श्री राम और हनुमान का मिलन अद्रभुत रामायण के अनुसार जिसमे श्री राम महावीर को चतुर्भुजरूप दिखाते है और सांख्ययोग अतिसूक्ष्मज्ञान का वर्णन करते है।
दशम सर्ग – श्री रामचंद्र का महावीर को चतुर्भुज रूप दिखाना
सीता लक्ष्मण जी के साथ श्रीरामचन्द्र दण्डकारण्य वन में आये !वहां गोदावरी के किनारे पर्णशाला रचकर मृगया करते कुछ दिन वहाँ रहे। एक समय मोह से जानकी को हरण कर रावण ले गया, सीता के दर्शन की (खोजने ) इच्छा से श्रीराम लक्ष्मण सम्पूर्ण वन ढूंढते हुए उनके नेत्रों के जल से एक वैतरणी नदी बह गई थी; आँसू विपरीत होने के कारण वह वैतरणी कहाई। जिसमें स्नान दान करने से मनुष्यों के पितर तरते और तृप्त हो जाते हैँ इसी कारण से वेतरणी कहाती है |
उनके नेत्रों के मल से वहां बहुत से पर्वत हो गये, फिर वे सुग्रीवके साथ मित्रता करने की इच्छा से, श्री रामचन्द्र लक्ष्मण जी के सहित ऋष्यमूक पर्वत को गये; वहां पांच मंत्रियों के साथ सुग्रीथ नामक वानर अपने भाई बाली के भय से रहता था, उसने श्री राम लक्ष्मण कों देखा, वह बीर चाप धारण किये आकाश से ग्रसतें हुए के समान थे। उनको देखकर सुग्रीव बडे त्रास को प्राप्त हुआ, कारण कि, उनको बाली के पक्ष का जाना, तब भिक्षु-रूप से महावीर श्री हनुमान जी को उनके निकट भेजा।
श्री राम और हनुमान का मिलन –
श्री हनुमान जी ने आत्मा में स्थित होकर श्रीरामलक्ष्मण के दर्शन करते हुए पूछा – आप कौन हो? इस प्रकार चतुर्बाहु किरीटधारी शंख, चक्र, गदापाणि वन माला से विभूषित श्रीवत्स वक्षस्थल में धारण किये, पीतवस्त्रधारी अच्युत लक्ष्मी सरस्वती से सेवित ब्रह्मा के पुत्र सनकादिक आदि से सब ओर सेब्यमान, देवता पितर गन्धर्व सिद्ध विद्याधर उरग महात्माओं से सेवित कमललोचन सहस्न सूर्यो के समान प्रकाशमान, सौ चन्द्रमा के समान सुन्दर मुख वाले, सहस्न फण घारण किये लृक्ष्मणजी को, जो अनन्त हैं और श्रीरघुनाथ जी के सिर पर अपने फणों का छत्र धारण किये हें वे सर्वोकेश नाग समूहों से स्तुति किये हुए हैं।
इस प्रकार श्रीरामचन्द्र नें महावीर जी के प्रति अपने आत्मस्वरूप को दिखाया, महावीरजी उस रूप को देख, यह क्या है? इस प्रकार से विस्मित हो गये। फिर क्षण-मात्र को नेत्र मीचकर फिर वह अद्भुत रूप देखते हुए और अनेक प्रकार की स्तुति और प्रणाम कर श्रीरामचन्द्रजी से कहने लगे।
श्री राम हनुमान संवाद –
मैं सुग्रीव का मंत्री हनुमान् नाम का वानर हूँ, सुग्रीव ने भेजा है और कहा कि देखियो वह कौन हैं ? आपको धनुषवाण धारण किया देखकर उन्होंने कुछ और ही प्रकार से आपको देखा, कहिये आप कौन है? इस प्रकार कहकर कंपित होते हुए और हाथ जोडकर सिर झुकाये वचन कहते महावीरवीरजी से, उदारतापूर्वक श्रीरामचन्द्र बोले।
एकादश सर्ग – श्रीराम का सांख्ययोग वर्णन करना
पुरुषोत्तम श्रीराम हनुमानजी से अपना वर्णन करने लगे – हे वत्स हनुमान् ! हमारे भक्त तुम जो हमसे पूछते हो । सो में कहता हूँ तुम सावधान होकर सुनो यह आत्मगुह्य सनातन ज्ञान किसी से कहना नहीं चाहिये। जिसको यत्न करने पर देवता और द्विजाति भी नहीं जानते हें, इस ज्ञान को प्राप्त द्विजोत्तम ब्रह्ममय हो जाते है। इसके द्वारा पूर्बब्रह्मवादी भी संसार को नहीं देखते हें यह गुप्त से गुप्त छिपा रखने के योग्य है। जो जानता है उसके वंश में महात्मा और ब्रह्मवादी होते हैँ, आत्मा केवल स्वच्छ शान्त सूक्ष्म सनातन है । वह सर्वान्तर साक्षात् चिन्मात्र अंधकार से परे है, वही अन्तर्यामी पुरुष प्राण और महेश्वर है।
वही कालाग्नि अव्यक्त है यह वेदश्रुति कहती है, इससे संसार उत्पन्न होकर इसी में लय हो जाता है। वही मायावी माया से बद्ध होकर अनेक शरीर धारण करता है, न कोई इसे चला सकता है न यह चलता है। न यह पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश प्राण मन अव्यक्त शब्द स्पर्श है न रूप रस गंध और न अहंकार न वाणी है।
हे महावीर ! कर चरण उपस्थपायुरूप भी नहीं है। कर्त्ता भोक्ता प्रकृति पुरुष, माया प्राण भी नहीं है, यह केवल चैतन्य स्वरूप है। जिस प्रकार प्रकाश और अन्धकार में सम्बन्ध नहीं है इसी प्रकार प्रपंच से परमात्मा का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है।
जैसे लोक में छाया और वृक्ष परस्पर विलक्षण है, ठीक इसी प्रकार प्रपंच और पुरुष परमार्थं से भिन्न है। जो आत्मा की मलिन अवस्था है जो स्वभाव से विकारी हो तो सौ जन्म में भी मुक्ति नहीं हो सकती। मुनिजन परमार्थ से अपने आत्मा को मुक्त देखते हें, विकारहीन दुःख रहित आनंद अविनाशी देखते है कि मैं कर्ता सुखी दुखी हूं, स्थूल कृश हूँ, यह बुद्धि अहंकार के सम्बंध से प्राणी आत्मा में आरोपण करते हैं। वेद को जानने वाले उसको प्रकृति से परे कहते हें, वही भोक्ता अक्षय सर्वत्र स्थित है। इस कारण सब देहघारियों को यह संसार अज्ञान से प्रतीत होता है, ज्ञान से अन्यथा दीखता है और वह भी प्रकृति के संग से ऐसा है।
वह सर्वातर्यामी पुरुष नित्य उदित स्वयं ज्योति स्वंगामी पुरुष पर है, उसके विना जाने यह पुरुष अहंकार के विवेक करने से अपने आपको कर्ता मानता है। ऋषिजन उस सदात्मक सर्वंगामी चैतन्य कों यथार्थ देखते हें, ब्रह्मवादी उस प्रधान प्रकृति कारण ब्रह्म को जानकर मुक्त होते है। इसी कार्य में यह पुण्य अपुण्य देखा जाता है ऐसी श्रुति है, इसी के वश से सब देहधारियों के देह की उत्पत्ति है। आत्मा नित्य और सर्वत्रगामी है, कूटस्थ दोष से वर्जित एक ही वह अपने माया स्वभाव से अनेक प्रकार का दीखता है।
इस कारण से मुनिजन परमार्थं से अद्वेत ही कहते हें, स्वभाव से जो अव्यक्त का भेद है वह माया है। जैसे धूप के सम्पर्क से आकाश में श्यामता दीखती है, आकाश में दोष नहीं आता इसी प्रकार अन्तःकरण के भावों में आत्मा मलिन
नहीं होता है। जैसे स्फटिक मणी केवल अपनी कांति से ही शोभा को प्राप्त होती है उपाधिहीन होने से निर्मेल है उसी प्रकार आत्मा प्रकाशित होता है। इस जगत को ज्ञानरूप कहते हैं, कुबुद्धि अज्ञानी इसको अर्थंस्वरूप देखते हैं।
वह कूटस्थ निर्गुण व्यापी आत्मा स्वभाव से चैतन्य है, भ्रांति दृष्टि वाले पुरुषों को यह अर्थरूप दीखता है। जैसे मनुष्यों को केवल स्फटिक प्रत्यक्ष दीखता है और व्यवधान सहित होने से छालिमा आदि दीखती है इसी प्रकार परम पुरुष है पृथक शुद्ध है देह में व्याप्त होनसे उपाधिमान् दीखता है। इस कारण आत्मा अक्षर शुद्ध नित्य सर्वतक अविनाशी है वही उपासना करने योग्य मानने योग्य और मुमुक्षुओं के सुनने योग्य है। जिस समय मन में सर्वंगामी चैतन्य का प्रादुर्भाव होता है तब योगी व्यववानरहित हो उसको प्राप्त होता है।
वह कूटस्थ निर्गुण व्यापी आत्मा स्वभाव से चैतन्य है, भ्रांति दृष्टि वाले पुरुषों को यह अर्थरूप दीखता है। जैसे मनुष्यों को केवल स्फटिक प्रत्यक्ष दीखता है और व्यवधान सहित होने से छालिमा आदि दीखती है इसी प्रकार परम पुरुष है पृथक शुद्ध है देह में व्याप्त होनसे उपाधिमान् दीखता है। इस कारण आत्मा अक्षर शुद्ध नित्य सर्वतक अविनाशी है वही उपासना करने योग्य मानने योग्य और मुमुक्षुओं के सुनने योग्य है। जिस समय मन में सर्वंगामी चैतन्य का प्रादुर्भाव होता है तब योगी व्यववानरहित हो उसको प्राप्त होता है।
जिस समय सम्पूर्ण प्राणियों को अपनी आत्मा में देखता है और अपने को सब भूतों में देखता है तब उस ब्रह्मको प्राप्त होता है। जो सब भूतों को अपने में देखता है तब यह एक एकीभूत केवल ब्रह्माको प्राप्त होता है। जब इसके हृदय की सब कामना छूट जाती है तब यह पंडित अमृतीभूत होकर क्षेम को प्राप्त होता है। भूतों को पृथग्भाव को एक स्थान में देखता है उसी समय ब्रह्मविचारक विस्तार को प्राप्त होता है।
जब परमार्थ से अपने को केवल एक देखता है और जगत को माया मात्र देखता है तब निवृति हो जाती है। जिस समय जन्म जरा दुःख व्याधियों को एक ही औषधी केवल ब्रह्मज्ञान होता है तब यह शिव होता है। जैसे नदी नद समुद्र में जाकर एकता को प्राप्त होते हें इसी प्रकार से यह निष्कल आत्मा अक्षर में मिलकर एकता को प्राप्त होता है। इस प्रकार से विज्ञान ही है प्रपंच और स्थिति नहीं है, लोक अज्ञान से व्याकुल होकर विज्ञान से देखता है।
वह ज्ञान निर्मल सूक्ष्म निर्विकल्प अविनाशी है, यह अज्ञान से सब होता है, विज्ञान है वही सर्वे श्रेष्ठ है एक यही निश्चय है। यह परम सांख्य उत्तम ज्ञान है, सब वेदान्त का सारयोग वही है कि एकचित्तता होनी चाहिए। योग से ज्ञान होता है ज्ञान से योग प्रवृत्त होता है, ज्ञानयोग से युक्त पुरुषों कों कुछ भी दुलंभ नहीं है। जिस मार्ग से योगी चलते हें उसी मार्ग से सांख्य वाले जाते है, सांख्य योग से जो एकता देखता है वही देखता है।
हें वत्स ! ऐश्यर्य में मन लगाने वाले योगी और है, वे उन स्थानों में निमज्जित होते है, सत्त्वात्मा एक है यह श्रुति है। जो सर्वगत दिव्य अचल ऐश्वर्य है। ज्ञानयोग में युक्त प्राणी उस सबको देहान्त में प्राप्त हो जाते हैं। यह मैं अव्यक्त आत्मा मानवी परमेश्वर हूँ सब वेदों में सर्वात्मा सर्वतोमुख स्थित हो रहा हूँ। ।सर्वकामयुक्त सर्वेरस, सर्वंगंध अजर अमर सब ओरसे पाणिपादयुकत, मैं अन्तर्यामी सनातन हूँ। अपाणिपादवाला वेगवान् सबकुछ ग्रहण करनेवाला हृदय में स्थित हूँ, बिना नेत्रों देखता और विना कानके सुनता हूँ। मैं इस सबको जानता हूँ और मुझे कोई नहीं जानता है, तत्वदर्शी मुझको एक महान् पुरुष कहते हैं।
निर्गुण अमलूरूप जो उत्तम ऐश्वर्य है जिसको मेरी माया से मोहित हुए देवता भी मुझको नहीं जानते है। जो मेरा गुह्मरूप सर्वंगामी देह है उसमें तत्त्वदर्शी प्रवेश कर मेरे सायुज्य को प्राप्त होते हैं। जिनको यह विश्वरूपिणी माया नहीं लिपटी है वे मेरे साथ परम शुद्ध निर्वाण को प्राप्त होते हैं। सौ करोड कल्प में भी उनकी पुनरावृत्ति नहीं होती, हे वत्स ! मेरी कृपा से ऐसा होता है यही वेद का अनुशासन है।
हे हनुमत् ! यह ज्ञान अपुत्र अशिष्य अयोगी को नहीं देनी चाहिये, जो यह मैंने सांख्ययोग मिश्रित ज्ञान आप से वर्णन किया है।
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकिये आदि काव्ये अद्रभुतोत्तरकांडे सांख्ययोग्ये नामैकादश: सर्ग:
स्रोत – अद्रभुत रामायण (दशम सर्ग+एकादश सर्ग )
सौजन्य से – टीकाकार – विद्यावारिधि श्री पंडित ज्वालाप्रसाद मिश्र ( श्री खेमराज श्रीकृष्णदास – श्री वेंकेटेश्वर प्रेस, मुंबई)