इस काव्य में नरोत्तम दास जी ने श्रीकृष्ण और सुदामा के मिलन का बहुत सुन्दर वर्णन किया है, और सुदामा की दयनीय स्थिति और श्री कृष्ण जी के अपने मित्र के प्रति प्रेम और करुणा के भाव का वर्णन बहुत की सरल और सहज तरीके से किया है| इसी सुदामा चरित्र में से (sis paga na jhaga tan me ) शीश पगा न झगा तन में इन हिंदी में भी हमने भाव प्रकट करने की कोशिश की है। यहाँ हमने सीस पगा न झँगा तन में, प्रभु जाने को आहि बसे केहि ग्रामा द्वार खड़ो द्विज दुर्बल एक lyrics भी जोड़े है जिसे रामानंद सागर की “श्री कृष्ण” कार्यक्रम में दिखाया गया था।
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सुदामा चरित –
कह्यो सुदामा एक दिन कृस्न हमारे मित्र।
करति रहति उपदेस तिय, ऐसो परम विचित्र॥
लोचन कमल दुख-मोचन तिलक भाल,
स्रवननि कुंडल मुकुट धरे माथ हैं।
ओढे पीत बसन गरे में बैजयंती माल,
शंख चक्र गदा और पद्म लिए हाथ हैं।
कहत ‘नरोत्तम संदीपनि गुरु के पास,
तुमही कहत हम पढे एक साथ हैं।
द्वारिका के गए हरि दारिद हरेंगे प्रिय,
द्वारिका के नाथ वे अनाथन के नाथ हैं॥
सिच्छक हौं सिगरे जग के तिय‚ ताको कहां अब देति है सिच्छा।
जे तप कै परलोक सुधारत‚ संपति की तिनके नहि इच्छा।
मेरे हिये हरि के पद–पंकज‚ बार हजार लै देखि परिच्छा
औरन को धन चाहिये बावरि‚ ब्राह्मन को धन केवल भिच्छा
अर्थात ज्ञान के सामने धन की महत्वहीनता सुदामा, अपनी भामा को बताते हैं
दानी बडे तिहुँ लोकन में, जग जीवत नाम सदा जिनको लै।
दीनन की सुधि लेत भली बिधि, सिध्द करौ पिय मेरौ मतौ ले॥
दीनदयाल के द्वारा न जात सो और के द्वार पै दीन ह्वै बोलै।
श्री जदुनाथ से जाके हितू सो तिँ-पन क्यों कन माँगत डोलै॥
कोदों सवाँ जुरितो भरि पेट‚ तौ चाहति ना दधि दूध मठौती।
सीत बतीतत जौ सिसियातहिं‚ हौं हठती पै तुम्हें न हठौती।
जो जनती न हितू हरि सों तुम्हें‚ काहे को द्वारिकै पेलि पठौती।
या घर ते न गयौ कबहूँ पिय‚ टूटो तवा अरु फूटी कठौती।
लेकिन फिर भी सुदामा पत्नी अपनी गरीबी बखानी है।
छाँड़ि सबै जक तोहि लगी बक‚ आठहु जाम यहे झक ठानी।
जातहि दैहैं‚ लदाय लढ़ा भरि‚ लैहैं लदाय यहे जिय जानी।
पाउँ कहाँ ते अटारि अटा‚ जिनको विधि दीन्हि है टूटि सी छानी।
जे पै ग्रिद्र लिखो है ललाट तौ‚ काहु पै मेटि न जाय अयानी।
जै कनावडो बार हजार लौं, जो हितू दीन दयाल सो पाइए।
तीनहुँ लोक के ठाकुर जे, तिनके दरबार गए न लजाइए॥
मेरी कही जिय में धरिकै पिय, भूलि न और प्रसंग चलाइए।
और के द्वार सों काज कहा पिय, द्वारिकानाथ के द्वारे सिधारिए॥
फिर सुदामा उत्तर देते हैं।
द्वारका जाहु जू द्वारका जाहु जू‚ आठहु जाम यहे झक तेरे।
जौ न कहौ करिये तै बड़ौ दुख‚ जैये कहाँ अपनी गति हेरे।
द्वार खरे प्रभु के छरिया तहँ‚ भूपति जान न पावत नेरे।
पांच सुपारि तै देखु बिचार कै‚ भेंट को चारि न चाउर मेरे।
अपनी धर्मपत्नी के कहने पर जिन्होने सुदामा को उनके मित्र से आर्थिक सहायता मांगने का अग्राह किया है | उनकी खुद की कोई इच्छा नहीं है लेकिन पत्नी द्वारा बहुत कहने के बाद उन्हें जाना पड़ा क्योंकि उनकी आर्थिक स्थिति कुछ ठीक नहीं थी| पत्नी की बात मानने के सिवा कोई चारा न देख सुदामा कहते हैं कि मैं सखा कृष्ण के लिये क्या उपहार ले जाऊं? फिर सुदामा की पत्नी उन्हें पड़ोस से तंदुल (चावल) लाकर देती है। नके शरीर पर कोई कुर्ता नहीं है ,ना सर पर पगड़ी वे फटी हुई धोती और गमछा पहने नंगे पांव ही अपने मित्रों से मिलने निकल पड़े हैं| और कृष्ण के द्वार पर पहुंचते है।
सीस पगा न झँगा तन पे प्रभु, जाने को आहि बसौ केहि ग्रामा ।
धोती फटी सी लटी दुपटी, अरु पाँय उपानह की नहि सामा।
द्वार खडौ द्विज दुर्बल एक, रह्यो चकि सो बसुधा अभिरामा।
पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥
कृष्ण का द्वारपाल आकर बताता है कि हे प्रभु! द्वार पर एक बहुत दुबला-पतला ब्राह्मण खड़ा है। उसके माथे पर न पगड़ी है, न देह पर कुर्ता। न जाने कौन है, कहाँ घर है? वह एक फटी-पुरानी धोती पहने है। उसके पैरों से जूते भी नहीं हैं। बड़ी देर से वह यहाँ का वैभव देखकर चकित हो रहा है। वह आपके महलों का पता पूछ रहा है और अपना नाम ‘सुदामा’ बताता है।
नाम सुदामा का सुनते ही पग, आसन धाय द्वार की ओरा !
मुकुट कहीं तो कहीं पट उलझा, मिलने को व्याकुल धीर अधूरा।
सुदामा नाम सुनते ही प्रभु अपना आसन छोड़कर द्वार की ओर दौड़े, इसमें कही उनका मुकुट गिरा तो कही उनका पट उलझ गया, मिलने को इतने धीर अधीर और व्याकुल हो गए की कुछ भी सुधि न रही।
ऐसी उतावली है गति में जैसे, बावली वायु का हो बन्द कटोरा।
मित्र से मित्र को मित्र चले जु, धावत जैसे चाँद की ओर चकोरा ।
मित्र से मिलने को इतने उतावली है कि उनकी गति इस प्रकार से हो गयी जैसे वंद कटोरे से वायु निकली हो (जैसे ट्यूब / सिलेंडर से हवा), एक मित्र अपने मित्र से मिलने को ऐसे दौड़ लगा रहा है जैसे चकोर पक्षी सारी रात चंद्रमा की ओर ताका करता है ।
कोतुहल धर एही कृष्ण सब देख रहे !
सुद बुध खोके कृष्ण दोड़े कहाँ जाते है !
उड़ के चले है पीछे मुडके न देंखे लीला !
देखने वाले तो कुछ समझ नहीं पाते है !
गिरते है पड़ते है फिर उठ चलते है !
द्वारपालों कभी दासियों से टकराते है !
कौन ये महत्वपूर्ण आ गया है द्वार पे !
कि अगुवानी करने को ऐसे अकुलाते है !
सभी महलवासी आश्चर्य से श्री कृष्ण को देख रहे है कि आज ऐसा क्या हो गया? जो प्रभु अपनी सुद बुध खोकर दौड़े चले जा रहे है? न पीछे मुड़कर देख रहे है, कभी उठते, कभी गिरते है। कभी द्वारपाल कभी दास दासियो से टकराते है। इतना महत्वपूर्ण कौन आ गया जिसकी अगवानी प्रभु खुद करना चाहते है?
दीन के बन्धु करुणा के सिंधु, लेकर नैनों में जल बिन्दु
सारे नातों से बढ़के एक स्नेह का नाता निभाने चले हैं
भ्रमण करते जो फूलों के रथ पे, चलते हैं वो पथरीले पथ पे
नंगे पाँव जो आया उसको, नंगे पाँव बुलाने चले हैं
करुणा के सागर प्रभु आज अपनी आँख में अश्रु छलकाते हुए अपने मित्र की अगवानी के लिए नंगे पैर द्वार की ओर दौड़ते जा रहे है।
दर्शन की अभिलाषा खोके, जगत हंसाई से व्याकुल होके
आस के दुःखड़े सुदामा सँजोके, अश्रु में जीवन डुबोने चले हैं
प्रेम परीक्षा की घड़ी आयी, मित्र की हो न हँसाई
मित्र परायण कृष्ण कन्हाई, रूठा मित्र मानने चले हैं
वर्षों के बिछुड़े दो मीत आज सम्मुख है !
नेनों में दर्शनों क़ी याचना पवित्र है !
मिलने को ललक भी है मिलने में छिछ्क भी है !
ग्वाल बनके साथियों क़ी दशा कुछ विचित्र है !
दोनों के नेनों में आशुओं के मोती है !
मोतियों में बालपन क़ी मित्रता का चित्र है !
छोटा बड़ा ऊंच नीच रजा रंक कोई नहीं !
प्रेम क़ी धरा पे मित्र केवल एक मित्र है !
भक्तो के भक्त और मित्रो के मित्रो ऐसे प्रभु श्री कृष्ण तुरंत जाकर सुदामा को लिवाने पहुँच जाते हैं। और अपने महल में अपने सिहांसन पर बैठाते है।
कैसे बिहाल बेबाइन के पग, कंटक जाल लगे पुनि जोए ।
हाय ! महादुख पायौ सखा, तुम आए इतै न कितै दिन खोए ।
देखि सुदामा की दीन दशा, करुणा करके करुणानिधि रोए ।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल से पग धोए॥
उनके पैरों की बिवाई और उनपर काँटों के निशान देखकर कृष्ण कहते हैं कि हे मित्र तुमने बहुत कष्ट में दिन बिताए हैं। इतने दिनों में तुम मुझसे मिलने क्यों नहीं आए?
सुदामा की खराब हालत देखकर कृष्ण बहुत रोये। कृष्ण इतना रोये कि सुदामा के पैर पखारने के लिए परात में जो पानी था उसे छुआ तक नहीं, और सुदामा के पैर कृष्ण के आँसुओं से ही धुल गये।
कछु भाभी हमको दियो, सो तुम काहे न देत।
चाँपि पोटरी काँख में, रहे कहो केहि हेतु॥
आगे चना गुरुमातु दए ते, लए तुम चाबि हमें नहिं दीने।
स्याम कह्यो मुसकाय सुदामा सों, “चोरी की बान में हौ जू प्रवीने।।
पोटरि काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा रस भीने।
पाछिलि बानि अजौ न तजो तुम, तैसई भाभी के तंदुल कीन्हे॥”
सुदामा के स्वागत सत्कार के बाद कृष्ण उनसे हँसी करने लगे। कृष्ण ने कहा कि लगता है भाभी ने मेरे लिये कोई उपहार भेजा है। उसे तुम अपनी बगल में दबाए क्यों हो, मुझे देते क्यों नहीं? तुम अभी भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आओगे।
पुरानी बात को याद करते हुए श्रीकृष्ण सुदामा से कहते हैं कि तुमने बचपन में भी इसी तरह वस्तुओं को देने में आनाकानी की थी | गुरु आश्रम में गुरुमाता ने हम दोनों को जो चने दिए थे उसे तुम अकेले ही चबा गए थे और मुझे दिए ही नहीं। कृष्ण मुसकुराते हुए कहते हैं कि चोरी की कला में तुम आज भी कुशल हो। तुम पोटली को अपनी काँख में दबाए हुए हो। अमृत रूपी प्रेम रस से भीगे उन चावल के दानों के साथ वैसा नहीं कर सकते । तुम्हें तो इसे मुझे देना ही पड़ेगा। सुदामा भुने चावल का उपहार देने में सकुचाते हैं पर भगवान कृष्ण उसे छीन कर स्वाद ले ले कर खाते हैं
वह पुलकनि, वह उठि मिलनि, वह आदर की बात।
वह पठवनि गोपाल की, कछू न जानी जात॥
कहा भयो जो अब भयो, हरि को राज समाज।
हौं आवत नाहीं हुतौ, वाहि पठ्यो ठेलि।।
घर घर कर ओड़त फिरे, तनक दही के काज।
अब कहिहौं समुझाय कै, बहु धन धरौ सकेलि॥
सुदामा फिर अपने घर की ओर लौट चलते हैं। जिस उम्मीद से वे कृष्ण से मिलने गये थे, उसका कुछ भी नहीं हुआ। कृष्ण के पास से वे खाली हाथ लौट रहे थे। लौटते समय सुदामा थोड़े खिन्न भी थे और सोच रहे थे कि कृष्ण को समझना मुश्किल है। एक तरफ तो उसने इतना सम्मान दिया और दूसरी ओर मुझे खाली हाथ लौटा दिया। मैं तो जाना भी नहीं चाहता था, लेकिन पत्नी ने मुझे जबरदस्ती कृष्ण से मिलने भेज दिया था। जो अपने बचपन में थोड़े से मक्खन के लिए घर-घर भटकता था उससे कोई उम्मीद करना ही बेकार है।
वैसोई राज-समाज बने, गज, बाजि घने मन संभ्रम छायो।
कैधों पर्यो कहुँ मारग भूलि, कि फैरि कै मैं अब द्वारका आयो॥
भौन बिलोकिबे को मन लोचत, अब सोचत ही सब गाँव मझायो।
पूँछत पाड़े फिरे सब सों पर, झोपरी को कहुँ खोज न पायो॥
जब सुदामा अपने गाँव पहुँचे तो वहाँ का दृश्य पूरी तरह से बदल चुका था। अपने सामने आलीशान महल, हाथी घोड़े, बाजे गाजे, आदि देखकर सुदामा को लगा कि वे रास्ता भूलकर फिर से द्वारका पहुँच गये हैं। थोड़ा ध्यान से देखने पर सुदामा को समझ में आया कि वे अपने गाँव में ही हैं। वे लोगों से पूछ रहे थे लेकिन अपनी झोपड़ी को खोज नहीं पा रहे थे।
कै वह टूटी सी छानी हती, कहँ कंचन के अब धाम सुहावत।
कै पग में पनही न हती, कहँ लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
भूमि कठोर पै रात कटै, कहँ कोमल सेज पै नींद न आवत।
के जुरतो नहिं कोदो सवाँ, प्रभु के परताप ते दाख न भावत॥
जब सुदामा को सारी बात समझ में आ गई तो वे कृष्ण के गुणगान करने लगे। सुदामा सोचने लगे कि कमाल हो गया। जहाँ सर के ऊपर छत नहीं थी वहाँ अब सोने का महल शोभा दे रहा है। जिसके पैरों में जूते नहीं हुआ करते थे उसके आगे हाथी लिये हुए महावत खड़ा है। जिसे कठोर जमीन पर सोना पड़ता था उसके लिए फूलों से कोमल सेज सजा है। प्रभु की लीला अपरंपार है।
करबद्ध साभार : (नरोत्तमदास विरचित सुदामा चरित्रऔर पब्लिक डोमेन में उपलब्ध अन्य जानकारियों के माध्यम से ) Mahapuran@YouTube
FAQs –
सीस पगा न झगा तन में इस पद में किसकी दशा का वर्णन किया गया है?
सीस पगा न झँगा तन’ में इस पद में सुदामा की दशा का वर्णन किया गया है।
सीस पगा न झगा तन में प्रभु जानै को आहि बसे केहि ग्रामा कौन किससे कह रहा है?
कृष्ण का द्वारपाल आकर बताता है कि एक व्यक्ति जिसके सिर पर न तो पगड़ी है और ना ही जिसके पाँव में जूते हैं, उसने फटी सी धोती पहनी है और बड़ा ही दुर्बल लगता है। वह द्वारका के वैभव को निहार रहा है और अपका पता पूछ रहा है। वह अपना नाम सुदामा बता रहा है।
कै पग में पनही न हती कहँ लै गजराजहु ठाढ़े महावत में कौन सा अलंकार है?
अतिश्योक्ति अलंकार है।
पानी परात को हाथ छुओ नहीं किसकी पंक्ति है?
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सों पग धोए।” उक्त पंक्ति में भगवान श्री कृष्ण का अपने परम मित्र सुदामा को देखकर अत्यंत दुखी हो जाते हैं। वह इतनी दुखी हो जाते हैं कि पानी की बजाए अपने आंसुओं से मित्र के पैरों को ढूंढने लगते हैं।
सुदामा चरित के लेखक कौन थे?
सुदामा चरित कवि नरोत्तमदास द्वारा ब्रज भाषा में रचित काव्य-ग्रंथ है।
हाय महादुख पायो सखा श्रीकृष्ण ने सुदामा को देखकर ऐसा क्यों कहा?
श्री कृष्ण ने सुदामा की दीन-हीन दशा देखी तो वे दुखी हुए परंतु जब उन्होंने पैर धोने के लिए हाथ बढ़ाया और सुदामा के पैरों में फटी विवाइयाँ तथा काँटों का जाल देखा तो ऐसे विकट दुख को उन्होंने ‘महादुख’ कहा।
सुदामा चरित में किसका वर्णन मिलता है?
इसमें एक निर्धन ब्राह्मण सुदामा की कथा है जो बालपन में कृष्ण का मित्र था।
सुदामा कौन सी जाति के थे?
सुदामा एक ब्राह्मण थे