सुमन्तु मुनि बोले – राजन्! अब आप भगवान् सूर्य को अत्यन्त प्रिय सूर्यषष्ठी व्रत के विषय में सुनें।
सूर्यषष्ठी व्रत करने वाले को जितेन्द्रिय एवं क्रोध रहित होकर अयाचित-ब्रत का पालन करते हुए भगवान् सूर्य की पूजा में तत्पर रहना चाहिये। ब्रती को अल्प और सात्त्विक-भोजी तथा रात्रि भोजी होना चाहिये। स्नान एवं अग्निकार्य करते रहने चाहिये और अधः:शायी होना चाहिये। मध्याह में देवताओं द्वारा, पूर्वाह में ऋषियों द्वारा, अपराह में पितरों द्वारा और संध्या में गुह्यकों द्वारा भोजन किया जाता है। अतः इन सभी कालों का अतिक्रमण कर सूर्यब्रती के भोजन का समय रात्रि ही माना गया है।
मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी से यह व्रत आरम्भ करना चाहिये। इस दिन भगवान् सूर्य की ‘अंशुमान्’ नाम से पूजा करनी चाहिये तथा रात्रि में गोमूत्र का प्राशन कर निराहार हो विश्राम करना चाहिये। ऐसा करनेवाला व्यक्ति अतिरात्र-यज्ञ का फल प्राप्त करता है।
इसी प्रकार पौष में भगवान् सूर्य की ‘सहस्रांशु” नाम से पूजा करे तथा घृत का प्राशन करे, इससे वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
माघ मास में कृष्ण पक्ष की षष्ठी को रात्रि में गोदुग्ध-पान करे। सूर्य की पूजा ‘दिवाकर’ नाम से करे, इससे महान् फल प्राप्त होता है।
फाल्गुन मास में “मार्तण्ड’ नाम से पूजाकर, गोदुग्ध का पान करने से अनन्त काल तक सूर्य लोक में प्रतिष्ठित होता है।
चैत्र मास में भास्कर की “विवस्वान्’ नाम से भक्तिपूर्वक पूजा कर हविष्य-भोजन करने वाला सूर्यलोक में अप्सराओं के साथ आनन्द प्राप्त करता है।
वैशाख मास में “चण्डकिरण’ नाम से सूर्य की पूजा करने से दस हजार वर्षो तक सूर्यलोक में आनन्द प्राप्त करता है। इसमें पयोत्रती होकर रहना चाहिये।
ज्येष्ठ मास में भगवान् भास्कर की ‘दिवस्पति’ नाम से पूजा कर गो-शृंग का जल-पान करना चाहिये। ऐसा करने से कोटि गोदान का फल प्राप्त होता है।
आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को ‘अर्क’ नाम से सूर्य की पूजा कर, गोमय का प्राशन करने से सूर्यलोक की प्राप्त होती है।
श्रावण मास में “अर्यमा” नाम से सूर्य का पूजन कर दुग्ध-पान करे, ऐसा करने वाला सूर्यलोक में दस हजार वर्षो तक आनन्दपूर्वक रहता है।
भाद्रपद मास में ‘भास्कर’ नाम से सूर्य की पूजा कर पञ्चगव्य प्राशन करे, इससे सभी यज्ञों का फल प्राप्त होता है।
आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी में ‘भग’ नाम से सूर्य की पूजा करे, इसमें एक पल गोमूत्र का प्राशन करने से अश्वमेध-यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को ‘शक्र’ नाम से सूर्य की पूजाकर दूर्वांकुर का एक बार भोजन करने से राजसूय-यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
वर्ष के अन्त में सूर्य-भक्तिपरायण ब्राह्मणों को मधु संयुक्त पायस का भोजन कराये तथा यथाशक्ति स्वर्ण और वस्त्रादि समर्पित करे। भगवान् सूर्य के लिये काले रंग की दूध देने वाली गाय देनी चाहिये। जो इस ब्रत का एक वर्ष तक निरन्तर विधिपूर्वक सम्पादन करता है, वह सभी पापों से विनिर्मुक्त हो जाता है एवं सभी कामनाओं से पूर्ण होकर शाश्वत काल तक सूर्यलोक में आनन्दित रहता है।
सुमन्तु मुनि बोले – राजन्! इस कृष्ण-षष्ठी ब्रत को भगवान् सूर्य ने अरुण से कहा था। यह ब्रत सभी पापों का नाश करने वाला है। भक्तिपूर्वक भगवान् भास्कर की पूजा करने वाला मनुष्य अमित तेजस्वी भगवान् भास्कर के अमित स्थान को प्राप्त करता है।
स्रोत – श्रीभविष्यपुराण – व्राह्मपर्व – सूर्यषष्ठी व्रत की महिमा (अध्याय 164 )
दंडवत आभार – श्रीगीताप्रेस गोरखपुर प्रेस – संक्षिप्त भविष्यपुराण, पेज संख्या 188