ईश्वर की वाणी जो प्राचीन काल में ब्रह्मा जी से ऋषियों द्वारा सुनी गई थी और उन ऋषियों के शिष्यों के द्वारा सुनकर जगत में फैलाई गई थी। ये दिव्य ज्ञान श्लोक के रूप में था, जिसके कारण इनमे परिवर्तन नहीं हुआ। इस दिव्य स्रोत के कारण इन्हें धर्म का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत माना है।
वेदो और उपनिषदों को श्रुति क्यों कहा जाता है?
वेदों को श्रुति दो वजह से कहा जाता है :
स्मृति ( भगवान द्वारा कहे गए, तथा ऋषियों द्वारा सुने गए ग्रंथो की रचना –
इनको परम्-ब्रह्म परमात्मा ने प्राचीन ऋषियों को उनके अन्तर्मन में सुनाया था जब वे ध्यानमग्न थे। अर्थात श्रुति ईश्वर-रचित हैं। या साक्षात् ईश्वर की वाणी है।
श्रुति में चार वेद आते हैं :
- ऋग्वेद – Buy Rigveda Books
- सामवेद – Buy Samveda Books
- यजुर्वेद – Buy Yajurveda Books
- और अथर्ववेद। – Buy Atharvaveda Books
हर वेद के चार भाग होते हैं : संहिता, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद्।
श्रुति करने के बाद ऋषियों के स्मरण और भाव से बने ग्रंथ –
इनके अलावा बाकी सभी धर्मग्रन्थ स्मृति के अन्तर्गत आते हैं।
अन्य ग्रंथों को स्मृति माना गया है – जिनका अर्थ है की ऋषियों में श्रुति से उत्पन्न ज्ञान के स्मरण और उत्पन्न बुद्धि से बने ग्रंथ जो वस्तुतः श्रुति के ही मानवीय विवरण और व्याख्या माने जाते हैं।
इसलिए श्रुति करने के बाद ऋषियों के स्मरण और बुद्धि से बने ग्रंथो में असमानता या भिन्नता दिखती है, लेकिन सबका भाव और भक्ति एक ही होती है।
वेद व्यास ने 18 पुराणों की रचना की, जिन्हे स्मृति के द्वारा रचा गया है। पुराणों के बारे में जानने के लिए यहाँ देखे।
क्या आप जानते है? – वेदो की रचना के बाद इन वेदो की श्लोक की संख्या, शब्द संख्या, खंडो की संख्या लिख दी गयी थी, ताकि मिलाबट न हो सके।
वेदो की शिक्षा –
वेदों को पहले लिखा नहीं जाता था, इनको गुरु अपने शिष्यों को सुनाकर याद करवा देते थे, ये श्लोक के रूप में है, इसलिए इनमे कभी भी कोई भी बदलाव नहीं आया। और इसी तरह दिव्य ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में ले जाने का कर्तव्य ब्राहम्णो, ऋषि, मुनियो का था, और इनकी रक्षा का दायित्व क्षत्रियो पर था। तो समाज को चलाने का दायित्व वैश्य और शूद्र वर्ण पर था।
धर्मी –
शूद्र के घर में ब्राह्मण और ब्राह्मण के घर में शूद्र भी पैदा हो सकता था, अर्थात इनमे कोई भी ऊंच नीच न थी और न है। सिर्फ एक दूसरे के प्रति दायित्व और धर्म था – एक दूसरे की सुरक्षा का, शिक्षा का, पालन का, व्यापार का। दायित्व मनुष्य का प्रथम धर्म है, चाहे वो उसके परिवार के प्रति, समाज के प्रति, देश के प्रति या अजन्मा ब्रह्म के प्रति।
अर्थात दायित्व को अपनी रूचि अनुसार बदल तो सकते थे। जैसे –
- तब ब्राह्मण भी व्यापार करते थे जैसे की सत्य नारायण की व्रत कथा, जिसका वर्णन भविष्य पुराण में मिलता है।
- केवट या मछुआरे की लड़की रानी बनती है या क्षत्रिय बनती है जैसे राजा शांतनु की पत्नी रानी सत्यवती।
- व्यास जो की रानी सत्यवती के पुत्र थे, वो ब्राह्मण होते है। जिन्होंने वेदो के ज्ञान को सरल बनाया।
- वाल्मीकि जो जन्म से ब्राह्मण नहीं थे, लेकिन रामनाम के प्रभाव से ब्रह्म ऋषि बन गए।
- आदि आदि उदाहरण शास्त्रों में भरे पढ़े है।
अधर्मी –
किसी भी प्रकार का दायित्व न निभाने वालो को, अधर्मी की श्रेणी में डाला जाता था, जो आगे चलकर नीच (धर्म से पतित) / मलेच्छी ( मलिन इच्छा वाला) कहलाये। (आज के समय में ऐसे लोग हर धर्म और जाति में है )
जैसे –
- जैसे अगर माता पिता अपने संतान का पालन नहीं करते है तो वो अधर्मी है
- ठीक उसी तरह से वही संतान अगर अपने वृद्ध माता पिता की सेवा या देखभाल नहीं करते है तो वो भी अधर्मी है।
- स्त्री हरण, वस्त्र हरण या सम्पति को हड़पने वाले रावण, दुर्योधन आदि अधर्मी ।
- आदि आदि उदाहरण शास्त्रों में भरे पढ़े है।
वेदों के प्रकार और उदेश्य –
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ऋग्वेद –
चारो वेदों में यह सबसे प्राचीन तथा प्रथम वेद जिसमें मन्त्रों की संख्या 10462,मंडल की संख्या 10 तथा सूक्त की संख्या 1028 है।
माना जाता है कि ऋग्वेद वेद में सभी मंत्रों के अक्षरों की कुल संख्या 432000 है।
ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान। ऋग्वेद सबसे पहला वेद है जो पद्यात्मक है। इसके 10 मंडल (अध्याय) में 1028 सूक्त है जिसमें 10627 मंत्र हैं। मंत्रों में देवताओं की स्तुति की गयी है। इसमें देवताओं का यज्ञ में आह्वान करने के लिये मन्त्र हैं। यही सर्वप्रथम वेद है। ऋग्वेद को इतिहासकार हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की अभी तक उपलब्ध पहली रचनाऔं में एक मानते हैं। यह संसार के उन सर्वप्रथम ग्रन्थों में से एक है जिसकी किसी रूप में मान्यता आज तक समाज में बनी हुई है। ऋग्वेद की विश्व का सबसे पहला ग्रंथ है ।
ऋग्वेद में 33 प्रकार के देवी-देवताओं का उल्लेख है। इस वेद में सूर्या, उषा तथा अदिति जैसी देवियों का वर्णन किया है। इसमें अग्नि को आशीर्षा, अपाद, घृतमुख, घृत पृष्ठ, घृत-लोम, अर्चिलोम तथा वभ्रलोम कहा गया है। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में निर्गुण ब्रह्म का वर्णन है।
इस वेद में आर्यों के निवास स्थल के लिए सर्वत्र ‘सप्त सिन्धवः’ शब्द का प्रयोग हुआ है। और जो आर्य नहीं थे उन्हें अनार्य कहा गया है इस में कुछ अनार्यों जैसे – पिसाकास, सीमियां आदि के नामों का उल्लेख हुआ है। इसमें अनार्यों के लिए ‘अव्रत’ (व्रतों का पालन न करने वाला), ‘मृद्धवाच’ (अस्पष्ट वाणी बोलने वाला), ‘अनास’ (चपटी नाक वाले) कहा गया है।
ऋग्वेद की 21 शाखाओं का वर्णन मिलता है, उनमें से चरणव्युह ग्रंथ के अनुसार पाँच ही प्रमुख हैं-
1. शाकल, 2. वाष्कल, 3. आश्वलायन, 4. शांखायन और 5. माण्डूकायन।
इसमें भौगोलिक स्थिति और देवताओं के आवाहन के मंत्रों के साथ बहुत कुछ है। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियां और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वारा चिकित्सा आदि की भी जानकारी मिलती है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में औषधि सूक्त यानी दवाओं का जिक्र मिलता है। इसमें औषधियों की संख्या 125 के लगभग बताई गई है, जो कि 107 स्थानों पर पाई जाती है। औषधि में सोम का विशेष वर्णन है। ऋग्वेद में च्यवनऋषि को पुनः युवा करने की कथा भी मिलती है।
मूल विषय –
विभिन्न देवताओं का वर्णन है तथा ईश्वर की स्तुति आदि, ज्ञान है।।
ऋग्वेद का उदेश्य –
मनुष्यों को प्रकृति और सत्ताओं का ज्ञान देना।
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यजुर्वेद –
यजुर्वेद में कार्य (क्रिया) व यज्ञ (समर्पण) की प्रक्रिया के लिये 1975 गद्यात्मक मन्त्र हैं।
यजुर्वेद का अर्थ : यत् + जु = यजु। यत् का अर्थ होता है गतिशील तथा जु का अर्थ होता है आकाश। इसके अलावा कर्म। श्रेष्ठतम कर्म की प्रेरणा। यजुर्वेद में यज्ञ की विधियां और यज्ञों में प्रयोग किए जाने वाले मंत्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है। तत्व ज्ञान अर्थात रहस्यमयी ज्ञान। ब्रह्माण, आत्मा, ईश्वर और पदार्थ का ज्ञान। यह वेद गद्य मय है। इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिए गद्य मंत्र हैं।
इस वेद की दो शाखाएं हैं शुक्ल और कृष्ण।
कृष्ण : वैशम्पायन ऋषि का सम्बन्ध कृष्ण से है। कृष्ण की चार शाखाएं हैं।
शुक्ल : याज्ञवल्क्य ऋषि का सम्बन्ध शुक्ल से है। शुक्ल की दो शाखाएं हैं। इसमें 40 अध्याय हैं। यजुर्वेद के एक मंत्र में च्ब्रीहिधान्यों का वर्णन
प्राप्त होता है। इसके अलावा, दिव्य वैद्य और कृषि विज्ञान का भी विषय इसमें मौजूद है।
यजुर्वेदाध्यायी परम्परा में दो सम्प्रदाय- ब्रह्म सम्प्रदाय अथवा कृष्ण यजुर्वेद और आदित्य सम्प्रदाय अथवा शुक्ल यजुर्वेद ही प्रमुख हैं। वर्तमान में कृष्ण यजुर्वेद की शाखा में ४ संहिताएँ -तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल कठ ही उपलब्ध हैं। शुक्ल यजुर्वेद की शाखाओं में दो प्रधान संहिताएँ- १. मध्यदिन संहिता और २. काण्व संहिता ही वर्तमान में उपलब्ध हैं।
कहा जाता है कि वेद व्यास के शिष्य वैशंपायन के 27 शिष्य थे, इनमें सबसे प्रतिभाशाली थे याज्ञवल्क्य। इन्होंने एक बार यज्ञ में अपने साथियो की अज्ञानता से क्षुब्ध हो गए। इस विवाद के देखकर वैशंपायन ने याज्ञवल्क्य से अपनी सिखाई हुई विद्या वापस मांगी। इस पर क्रुद्ध याज्ञवल्क्य ने यजुर्वेद का वमन कर दिया – ज्ञान के कण कृष्ण वर्ण के रक्त से सने हुए थे। इससे कृष्ण यजुर्वेद का जन्म हुआ। यह देखकर दूसरे शिष्यों ने तीतर बनकर उन दानों को चुग लिया और इससे तैत्तरीय संहिता का जन्म हुआ।
मूल विषय –
कर्म, क्रिया और समर्पण
यजुर्वेद का उदेश्य –
मनुष्यों को कर्म, क्रिया और समर्पण के बारे में बताना, प्रतीत होता है।
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सामवेद –
संगीत में लगे सुर को गाने के लिये 1875 संगीतमय मंत्र, जिन्हे सामगान भी कहा जा सकता है। साम का अर्थ रूपांतरण और संगीत। सौम्यता और उपासना।
इस वेद में ऋग्वेद की ऋचाओं का संगीतमय रूप है। सामवेद गीतात्मक यानी गीत के रूप में है। इस वेद को संगीत शास्त्र का मूल माना जाता है। 1824 मंत्रों के इस वेद में 75 मंत्रों को छोड़कर शेष सब मंत्र ऋग्वेद से ही लिए गए हैं।इसमें सविता, अग्नि और इंद्र देवताओं के बारे में जिक्र मिलता है। इसमें मुख्य रूप से 3 शाखाएं हैं, 75 ऋचाएं हैं। सामवेद यद्यपि छोटा है परन्तु एक तरह से यह सभी वेदों का सार रूप है और सभी वेदों के चुने हुए अंश इसमें शामिल किये गये है
सामवेद का महत्व इसी से पता चलता है कि गीता में कहा गया है कि -वेदानां सामवेदोऽस्मि। महाभारत में गीता के अतिरिक्त अनुशासन पर्व में भी सामवेद की महत्ता को दर्शाया गया है- सामवेदश्च वेदानां यजुषां शतरुद्रीयम्। अग्नि पुराण के अनुसार सामवेद के विभिन्न मंत्रों के विधिवत जप आदि से रोग व्याधियों से मुक्त हुआ जा सकता है एवं बचा जा सकता है, तथा कामनाओं की सिद्धि हो सकती है। सामवेद ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग की त्रिवेणी है।
ऋषियों ने विशिष्ट मंत्रों का संकलन करके गायन की पद्धति विकसित की। अधुनिक विद्वान् भी इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं कि समस्त स्वर, ताल, लय, छंद, गति, मन्त्र, स्वर-चिकित्सा, राग नृत्य मुद्रा, भाव आदि सामवेद से ही निकले हैं।
सामवेद में ऐसे मन्त्र मिलते हैं जिनसे यह प्रमाणित होता है कि वैदिक ऋषियों को एसे वैज्ञानिक सत्यों का ज्ञान था जिनकी जानकारी आधुनिक वैज्ञानिकों को हज़ारो शताब्दियों बाद प्राप्त हो सकी है।
आधुनिक वैज्ञानिकों के उदाहरण के लिए – इन्द्र ने पृथ्वी को घुमाते हुए रखा है। ( अर्थात पृथ्वी घूम रही वैदिक ऋषियों को पता था ), चन्द्र के मंडल में सूर्य की किरणे विलीन हो कर उसे प्रकाशित करती हैं। ( अर्थात चन्द्रमा में अपना प्रकाश नहीं है, वैदिक ऋषियों को पता था )
मूल विषय –
इस वेद का प्रमुख विषय उपासना है।
सामवेद का उदेश्य –
सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सामगान का प्रयोग किया जाता रहा है, आज भी बहुत से ब्राह्मण परिवार सामगान करते है।
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अथर्ववेद –
इसमें गुण, धर्म, आरोग्य, एवं यज्ञ के लिये 5977 कवितामयी मन्त्र हैं।
थर्व का अर्थ है कंपन और अथर्व का अर्थ अकंपन। ज्ञान से श्रेष्ठ कर्म करते हुए जो परमात्मा की उपासना में लीन रहता है वही अकंप बुद्धि को प्राप्त होकर मोक्ष धारण करता है। इस वेद में रहस्यमयी विद्याओं, जड़ी बूटियों, चमत्कार और आयुर्वेद आदि का जिक्र है। इसके 20 अध्यायों में 5687 मंत्र है। इसके आठ खण्ड हैं जिनमें भेषज वेद और धातु वेद ये दो नाम मिलते हैं।
अथर्ववेद की भाषा और स्वरूप के आधार पर ऐसा माना जाता है कि इस वेद की रचना सबसे बाद में हुई । अथर्ववेद से आयुर्वेद में विश्वास किया जाने लगा था। अनेक प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों का वर्णन अथर्ववेद में है। अथर्ववेद गृहस्थाश्रम के अंदर पति-पत्नी के कर्त्तव्यों तथा विवाह के नियमों, मान-मर्यादाओं का उत्तम विवेचन करता है। अथर्ववेद में ब्रह्म की उपासना संबन्धी बहुत से मन्त्र हैं। अथर्ववेद का ज्ञान भगवान ने सबसे पहले महर्षि अंगिरा को दिया था, फिर महर्षि अंगिरा ने वह ज्ञान ब्रह्मा को दिया |
मूल विषय –
इस वेद का प्रमुख विषय मनुष्यों में गुण, धर्म, आरोग्य, एवं यज्ञ का ज्ञान
अथर्ववेद का उदेश्य –
यजुर्वेद के माध्यम से मनुष्यों को भौतिक और आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त करना है।
वेदों के उपवेद :
ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का स्थापत्यवेद ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं।
एक प्रचलित मान्यता के अनुसार, वेद पहले एक संहिता में थे पर व्यास ऋषि ने अध्ययन की सुगमता के लिए इन्हें चार भागों में बाँट दिया। इस विभक्तिकरण के कारण ही उनका नाम वेद व्यास पड़ा। इनका विभाजन दो क्रम से किया जाता है –
(1) अष्टक क्रम – यह पुराना विभाजन क्रम है जिसमें संपूर्ण ऋक संहिता को आठ भागों (अष्टक) में बाँटा गया है। प्रत्येक अष्टक ८ अध्याय के हैं और हर अध्याय में कुछ वर्ग हैं। प्रत्येक अध्याय में कुछ ऋचाएँ (गेय मंत्र) हैं – सामान्यतः 5।
(2) मण्डल क्रम –ऋग्वेद के मंडल : इसके अतर्गत संपूर्ण संहिता १० मण्डलों में विभक्त हैं। प्रत्येक मण्डल में अनेक अनुवाक और प्रत्येक अनुवाक में अनेक सूक्त और प्रत्येक सूक्त में कई मंत्र (ऋचा)। कुल दसों मण्डल में ८५ अनुवाक और १०१७ सूक्त हैं। इसके अतिरिक्त ११ सूक्त बालखिल्य नाम से जाने जाते हैं।
शतपथ ब्राह्मण के श्लोक के अनुसार अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ने तपस्या की और ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को प्राप्त किया। प्रथम तीन वेदों को अग्नि, वायु, सूर्य (आदित्य), से जोड़ा जाता है और संभवत: अथर्वदेव को अंगिरा से उत्पन्न माना जाता है। एक ग्रंथ के अनुसार ब्रह्माजी के चारों मुख से वेदों की उत्पत्ति हुई।
वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के ‘भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट’ में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है। उल्लेखनीय है कि यूनेस्को की 158 सूची में भारत की महत्वपूर्ण पांडुलिपियों की सूची 38 है।
नोट – ये जानकारी बहुत ही संक्षिप्त है, इसमें विस्तार की संभावना है। श्रुति में चार वेद आते हैं : ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। हर वेद के चार भाग होते हैं : संहिता, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद्। इनके अलावा बाकी सभी हिन्दू धर्मग्रन्थ स्मृति के अन्तर्गत आते हैं।
डिस्क्लेमर – दी गयी जानकारी स्वयं के भाव और पब्लिक डोमेन में उपलब्ध जानकारी के अनुसार ही है, कृपया उचित जानकारी के लिए गुरु से पूछे।