वाल्मीकि रामायण – सुन्दरकांडम – एकोनत्रिंशः सर्ग (Sarga 29)

शुभ शकुन संकेत– जिस समय दुखियारी , हर्ष शून्य, संतप्त और निंदारहित सीता जी मरने की तैयारी कर रही थी, उस समय वहां शुभ शकुन ऐसे उपस्थित हुए जैसे किसी धनी व्यक्ति के पास नौकर चाकर उपस्थित हो जाते है।

उन सुन्दर केशो वाली जानकी जी के चंचल पलको सहित काले तारे से शोभित, विशाल, शुक्लवर्ण और लालकोय वाला वामनेत्र (अर्थात वायी आँख) मछली द्वारा हिलाये हुए कमलपुष्प की तरह फड़कने लगे।

उनकी मनोहर गोल, सुडोल वामभुजा, जो बढ़िया अगर चन्दन से चर्चित अपने प्यारे पति के संयोग से वंचित थी, फड़कने लगी।

उनकी एक दूसरे से मिली हुयी सी दोनों जांघो में से वाम जांघ (वायी जांघ ) फड़कती हुयी मानो यह बतला रही थी की श्री रामचंद्र जी के सम्मुख ही खड़े हो।

उपमारहित आँखों वाली और अनार के दानो जैसी दंतपक्ति वाली सीता जी की सुनहले रंग की अर्थात चंपा (भगवा) रंग की ओढ़नी जो कुछ कुछ मैली सी हो गयी थी, सिर से खिसक पड़ी।

हवा और घाम से नष्ट हुआ बीज जिस प्रकार वर्षा होने पर पुनः हरा भरा हो जाता है, ठीक उसी तरह सीता जी उक्त शुभ शकुनो को देखकर और उनका शुभफलादेश जानकार, हर्षित हो गयी।

कुंदरू फल की तरह लाल अधरों से युक्त सुन्दर नेत्र, सुन्दर भोहों व् केशो सहित, चंचल, शोभायुक्त, सफ़ेद मोती की तरह चमकीले दांतो से युक्त सीता जी का मुख मंडल, राहु से छूटे हुए पूर्ण चंद्र की तरह सुशोभित होने लगा।

उस समय श्री सीता जी शोक, आलस्य, और संताप से रहित और स्वस्थचित्त हो, अपने प्रसन्न मुखमण्डल से ऐसी शोभायमान हुई जैसे की शुक्लपक्ष की रात, चन्द्रमा उदय से शोभायमान होती है।

यहाँ सुन्दरकाण्ड का उन्तीसवाँ सर्ग पूरा होता है।

 

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Last Update: January 16, 2025