तुलसी माहात्म्य (कार्तिक मास में तुलसी की महिमा) –
ब्रह्माजी कहते हैं – कार्तिक मास में जो विष्णुभक्त पुरुष प्रातःकाल स्नान करके पवित्र हो कोमल तुलसीदल से भगवान् दामोदर की पूजा करता है। वह निश्चय ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जो भक्ति से रहित है, यदि वह सुवर्ण आदि से भी भगवान् की पूजा करे तो भी वे उस की पूजा ग्रहण नहीं करते है। सभी वर्णो के लिए भक्ति ही सबसे उत्कृष्ट मानी गयी है। भक्तिहीन कर्म भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने वाला नहीं होता है। यदि तुलसी के आधे पत्ते से भी प्रतिदिन भक्तिपूर्वक भगवान की पूजा की जाय तो भी वे स्वयं आकर दर्शन देते हैं। पूर्वकाल में भक्त विष्णुदास भक्ति पूर्वक तुलसी-पूजन से शीघ्र ही विष्णुधाम को चला गया और राजा चोल उसकी तुलना में गौण हो गये |
अब तुलसी का माहात्म्य सुनो – यह पाप का नाश और पुण्य की वृद्धि करने वाली है | अपनी लगायी हुईं तुलसी जितना ही अपने मूल का विस्तार करती है; उतने ही सहस्त्र युगो तक मनुष्य ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता दै । यदि कोई तुलसी युक्त जल में स्नान करता है; तो वह सब पापों से मुक्त हो, भगवान् विष्णु के लोक में आनंद का अनुभव करता है।
महामुने ! – जो लगाने के लिये तुलसी का संग्रह करता है और लगाकर तुलसी का वन तैयार कर देता है, वह उतनें से ही पापमुक्त हो ब्रह्मभाव को प्राप्त होता है। जिसके घरमें तुलसी का बगीचा विद्यमान है, उसका वह घर तीर्थ के समान है। वहाँ यमराज के दूत नहीं जाते |
तुलसीवन सब पापों को नष्ट करने वाला, पुण्यमय तथा अभीष्ट कामनाओं को देने वाला है। जो श्रेष्ठ मानव तुलसी का बगीचा लगाते है, वे यमराज को नहीं देखते। जो मनुष्य तुलसी काष्ठयुक्त गंध धारण करता है, पाप उसके शरीर का स्पर्श नहीं करता है। जहाँ तुलसीवन की छाया होती है, वही पितरो की तृप्ति के लिए श्राध्द करना चाहिए। जिसके मुख में, कान में और मस्तक पर तुलसी का पत्ता दिखाई देता है, उसके ऊपर यमराज भी दृष्टि नहीं डाल सकते है, फिर दूतों की तो बात ही क्या है। जो प्रतिदिन आदरपूर्वक तुलसी की महिमा सुनता है, वह सब पापों से मुक्त हो ब्रह्म लोक को जाता है।
पूर्वकाल की बात है काश्मीर देश में हरिमेधा और सुमेधा नामक दो ब्राह्मण थे, जो भगवान विष्णु की भक्ति में सलंग्न रहते थे। उनके ह्रदय में सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति दया थी वे सब तत्वों का यथार्थ मर्म समझने वाले थे। किसी समय वे तीर्थ यात्रा के लिए चले। चलते चलते किसी दुर्गमवन वन में वे परिश्रम से व्याकुल हो गए। वहां उन्होंने एक स्थान पर तुलसीवन देखा। उनमे से सुमेधा ने वह तुलसी का महान वन देखकर उसकी परिक्रमा की और भक्तिपूर्वक प्रणाम किया है।
यह देखकर हरिमेधा ने तुलसी का माहात्म्य जानने के लिए बड़ी प्रसन्नता के साथ बार बार पूछा – ब्रहमन ! अन्य देवताओं तीर्थो, व्रतों और मुख्य मुख्य ब्राह्मणों के रहते हुए तुमने तुलसीवन को क्यों प्रणाम किया है?
सुमेधा बोला – महाभाग ! सुनो । – यहाँ धूप सता रही है; इसलिये हम लोग उस बरगद के समीप चर्ले | उसकी छाया-में बैठकर मैं यथार्थरूप से सब बात बताऊँगा |
वहाँ विश्राम करके सुमेधा ने हरिमेधा से कहा – प्रियवर ! पूर्वकाल में दुर्वाशा के शाप से जब इन्द्र का ऐश्वर्य छिन गया था; उस समय ब्रह्मा आदि देवताओं और असुरों ने मिलकर क्षीरसागर का मंथन किया | उससे ऐराबत हाथी, कल्पवृक्ष, चन्द्रमा, लक्ष्मी, उच्चैश्रवा घोड़ा, कौस्तुभमाणि तथा धन्व॒न्तरि- रूप भगवान् श्रीहरि और दिव्य औषधियाँ प्रकट हुई | तदनन्तर अजरता और अमरता प्रदान करने वाले उस अमृतकलश कों दोनों हाथो में लिये हुए भी श्रीविष्णु बड़े हर्ष को प्राप्त हुए।
उनके नेत्रों से आनन्दअश्रु की कुछ बूंदे उस अमृत के ऊपर गिरी। उनसे तत्काल ही मंडलाकार तुलसी उत्पन्न हुयी। इस प्रकार यहाँ प्रकट हुयी तुलसी एवं लक्ष्मी को ब्रह्मा आदि देवताओं ने श्रीहरि को समर्पित किया और भगवान् ने उन्हें ग्रहण कर लिया। तब से तुलसी जी जगदीश्वर श्री विष्णु की अत्यंत प्रिय करने वाली हो गयी। सम्पूर्ण देवता भगवानप्रिया तुलसी जी की श्री विष्णु के समान ही पूजा करते है।
सुभेधा इस प्रकार कह ही रहे ये कि सूर्य के समान अत्यन्त तेजस्वी एक विशाल विमान उनके निकट ही दिखायी दिया । उन दोनों के आगे ही बह बरगंद का वृक्ष गिर पढ़ा और उससे दो दिव्य पुरुष निकले, जो अपने तेज से सूर्य के समान सम्पूर्ण दिशाओ कों प्रकाशित कर रहे थे| उन दोनों ने हरिमेधा और सुमेधा कों प्रणाम किया |
उन्हें देखकर दोनों ब्राह्मण भाव विभ्हल हो गए और आश्चर्यचकित होकर बोले – “आप दोनों कौन हैं ! देवताओ के समान आपका सर्वमंगलमय स्वरूप है । आप नूतन मंदार की माला धारण किये कोई देवता प्रतीत हो रहे हैं?
उन दोनों के इस प्रकार पूछने पर बृक्ष से निकले हुए. पुरुष बोले –“प्रियवरो ! आप दोनों ही हमारे माता-पिता और गुरु हैं, बंधू आदि भी आप ही दोनों हैं ?
इतना कहकर उनमें से जो ज्येष्ठ था; वह बोला – ‘मेरा नाम आस्तिक है, मैं देवलोक का निवासी हूँ । एक दिन मैं नंदन वन में एक पर्वत पर क्रीडा करने के लिये गया । वहाँ देवांगनाओं ने मेरे साथ इच्छानुसार विहार किया। उस समय युवतियों के मोती और बेला के हार, तपस्या करते हुए लोमश मुनि के ऊपर गिर पड़े | पह सब देखकर मुनि को बड़ा क्रोध हुआ | उन्होंने सोचा कि स्त्रियाँ तो परतन्त्र होती हैं, अतः यह उनका अपराध नहीं है | यह दुराचारी आस्तिक ही शाप पाने योग्य है | ऐसा निश्चय करके उन्होंने मुझे शाप दिया। अरे । तू ब्रह्मराक्षस होकर बरगद के वृक्ष पर निवास कर |
फिर मैंने विनयपूर्वक जब उन्हें प्रसन्न किया तब उन्होंने इस शाप से मुक्त होने की अवधि भी निश्चित कर दी और कहा – “जब तू किसी ब्राह्मण के मुख से भगवान् विष्णु का नाम और तुलसीदल की महिमा सुनेंगा, तब तत्काल तुझे उत्तम मोक्ष प्राप्त होगा।”
इस प्रकार मुनि का शाप पाकर मैं चिरकाल से अत्यन्त दुखी हो इस वटवृक्ष पर निवास करता था। आज देंववश आप दोनों के दर्शन से मुझे निश्चय ही शाप से छुटकारा मिल गया | अब मेरे इस दूसरे साथी की कथा सुनिये – यें पहले एक श्रेष्ठ मुनि थे और सदा गुरु की सेवा मे ही लगे रखते थे | एक समय गुरु की आज्ञा का उलंग्घन करके ये ब्रह्मराक्षस स्वाभाव को प्राप्त हो गए। किन्तु आपके प्रसाद से इस समय इनकी भी ब्राह्मण के शाप से मुक्ति हो गयी। आप दोनों ने तीर्थयात्रा का फल यही प्राप्त कर लिया।
ऐसा कहकर वे दोनों श्रेष्ठ ब्राह्मणों को बार-बार प्रणाम करके, उनकी आज्ञा से प्रसन्नतापूर्वक अपने दिव्यधाम को गए। तत्पश्चात वे दोनों श्रेष्ठ मुनि परष्पर पुण्यमयी तुलसी की प्रशंसा करते हुए तीर्थयात्रा के लिए चल दिए। इसलिए भगवान् विष्णु को प्रसन्नता देने वाले इस कार्तिकमास में तुलसी की पूजा अवश्य करनी चाहिए।
स्रोत – श्रीस्कंदपुराण के वैष्णवखण्ड में कार्तिक मास का माहात्म्य
आभार – श्री गीताप्रेस, हरिद्वार, कल्याण विशेषांक, संक्षिप्त स्कंदपुराण, पेज संख्या ३२१