मुमुक्षु का अर्थ है मोक्ष की या मुक्ति की इच्छा रखने वाला जीव या मनुष्य।

मुमुक्षु कैसे बने?

निष्काम कर्म के द्वारा ही आत्मा की शुद्धि होती है। जिसमे स्वार्थ आ गया वो कभी भी मुमुक्षु नहीं बन सकता। ध्यान रहे की तीर्थो में स्नान दान या सैकड़ो प्राणायाम करने से नहीं अपितु गुरु की हितकर युक्तियों पर विचार करके उसका पालन करने से ही मुक्ति संभव है, और ब्रह्मतत्व की अनुभूति होती है।

साधना में फल सिद्धि के लिए विशेष उत्तम अधिकारी होने की आवश्यकता है। इस सिद्धि में स्थान, काल आदि और उपाय उसके सहायक मात्र है। अतः ऐसे धीर तथा जिज्ञासु साधक को चाहिए की उत्तम ब्रह्मवेत्ता दया सिंधु गुरु की शरण लेकर आत्मवस्तु पर विचार करता रहे।

जो मेधावी, विद्वान और शास्त्रों के पक्ष का मंडन और उसके विपक्ष का खंडन करने में कुशल है। ऐसे लक्षणों वाला व्यक्ति ही आत्मविद्या का अधिकारी है। जो आत्मा और अनात्मा में विवेक कर सकता है। जो वैराग्यवान है जो शम आदि छह शक्तियों से युक्त है। ऐसे मुमुक्षु अर्थात मोक्ष की इच्छा रखने वाले व्यक्ति में ही ब्रह्म के विषय में योग्यता मानी गयी है।

इस ब्रह्म विद्या की सिद्दी में मनीषियों ने चार साधनाओं की आवश्यकता बताई है। इनके होने से ही ब्रह्मवस्तु में निष्ठा सधती है।

  1. नित्य अनित्य वस्तुओं के बीच विवेक को पहला साधन माना जाता है।
  2. इसके बाद इह लोक तथा परलोक में भोगे जाने वाले कर्मफलो के प्रति वैराग्य की गणना होती है।
  3. तीसरा साधन है शम आदि शठ सम्पतियाँ ।
  4. और चौथा है साधन है – मुमुक्षा अर्थात मुक्त होने की इच्छा।

ब्रह्म ही सत्य वस्तु है और जगत मिथ्या ऐसा दृढ़ निश्चय नित्य-अनित्य वस्तु ही विवेक कहलाता है। इस प्रकार का विवेक तभी उत्त्पन हो सकता है जब निष्काम कर्म की आदत आम जीवन में डालकर आत्मा को शुद्ध करे।

ज्ञान स्रोत – विवेकचूडामणि श्री आदि शंकराचार्य द्वारा

How useful was this post?

Click on a star to rate it!

Average rating 4.3 / 5. Vote count: 6

No votes so far! Be the first to rate this post.

Last Update: मई 24, 2023