थे, वे एक मात्र प्रिय और सच्चे हितैषी थे। बड़े बड़े दुखो में भी बिलकुल नहीं घवराते थे। जन्म से असुर होने पर होने आसुरी सम्पति के लेश मात्र नहीं था। महात्मा लोग प्रह्लाद के गुणों का सदा से वर्णन करते आये है।

प्रहलद बचपन में ही खेलकूद छोड़कर भगवान् के ध्यान में जड़वत तन्मय हो जाया करते थे। उन्हें जगत की कुछ भी सुध बुध नहीं रहती थी। जब कभी उन्हें आभास होता कि भगवान् उन्हें छोड़कर कही चले गए है तब वे जोर जोर से रोने लगते। और कभी कभी मन ही मन अपने सामने पाकर आनंद से खिलखिलाकर हँसने लगते। अधखुले नेत्र अविचल प्रेम और आनंद के कारण आँसुओं से भरे रहते।

प्रहलद भगवान् के परम प्रेमी भक्त, परम भाग्यवान, और ऊँची कोटि के महात्मा थे।

हिरणकश्यपु अपने ऐसे साधू पुत्र को भी अपराधी समझने लगा और अनिष्ट करने करने की बार बार चेष्टा करने लगा।

युधिष्ठिर बोले – नारद जी ! हिरणकश्यपु ने पिता होकर भी अपने शुद्ध ह्रदय पुत्र के साथ ऐसा द्रोह क्यों किया? आप कृपा करके मेरा ये कौतुहल शांत कीजिये।

नारद जी कहते है – दैत्यों ने श्री शुक्राचार्य को अपना गुरु बनाया था। उनके दो पुत्र थे – शंड और अमर्क। वे दोनों राजमहल के पास रहकर हिरण्यकश्यप के पुत्र को दैत्य शिक्षा नीति, राजनीति, अर्थनीति इत्यादि पढ़ाते थे। प्रह्लाद अपने गुरुओ का पाठ सुन भी लेते थे और ज्यो का त्यों सुना भी देते थे। लेकिन वे अपने विवेक से समझ जाते थे कि यह स्वार्थ को असत्य, छल, कपट, बल इत्यादि से साधने शिक्षा है, इसलिए वे उसे धारण नहीं करते थे ।

एक दिन हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रहलाद को बड़े प्रेम से गोद में लेकर पूछा – बेटा, प्रहलाद ! बताओ तो सही, तुम क्या क्या सीख रहे हो ?

प्रहलाद ने कहा – पिता जी ! संसार के प्राणी “मै” और “मेरे” के झूठे आग्रह में पड़कर सदा ही अत्यंत उद्विग्न (क्रोधित और चिंतित) रहते है। ऐसे प्राणियों के लिए में यही ठीक समझता हूँ कि वे घास से ढके हुए कुएं के समान इस घर को छोड़कर वन में चले जाए और श्री हरि की शरण ग्रहण करे।

नारद जी कहते है – प्रहलाद जी के मुँह से अपने शत्रु पक्ष की ऐसी प्रशंसा सुनकर हिरण्यकशिपु हंस पड़ा, और बोला – दुसरो के बहकाने से बच्चे ऐसी ही बातें किया करते है, निसंदेह गुरु के भेष में कोई बहकाने का कार्य करता है। उसने दैत्यों से कहा की वो गुरुकुल में इस पर नज़र रखे।

जब दैत्यों ने प्रह्लाद को गुरु के यहाँ पंहुचा दिया तो गुरुओं ने बहलाकर पूछा – बेटा प्रहलाद ! देखो झूठ न बोलना, यह तुम्हारी बुद्धि उल्टी कैसे हो गए? आश्रम के अन्य बच्चो के साथ तो ऐसा हुआ नहीं। किस ने तुमको बहकाया है?

प्रहलाद ने कहा — जिन प्राणियों की बुद्धि मोह से ग्रस्त हो रही है, उन्ही को भगवान की माया से यह झूठा दुराग्रह जान पड़ता है कि यह “अपना” है और यह “पराया” . जब भगवान् कृपा करते है तभी पशु बुद्धि नष्ट होती है। इस पशुवुद्धि के कारण ही तो “यह मैं हूँ, और अन्य मुझसे भिन्न्न है” ऐसा समझते है। और झूठा भेदभाव पैदा होता है। गुरु जी! जिस प्रकार चुम्बक के पास लोहा स्वयं खींच कर आ जाता है वैसे ही मेरा चित्त भी भगवान् की इच्छाशक्ति की और बरबस खिच जाता है।

गुरु बोले – अरे, कोई मेरा बेत तो लेकर देना। यह तो हमारी कीर्ति में कलंक लगा रहा है। इस प्रकार गुरु ने डांट डपटकर प्रह्लाद को धमकाया और शिक्षा दी। कुछ समय बाद उनमे समझ आया कि प्रह्लाद ने साम, दान, भेद और दंड के बारे सारी बातें जान ली। तब वे शिक्षा पूर्ण होने पर मां के पास ले गए। मां ने नहला धुला कर नए वस्त्र पहना दिए।

इसके बाद वे पिता के सामने गए तो उन्होंने दंडवत होकर पिता को प्रणाम किया। हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र को उठाकर कुछ देर तक गले से लगाए रखा। दैत्यराज का ह्रदय अपने पुत्र मोह में आनंद से भर गया था।

हिरणकश्यपु ने अपने पुत्र से पूछा – बेटा प्रहलाद ! तुमने क्या सीखा कुछ अच्छा सुनाओ ।

प्रहलाद ने कहा – पिता जी! भगवान् की भक्ति के नौ भेद है –

  1. भगवान् के गुण और लीला का श्रवण
  2. भगवान् का कीर्तन
  3. भगवान के नाम का स्मरण
  4. भगवान् के चरणों की सेवा
  5. भगवान् की पूजा, अर्चना,
  6. भगवान् की वंदना
  7. भगवान् के प्रति दास भाव
  8. भगवान् के प्रति सख्य: भाव
  9. और आत्म निवेदन

यदि भगवान् के प्रति समर्पण भाव से इस प्रकार भक्ति की जाए, तो मैं उसी को उत्तम अध्ययन समझता हूँ।

इतना सुनना था कि क्रोध के मारे हिरण्यकषिपु के होठ फड़फड़ाने लगे। उसने गुरु पुत्र से बोला – नीच ! यह कैसी तेरी दुर्बुद्धि है? मना करने के बाद भी तूने इसे क्या शिक्षा दी है?

गुरुपुत्र बोले – हे इन्द्रशत्रु! आपका पुत्र जो भी कुछ कह रहा है। वह मेरे या किसी के बहकाने से नहीं कह रहा है। राजन ! यह तो इसकी जन्मजात स्वाभाविक बुद्धि है। कृपा करके आप हमें ऐसा दोष न दे।

हिरण्यकश्यपु प्रह्लाद से बोला — क्यों रे ! यदि तुझे ये खोटी बुद्धि इन गुरुपुत्रों ने नहीं दी तो बता, कहाँ से प्राप्त हुए है?

प्रहलाद जी ने कहा — पिता जी ! संसार के लोग तो वैसे ही पिसे हुए को पीस रहे है, चवाये हुए को चवा रहे है, उनकी इन्द्रिय वश में न होने के कारण वे भोगे हुए विषयो को ही बार बार भोगने में लगे पड़े है। जो इन्द्रियों से दीखने वाले बाह्य विषयो को परम इष्ट समझकर मूर्खतावश अन्धो के पीछे, अन्धो की तरह गड्डे में गिरने जा रहे है। उनको यह बात नहीं मालूम कि हमारे स्वार्थ और परमार्थ सब कुछ श्री भगवान् विष्णु ही है।

हिरण्यकश्यपु ने क्रोध से प्रहलाद को जमीन पर पटक दिया, और बोला – दैत्यों इसे बाहर ले जाओ और इसे ख़त्म कर दो। जिसने इसके चाचा हिरण्याक्ष को मार डाला यह उसकी स्तुति गा रहा है।

ऐसी आज्ञा पाकर दैत्य हाथो में अस्त्र शस्त्र लेकर चिल्लाने लगे और प्रहलाद के मर्म ेस्थानो में शूल से घाव करने लगे। इधर प्रह्लाद जी का चित तो अपने भगवान में लगा हुआ था, उन पर शूल के प्रहार का कोई असर नहीं हुआ। तब हिरदयकशिपु को बड़ी चिंता हुई। उसने प्रहलाद को मारने के लिए बहुत यत्न किये जैसे की बड़े बड़े मतवाले हाथियों से कुचलवाया, विषधर सांपो से डसवाया, कृत्या राक्षसी छोड़ी, विष पिलाया इत्यादि कई तरीके अपनाये ।

पर इनमें से किसी भी उपाय से अपने पुत्र का वह बाल भी बांका नहीं कर सका। अपनी विवशता देखकर हिरण्यकशयपू को बड़ी चिंता हुई। उसने सोचा आश्चर्य है न तो यह किसी से डरता है और न इसकी मृत्यु ही होती है, इसकी शक्ति की थाह ही नहीं है। अवश्य ही इसके विरोध से मेरी मृत्यु होगी, संभव है न भी हो । ऐसा सोचकर उसका चेहरा उतर गया।

—— श्रीमद भागवत महापुराण के सप्तम स्कन्ध के चौथे और पांचवें अध्याय से ——

Story of Holika and Prahlad –

उसकी चिंता को देखकर उसकी बहन होलिका ने कहा कि आप चिंता ना करें भैया, मुझे ब्रह्मा से वरदान प्राप्त है कि मैं किसी भी प्रकार से अग्नि में जलकर नहीं मर सकती हूं। अग्नि में तो सभी भस्म हो ही जाते हैं। तब हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से कहा कि तुम प्रहलाद को अपनी गोदी में लेकर अग्नि में बैठ जाओ, जिससे वह जलकर भस्म हो जाएगा।

होलिका को वरदान था कि उसे अग्नि तब तक कभी हानि नहीं पहुंचाएगी, जब तक कि वह किसी सद्वृत्ति वाले मानव का अहित करने की न सोचे। होलिका यह बात भूल गई थी। वह अपने भाई की बात को मानकर अपने भतीजे प्रहलाद को गोदी में लेकर अग्नि में बैठ गई। उस दिन फाल्गुन माह की पूर्णिमा थी। सद्वृत्ति वाले प्रहलाद का अहित करने के प्रयास में होलिका तो स्वयं जलकर भस्म हो गई और प्रहलाद श्रीहरि विष्णु का नाम जपते हुए अग्नि से बाहर आ गया।

 

आगे हम होलिका और प्रहलाद की कहानी को विस्तार से बताने का प्रयास करेंगे। जिसमे भक्त प्रहलाद की जीवनी, जिसमे जन्म, प्रहलाद की माता, गुरु बच्चो को शिक्षा देना इत्यादि शामिल होगा।

Note – the story of Holika and Prahlad in English, and know who killed the Holika demon or story of Holika in English, use the Translate function of the website.

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Last Update: मार्च 6, 2023